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पूर्वज्ञान परीक्षा-��1. किन –किन महीनों में ज्यादा बारिश होती है?� �2. किन- किन महीनों में ज्यादा गर्मी पड़ती है?��3.बारिश करवाने के लिए हम क्या–क्या उपाय करते हैं?��4. इन सब उपायों से बारिश हो जाती है क्या आप � उपायों में विश्वास करते हैं?

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पाठ - 3

काले मेघा पानी दे

लेखक-धर्मवीर भारती

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उन लोगों के दो नाम थे – इन्दर सेना या मेंढक –मंडली | बिलकुल एक दूसरे के विपरीत | जो लोग उनके नग्नस्वरूप शरीर , उनकी उछलकूद, उनके शोर-शराबे और उनके कारण गली में होने वाले कीचड़ काँदो से चिड़ते थे, वे उन्हें कहते थे मेंढक – मंडली | उनकी आगवानी गलियों से होती थी | वे होते थे दस –बारह बरस से सोलह-अठारह बरस के लड़के, साँवला नंगा बदन सिर्फ़ एक जाँघिया या कभी कभी सिर्फ़ लंगोटी |

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एक जगह इकट्ठे होते थे | पहला जयकारा लगता था “बोल गंगा मैया की जय|” जयकारा सुनते ही लोग सावधान हो जाते थे |स्त्रियाँ और लडकियाँ छज्जे, बारजे से झाँकने लगती और यह विचित्र नंग- धड़ंग टोली उछलती-कूदती समवेत पुकार लगाती थी:

काले मेघा पानी दे

गगरी फूटी बैल पियासा

पानी दे गुड़धानी दे

काले मेघा पानी दे|

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  • उछलते – कूदते, एक दूसरे को धकियाते ये लोग गली में किसी दुमहले मकान के सामने रूक जाते, “और जिन घरों में आखीर जेठ या आषाढ़ के उन सूखे दिनों में पानी की कमी भी होती थी, जिन घरों के कुएँ भी सूखे होते थे,उन घरों से भी सहेज कर रखे हुए पानी में से बाल्टी या घड़े भर भरकर इन बच्चों को सर से पैर तक तर कर दिया जाता था

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ये भीगे बदन मिट्टी में लेट जाते थे, पानी फेंकने से पैदा हुए कीचड़ में लथपथ हो जाते थे | हाथ,पाँव,पेट पर सब पर गन्दा कीचड़ मलकर फिर हांक लगाते “ बोल गंगा मैया की जय” और फिर मंडली बाँधकर उछलते –कूदते अगले घर की ओर काले चल पड़ते बादलों को टेरते, “काले मेघा पानी दे|” वे सचमुच इसे दिन होते जब गली-मुहल्ला, गाँव-शहर हर जगह लोग गरमी में भुन-भुन कर त्राहिमाम कर रहे होते, जेठ के दसतपा बीत कर आषाढ़का पहला पखवारा भी बीत चुका होता पर क्षितिज पर कहीं बदल की रेखा भी दिखती नहीं होती, कुएँ सूखने लगते, नलों में एक तो बहुत कम पानी आता और आता भी तो आधी रात को भी मानो खौलता हुआ पानी हो |

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शहरों की तुलना में गाँव में और भी हालत ख़राब होती थी | जहाँ जुताई होनी चाहिए वहाँ खेतों की मिट्टी सुखकर पत्त्थर हो जाती, फिर उसमें पपड़ी पड़ कर जमीन फटने लगती, लू ऐसी कि चलते-चलते आदमी आधे रास्ते में लू खाकर गिर पड़े|ढोर-ढंगर प्यास के मारे मरने लगते लेकिन बारिश का कहीं नामोनिशान नहीं, ऐसे में पूजा –पाठ कथा-विधान सब करके लोग जब हार जाते तब अंतिम उपाय के रूप में निकलती यह इन्दर सेना| वर्षा के बादलों के स्वामी, हैं इन्द्र और इंद्र की सेना टोली बाँधकर कीचड़ में लथपथ निकलती, पुकारते हुए मेघों को, पानी माँगते हुए प्यासे गलों और सूखे खेतों के लिए|पानी की आशा पर जैसे सारा जीवन आकर टिक गया हो| बस एक बात मेरे समझ में नहीं आती थी कि जब चारों ओर पानी की इतनी कमी है तो लोग घर में इतनी कमी है तो लोग घर में इतनी कठिनाई से इकठ्ठा करके रखा हुआ पानी बाल्टी भर भर कर इन पर क्यों फकते हैं ?कैसी निर्मम बरबादी है पानी की |

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देश की कितनी क्षति होती है इस तरह के अन्धविश्वासों से | कौन कहता है इन्हें इंद्र की सेना ?अगर इन्द्र महाराज से ये पानी दिलवा सकते हैं तो खुद के लिए पानी क्यों नहीं माग लेते ?क्यों मोहल्ले भर का पानी नष्ट करवाते घूमते हैं, नहीं यह सब पाखंड है | अंधविश्वास है| इसे ही अंधविश्वासों के कारण हम अंग्रेजों से पिछड़ गए और गुलाम बन गए |मैं असल में था तो इन्हीं मेढक-मंडली वालों की उम्र का, पर कुछ तो बचपन के आर्यसमाजी संस्कार थे और एक कुमार-सुधार सभा कायम हुए थी उसका उपमंत्री बना दिया गया था-सो समाज-सुधार का जोश कुछ ज्यादा ही था| अंधविश्वासों के खिलाफ तो तरकस में तीर रखकर घूमता रहता था|मगर मुश्किल यह थी कि मुझे अपने बचपन में जिससे सबसे ज्यादा प्यार मिला वे थीं जीजी|यूँ मेरे रिश्ते में कोई नहीं थीं |

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उम्र में मेरी माँ से भी बड़ी थीं, पर अपने लड़के-बहू सबको

छोड़कर उनके प्राण उसी में बसते थे |और वे थीं उन तमाम रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों पूजा-अनुष्ठानों की खान

जिन्हें कुमार –सुधार सभा का यह उपमंत्री अंधविश्वास कहता था और उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता था|पर मुश्किल यह थीकि उनका पूजा-विधान, कोई त्योहार अनुष्ठान मेरे बिना पूरा नहीं होता था| दीवाली है तो गोबर और कोड़ियों से गोवर्धन औरऔर सतिया बनाने में लगा हूँ, जन्माष्टमी है तो रोज आठ दिन की झांकी

तक तक सजाने और पंजीरी बाँटने में लगा हूँ,हर-छठ है तो छोटी रंगीन कुल्हियोंमें भूजा भर रहा हूँ |किसी में भुना चना, किसी में भुनी मटर, किसी में भुने अरवा चावल, किसी में भुना गेंहू| जीजी यह सब मेरे हाथों से करात, ताकि उनका पुण्य मुझे मिले| केवल मुझे |

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लेकिन इस बार मैनें साफ इंकार कर दिया | नहीं फेंकना है मुझे बाल्टी भर-भर कर पानी इस गन्दी मेढक-मंडली पर|जब जीजी बाल्टी भर कर पानी ले गई उनके बूढ़े पाँव डगमगा रहे थे, हाथ काँप रहे थे, तब भी मैं मुँह फुलाए खड़ा रहा | शाम को उन्होंने लड्डू-मठरी खाने को दिए तो मैंने उन्हें हाथ से अलग खिसका दिया| मुँह फेरकर बैठ गया, जीजी से बोला भी नहीं| पहले वे भी तमतमाई, लेकिन ज्यादा देर तक गुस्सा नहीं रहा गया|

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  • पास आकर मेरा सर अपनी गोद में लेकर बोली, “ देख भइया रूठ मत| मेरी बात सुन | यह सब अन्धविश्वास नहीं है | हम इन्हें पानी देंगे तो इन्द्र भगवान हमें पानी कैसे देंगे?” मैं कुछ नहीं बोला | फिर जीजी बोलीं| “ तू इसे पानी की बरबादी समझता है पर यह पानी की बरबादी नहीं यह पानी अर्ध्य चढ़ातेहैं, जो चीज़ मनुष्य पाना चाहता है उसे पहले देगा तो पाएगा कैसे ? इसीलिए ऋषि –मुनियों ने दान सबसे ऊँचा स्थान दिया है|” “ऋषि –मुनियों को काहे बदनाम करती हो जीजी ? क्या उन्होंने कहा था कि आदमी बूँद –बूँद पानी को तरसे तब पानी कीचड़ में बहाओ|”

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कुछ देर चुप रही जीजी, फिर मठरी मेरे मुँह में डालती हुए बोली, “ देख बिना त्याग के दान नहीं होता|अगर तेरे पास लाखों –करोड़ों रुपये हैं और उसमें से तू दो –चार रुपये किसी को दे दे तो यह क्या त्याग हुआ|त्याग तो वह होता है कि जो चीज़ तेरे पास भी कम है,जिसकी तुझको भी जरूरत है तो अपनी जरूरत पीछे रखकर दूसरे के कल्याण के लिए उसे त्याग दे तो वह होता है, दान तो वह होता है, उसी का फल मिलता है|”“फल-वल कुछ नहीं मिलता सब ढकोसला है” मैंने कहा तो ,पर कहीं मेरे तर्कों का किला पस्त होने लगा था| मगर मैं भी जिद्द पर अड़ा था |

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फिर जीजी बोली,”देख तू तो अभी से पढ़- लिख गया है| मैंने तो गाँव के मदरसे का भी मुँह नहीं देखा |पर बात तो देखी है कि अगर तीस- चालीस मन गेहूँ उगाना है तो किसान पाँच-छह सेर अच्छा गेहूँ अपने पास से लेकर जमीन में क्यारियाँ बनाकर फेंक देता है|उसे बुवाई कहते हैं| यह जो सूखे हम अपने घर कापानी इन फेंकते हैं वह भी बुवाई| यह पानी गली में बोएँगे तो सारे शहर, क़स्बा, गाँव पर पानीवाले बादलों की फसल आ जाएगी |

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  • हम बीज बनाकर पानी देते हैं, फिर काले मेघा से पानी माँगते हैं | सब ऋषि-मुनि कह गए हैं कि पहले खुद दो तब देवता तुम्हें चौगुना-अठगुना करके लौटाएँगे भइया, यह तो हर आदमी का आचरण है, जिससे सबका आचरण बनता है|यथा राजा तथा प्रजा सिर्फ़ यही सच नहीं है| सच यह भी है कि यथा प्रजा तथा राजा|यही तो गाँधी जी महाराज कहते हैं|” जीजी का एक लड़का राष्ट्रीय आन्दोलन में पुलिस लाठी खा चुका था,तब से जीजी गाँधी महाराज की बात अक्सर करने लगी थीं|

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इन बातों को आज पचास से ज्यादा बरस होने के आए पर ज्यों की ज्यों मन पर दर्ज़ हैं|कभी- कभी कैसे-कैसे सन्दर्भों में ये बातें मन को कचोट जाती है, हम आज के लिए करते क्या हैं? माँगें हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी हैं पर त्याग का कहीं नामोनिशान नहीं है| अपना स्वार्थ आज एकमात्र लक्ष्य रह गया है | हम चटखारे लेकर इसके या भ्रष्टाचार की बातें करते हैं पर क्या कभी हमने जाँचा है कि अपने स्तर पर दायरे में हम उसी भ्रष्टाचार के तो नहीं बन रहे हैं ? काले मेघा दल के दल उमड़ते हैं, पानी झमाझम बरसता है,पर गगरी फूटी की फूटी रह जाती है,बैल पियासे के पियासे रह जाते हैं? आखिर बदलेगी यह स्थिति ?

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श्री राजेश कुमार (पी.जी.टी हिंदी)

जवाहर नवोदय विद्यालय

पल्लू,हनुमानगढ़ (राज.)

प्रस्तुतकर्ता

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धन्यवाद