सत् और असत् क्या है ?
हमने पिछली प्रश्नोत्तरी में देखा कि भगवान किस तरह से इंतजार कर रहे थे कि अर्जुन स्वयं उनसे कहे कि वह इस युद्ध में निर्णय नहीं ले पा रहा है और उसे मार्गदर्शन की आवश्यकता है। जब मन भ्रमित होता है तो वह सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि वह अहंकार से भरा होता है। जब मन साफ और स्पष्ट होता है और अपने भीतर के अज्ञान को स्वीकार करता है, तभी वह ज्ञान के प्रति ग्रहणशील होता है। जिस क्षण अर्जुन ने कृष्ण के सामने समर्पण किया, तब भगवान मुस्कुराए और तुरंत अर्जुन को आत्म ज्ञान के बारे में बताना शुरू किया। उन्होंने अर्जुन को समझाया कि कोई भी विद्वान मृत या जीवित प्राणियों के लिए शोक नहीं करते हैं । इसका गहरा अर्थ देखा जाए तो भगवान शरीर और शरीरी के बारे में बताते हैं ।
शरीर में धारण करने वाला को शरीरी या देही कहते हैं। शरीर पंचभूतों से बनी एक भौतिक जड़ है । शरीर नाशवान है, परिवर्तनशील है, अनित्य है और इसलिए इसे असत् कहते हैं यानि जिसका वास्तविकता नहीं है। इसी तरह शरीरी चेतना है, जीवात्मा है, अविनाशी है , अपरिवर्तनशील है , नित्य है और इसे सत् कहते हैं यानि जो सत्य और वास्तविक है|
जो इस सत्/ असत् का भेद जानता है उसे भगवान गीता में धीर/ पंडित / तत्त्वदर्शी / विवेकबुद्धि वाला पुरुष कहते हैं क्योंकि वे निर्भय है और वे मृत या जीवित प्राणियों के लिए कभी भी शोक नहीं करते ।
हम सब को ये प्रश्न अपनेआप से पूछना चाहिए - “मैं कौन हूँ ? मैं शरीर नहीं हूँ ।मैं आत्मा हूँ । यह आत्मा सत् है और यह शरीर असत् है ।”
भगवान आत्मा के बारे में श्लोक में कहते हैं “ऐसा कोई समय नहीं था कि जब मैं नहीं था या तुम नहीं थे और ये सभी राजा न रहे हों और ऐसा भी नहीं है कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे।” इससे हमें पता चलता है कि कैसे परमात्मा और सभी आत्माएं हमेशा अस्तित्व में रहती हैं और उनका अस्तित्व कभी खत्म नहीं होता। वे अतीत में भी विद्यमान थे, वर्तमान में भी विद्यमान हैं और भविष्य में भी विद्यमान रहेंगे और हमेशा के लिए विद्यमान रहेंगे। परमात्मा और आत्माएँ शाश्वत और अविनाशी हैं।
भगवान ये भी कहते हैं कि शरीर में बाल्यावस्था, युवास्था, वृद्धावस्था के कारण परिवर्तन आता है लेकिन शरीरी/आत्मा यानि शरीर धारी में बिल्कुल कोई परिवर्तन नहीं होता है । देहांत के बाद आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर चले जाता है । ऐसे ही आत्मा कई जन्मो में विभिन्न शरीर बदलते हैं लेकिन उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है भले ही वह अलग-अलग शरीर धारण करे। यह बिना किसी बदलाव के एक जैसा ही है।इस प्रकार भगवान शरीर और शरीरी पर प्रकाश डालते हैं और अर्जुन को समझाते हैं कि इन दोनों से कोई भी भ्रमित नहीं होता।