नीचे लिखे गद्यांध को पढ़िए और प्रश्न संख्या 11 से 15 तक के प्रश्नों का उत्तर दीजिए -
गांधीजी का सामाजिक व पर्यावरण दर्शन सर्वग्राही रूप से मनुष्य क्या चाहते हैं पर आधारित न होकर , उनकी आवश्यकताओं पर आधारित है । जीवन के आरम्भ में जैनियों , थियोसॉफिकल , ईसा के उपदेशों , रस्किन और टाल्सटाय और सबसे महत्वपूर्ण भगवद्गीता के परचिय ने उनकी सर्ववादी मानवता , प्रकृति उसके पर्यावरणीय अर्क्सम्बन्ध के चिन्तन पर गहरा प्रभाव डाला ! साधनहीन ग्रामीण जनता के प्रति उनके मन में एक वैकल्पिक सामाजिक चिन्तन का विचार पनपा , जो दूरदर्शी स्थानीय और तात्कालिक था । गांधीजी इस बात से पूरी तरह जागरूक थे कि प्राकृतिक संसाधनों की तुलना में जनता के लिए भोजन जुटाने की मांग कही ज्यादा थी , और औद्यागीकरण ने इसे और जटिल बना दिया था । यह बात आज जितनी सामान्य और भोली लगती है लेकिन एक शताब्दि पहले यह उद्घोषणा धर्मद्रोही जैसी विरल थी । गांधी आधुनिकतावादी , औपनिवेशिक षड्यंत्रके अन्तर्गत पर्यावरण के प्रति संवेदनशील मौजूदा ढांचे के विनाश की आशंका से चिन्ति थे । इन मौजूदा ढांचों में भरण - पोषण की पारम्परिक रीति से सम्पन्न बनाने की अपार सम्भावनाएं थीं विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में बजाय मानव आत्मा एवं शक्ति को दास बनाने वाली वैकल्पिक अन्धी पश्चिमी टेक्नोलॉजी के ।
शायद गांधीजी का जो नैतिक सिद्धान्त सबसे अधिक जाना जाता है वह है सक्रिय अहिंसा , दूसरे जीवों को दुख न पहुंचाना पारम्परिक नैतिक संयम से व्युत्पन्न । इस मूल्य की सर्वाधिक परिष्कृत अभिव्यक्ति महाभारत महाकाव्य ( 100 से 200 ई . पू . ) में मिलती है जहां मानव की निरंतर स्वतंत्रताओं , इच्छाओं और संग्रह के ऊपर नियंत्रण लगाने से नैतिक विकास होता है । मनुष्य कार्यों का मूल्यांकन दूसरों के ऊपर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा इसमें मापा जाता है । जैनियों ने इस सिद्धांत को समस्त चैतन्य तथा जीव - जन्तुओं पर समान रूप | से लागू किया है । अग्रणी जैन मुनि और भिक्षुणियां जीवों व कृमियों की हत्या न हो इसलिए रास्ते को झाडू से बुहारते हैं । अहिंसा सार्वभौम आदेश है , जिस पर कोई समझौता नहीं हो सकता ।