1.वेदवित् - वेदों का ज्ञाता
जो वेदों को बहुत अच्छी तरह से जानता हो।
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमध:शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् | छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्
|| 15.1||
अर्थ: जो अश्वत्थ वृक्ष के रहस्य को जानते हैं उसे वेदों का ज्ञाता , वेदवित् कहते हैं।
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2.ब्रह्म वित् - जिसे ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान है - जिसने ब्रह्म विद्या जैसे वेद, गीता, उपनिषद, पुराण और अन्य शास्त्र पढ़े हैं।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् |
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:
|| 5.20||
अर्थ: जो स्वयं को जानता है जो स्थिरबुद्धि, संमोहरहित ब्रह्मवित् पुरुष ब्रह्म में स्थित है, वह प्रिय वस्तु को प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता।
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3.कृत्स्न-वित्-ज्ञानी पुरुष
वह व्यक्ति जिसके पास तथ्यात्मक ज्ञान हो
प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु | तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्||3.29||
अर्थ :कृतस्नवित् यानि बुद्धिमान ज्ञानी पुरुष , जो इस परम सत्य को जानते हैं, उन्हें अकृत्स्न-वित् यानि अज्ञानी लोग को विचलित नहीं करना चाहिए जिनका ज्ञान अल्प होता है।
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4.योग-वित्-तमः योग के ज्ञान में सबसे उत्तम।
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः
।।12.1।।