मैनेज योर मनी !
मौजूदा समय में बाहरी तत्वों पर काबू पाना हमारे बस की बात नहीं है। वैश्विक अस्थिरता, शेयर बाजार में चल रही उठा-पटक, मुद्रास्फीति में उछाल आदि पर भले ही हमारा नियंत्रण नहीं है पर इन हलचलों के बावजूद अपनी फाइनेंशियल पोजीशन को सुदृढ़ रखने के लिए कुछ ऐसे प्रयास किए जा सकते हैं जो बुरे वक्त में आपकी सहायता कर सकें।
खर्च के हिसाब से बजट बनाएं
लोग अक्सर इस बात को भूल जाते हैं कि समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। ढेरों रुपए होने के समय आप बेहिसाब खर्च करते हैं लेकिन जरूरत पड़ने पर जब दूसरों के सामने हाथ फैलाना पड़ता है तब महसूस होता है कि थोड़ी बचत कर ली होती तो यह दिन नहीं देखना पड़ता। ऐसे में बेहतर जीवन जीने के लिए हमेशा बजट बनाए और उसके अनुसार चलें। उदाहरण के तौर पर यदि आपने एंटरटेनमेंट खर्च 500 रुपए तय किया है तो उससे एक भी रुपए ज्यादा न खर्च करें। यह न सिर्फ आपकी वित्तीय स्थिति बेहतर करेगा बल्कि आपकी इच्छाशक्ति भी बढ़ाएगा।
फ्यूचर इनकम पर न रहें निर्भर
आजकल फ्यूचर इनकम पर भरोसा कर आज खर्च करना सबसे बड़ी भूल है। जब आप अच्छी कंडीशन में होते हैं तो विभिन्न प्रकार के लोन और क्रेडिट कार्ड का खर्च बढ़ा देते हैं पर विषम परिस्थितियों में जॉब से हाथ धोने या सैलरी कटौती के कारण मुश्किल में पड़ सकते हैं। अत: बेहतर यही होगा कि अपनी आय के हिसाब से खर्चे पालें। अन्यथा उनको चुकाना भारी पड़ सकता है।
कर्ज कम करें
यदि आप बेहतर पोजीशन में बने रहना चाहते हैं तो कम से कम लोन लें। यदि लोन लिया भी है तो उसे जल्द से जल्द चुकाने की कोशिश करें। बोनस, प्रोत्साहन राशि व अन्य स्रोतों से अतिरिक्त रुपए मिलते हैं तो उससे लोन खत्म करने का प्रयास करें। आपने कई लोन ले रखें हैं तो पहले सबसे ज्यादा ब्याज दर वाला लोन चुकाएं फिर उससे कम ब्याज दर वाला और अंत में सबसे कम दर वाला। जैसे यदि आपने क्रेडिट कार्ड कर्ज, पर्सनल लोन, होम लोन ने रखा है तो सबसे पहले क्रेडिट कार्ड का कर्ज चुकता करें फिर पर्सनल लोन और आखिर में होम लोन। इसके लिए कर्ज की सूची बनाएं और सिस्टमेटिक वे से चलें। यह न सिर्फ रुपए बचाएगा बल्कि मानसिक शांति भी देगा।
स्ट्रैटिजिक संपत्ति जमा करें
बाजार विशेषज्ञ हमेशा पूंजी संचयन पर जोर देते हैं पर कई निवेशक उन्हीं में निवेश करते हैं जो कि सबसे ज्यादा हॉट है। लेकिन हमेशा ध्यान रखें कि बाजार परिस्थितियां बदल सकती हैं और जो आज हॉट है वह कल लंबे समय के लिए ठंडा पड़ सकता है। सबसे ज्यादा रिटर्न पाने के लिए अपना पोर्टफोलियो किसी एक चीज में लगाने के बजाए स्टॉक्स, बांड्स, गोल्ड और रियल इस्टेट में विभाजित करें।
इमरजेंसी कैश रखें
आपके परिवार में कब मुसीबन आन पड़े, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसे में हमेशा इमरजेंसी कैश का इंतजाम करके रखें। ताकि मुश्किल समय में भी हंसते हुए पार पाया जा सके।
प्लानिंग करें
जब भी आप फ्री हों तो अपनी वित्तीय जरूरतों की प्लानिंग करें। महीने भर में एक बार बैठकर जरूर इस बात पर ध्यान दें कि आप फाइनेंस को किस तरह से मैनेज करेंगे। उदाहरण स्वरूप रविवार को एक-दो घंटे बैठकर यह देखें कि आपके निवेश कैसे परफार्म कर रहे हैं। इसके लिए फाइनेंशियल प्लानर से भी बात कर सकते हैं।
एडवांस में करें प्लानिंग
लोगों के सामने समस्या तब आती है जब वह एडवांस में प्लानिंग नहीं करते है। अपनी मौजूदा स्थिति का आंकलन कर सुनिश्चित करें कि आपको कहां जाना है और अपने उद्देश्यों तक कैसे पहुंचना है। हमेशा फोकस रहें और अपनी प्रोग्रेस पर नजर रखें।
इनवेस्टमेंट करने से पहले इन सात गलतियों पर दें ध्यान
हम सब गलतियां करते हैं। कभी-कभी हम ऐसी गलतियां भी कर जाते हैं जो हमें नहीं करनी चाहिए। कुछ गलतियां बहुत छोटी होती हैं, जिन्हें अवसर मिलने पर सुधारा जा सकता है। लेकिन कुछ गलतियां हमें काफी महंगी पड़ती हैं और दूसरा अवसर मिलने पर भी इन्हें आसानी से नहीं सुधारा जा सकता। इनवेस्टमेंट भी एक ऐसा क्षेत्र हैं जहां छोटी से छोटी गलती भी बड़ी महंगी साबित हो सकती है। तो क्या आपको पता है कि इनवेस्टमेंट करने से पहले आपको क्या करना चाहिए? और क्या आपको यह भी पता है कि इनवेस्टमेंट करते समय वे कौन-कौन सी गलतियां हैं जिनसे बचना चाहिए? अगर आपको नहीं पता तो कोई बात नहीं। हम यहां आपको ऐसी आम सात गलतियों से परिचित करा रहे हैं जिन्हें इनवेस्टमेंट करते समय आपको हर कीमत पर करने से बचना चाहिए।
ट्रेडिंग और इनवेस्टमेंट के बीच असमंजस : सबसे पहले आपको ट्रेडिंग और इनवेस्टमेंट के बीच के फर्क को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। ट्रेडिंग एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके लिए आपको बहुत ज्यादा प्लानिंग और रिसर्च की जरूरत नहीं होती। इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि ट्रेडिंग के लिए आपको केवल स्टॉक और म्युचुअल फंड खरीदना और बेचना होता है। सही मायने में ट्रेडिंग आपको लंबी अवधि में पूंजी बनाने में मदद नहीं करता लेकिन इससे आपके ब्रोकर को जरूर अच्छा खासा लाभ हो जाता है। इसलिए इनवेस्टमेंट करने से पहले यहां ट्रेडिंग और इनवेस्टमेंट के बीच के अंतर को भलीभांति समझना बहुत जरूरी है।
इनवेस्टमेंट के लिए आपको बहुत रिसर्च और सोची समझी प्लानिंग की जरूरत होती है। आपकी इनवेस्टमेंट पूंजी, आपका लक्ष्य, रिस्क उठाने की क्षमता, वर्तमान मार्केट कंडीशन और भविष्य के मार्केट के लिए कुछ बेसिक अध्ययन के साथ ही अन्य कई मुद्दों की समझ आपको बेहतर इनवेस्टमेंट रणनीति बनाने में काफी मददगार साबित होगी।
रूढिवादिता : अधिकांश लोग बहुत ही रूढ़ीवादी रुख अपनाते हैं और वे पारंपरिक प्रॉडक्ट जैसे बैंक डिपॉजिट, पब्लिक प्रोविडेंट फंड (पीपीएफ) आदि में निवेश करते हैं। उनका तर्क होता है कि पारंपरिक प्रॉडक्ट गारंटीड रिटर्न देते हैं। हालांकि, पारंपरिक प्रॉडक्ट से मिलने वाला रिटर्न स्टॉक, म्युचुअल फंड और इक्विटी से मिलने वाले रिटर्न की तुलना में काफी कम होता है। एक अच्छा इनवेस्टमेंट उसे कहते हैं जो गारंटीड रिटर्न के साथ ही वास्तविक रिटर्न भी दे। वास्तविक रिटर्न वह रिटर्न है जो मुद्रास्फीति के बाद मिले। और यह हमेशा तभी सही होगा जब हम वास्तविक रिटर्न को विशेषज्ञ की मदद से वर्तमान हालातों को विशेषकर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखकर गणना करें।
आक्रामकता : बहुत अधिक रूढ़ीवादिता न अपनाने का मतलब यहां यह बिल्कुल नहीं है कि आप मार्केट में एकदम आक्रामक रुख अपना लें। एक निवेशक यदि बिना सोचे समझे और बिना किसी जानकारी के किसी कंपनी के स्टॉक में आक्रामक तरीके से इनवेस्ट करता है तो उसे अपनी पूंजी गंवानी भी पड़ सकती है। ऐसे में बीच का रास्ता अपनाना बहुत फायदेमंद होता है। इसलिए हमेशा मार्केट कंडीशन के हिसाब से अपने इनवेस्टमेंट पोर्टफोलियो में बदलाव करते रहना चाहिए।
बेकार स्टॉक का चयन : बेकार स्टॉक को खरीदना, कुछ निवेशकों द्वारा की जाने वाली यह एक बड़ी सामान्य सी गलती है। बेकार स्टॉक का मतलब केवल नॉन परफॉर्मिंग स्टॉक से नहीं है, इसका मतलब ऐसे कंपनियों के स्टॉक से भी है जिनके बारे में कभी कुछ नहीं सुना गया हो। ऐसे किसी कंपनी के स्टॉक खरीदने से बचना चाहिए जिनके बारे में हमनें कभी कुछ सुना या पढ़ा न हो, भले ही यह कंपनियां बेहतर प्रदर्शन क्यों न कर रही हों। ऐसी कंपनियों के स्टॉक छोटी अवधि में तो अच्छा रिटर्न देते हैं लेकिन लंबी अवधि में इनका कोई भरोसा नहीं रहता और कभी भी इनके स्टॉक बेकार हो जाते हैं। यहां ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं कि कई कंपनियां और उनके स्टॉक एक समय पश्चात बिल्कुल बेकार हो गए।
इसलिए यह जरूरी है कि हमेशा परफॉर्मिंग स्टॉक में ही निवेश किया जाए। और साथ ही एक अच्छे फंड मैनेजर की मदद ली जाए। उदाहरण के तौर पर एक छोटे सी रकम के साथ आप सिस्टेमेटिक इनवेस्टमेंट प्लान (सिप) के जरिए रेगूलर इनवेस्ट कर सकते हैं और लंबी अवधि में इसके जरिए आप एक अच्छी खासी पूंजी बना सकते हैं।
अपने निवेश की सुध न रखना : लंबी अवधि के दौरान अच्छे रिटर्न के लिए समय-समय पर अपने इनवेस्टमेंट की जांच परख करना भी बहुत जरूरी है। मार्केट के व्यवहार, अपनी रिस्क क्षमता और वित्तीय लक्ष्यों के समावेश के साथ एक निश्चित समय अंतराल पर इनवेस्टमेंट पोर्टफोलियो की जांच करते रहना चाहिए। अनुपयुक्त इनवेस्टमेंट जैसे डेट में लंबे समय के लिए बहुत अधिक इनवेस्टमेंट और आने वाले तिमाही नतीजो से पहले इक्विटी में असामान्य इनवेस्टमेंट आपको मुश्किल में डाल सकता है और इससे आपके रिटर्न पर भी विपरीत असर पड़ सकता है।
मार्केट के सही समय की समझ : यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां कई बार विशेषज्ञ भी चूक जाते हैं। शॉर्ट से मीडियम टर्म में मार्केट बहुत अधिक अप्रत्याशित होता है। हालांकि यहां कुछ पैरामीटर हैं जिनकी मदद से मार्केट का अनुमान लगाया जा सकता है। देश के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और व्यापारिक हालातों पर मार्केट निर्भर रहता है। यहां कोई ऐसा नियम नहीं है जिसकी मदद से यह पता चल सके कि किस हालात में मार्केट का क्या रुख रहेगा। यहां आपको यह सुझाव दिया जाता है कि ऐसे हालातों के बारे में ज्यादा पढऩे से बचें। इसके विपरीत आप अपनी निवेश रणनीति पर ज्यादा ध्यान दें जो आपको लंबी अवधि में एक बड़ी पूंजी बनाने में मददगार होगी।
अतिविश्वास : लंबे समय से मार्केट से जुड़े खिलाडिय़ों से अगर पूछा जाए तो वह केवल यही सलाह देंगे कि अल्प अवधि में मिली सफलता से अतिविश्वासी न बनें। अच्छे समय में विश्वासी होना कोई गलत बात नहीं है लेकिन अतिविश्वास में आकर कभी-कभी निवेशक गलत कर बैठता है। यहां यह समझना बहुत जरूरी है कि मार्केट में आपको हाल ही में मिली सफलता के पीछे कई छिपे कारण हो सकते हैं। इसलिए थोड़ी सी सफलता के कारण अतिविश्वास में आकर अपने आप को परफेक्ट मैनेजमेंट ऑफ पोर्टफोलियो न समझे। इससे आप बड़ी परेशानी में पड़ सकते हैं और आपको वित्तीय नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। मार्केट में इनवेस्टमेंट करने से पहले इन सभी सामान्य सी गलतियों को किसी भी कीमत पर करने से बचें, तो आप जरूर सफल निवेशक बन सकेंगे।
निवेश एक्सपर्ट बनने के टिप्स
पैसा कमाने और बैंक बैलेंस बढ़ाने के लिए स्टॉपक मार्केट में इनवेस्ट करना भविष्य के लिए फायदेमंद होता है। लेकिन सभी स्टॉक एक समान फायदा नहीं देते। कई बार छोटे इनवेस्टमेंट से अधिक लाभ प्राप्त हो जाता है, वहीं बड़े इनवेस्टमेंट से नुकसान होने का खतरा भी बना रहता है। मार्केट में आए उतार-चढ़ाव को देखते हुए सोच समझकर इनवेस्ट करने में ही समझदारी है।
हम यहां आपको स्टॉक मार्केट में महारत हासिल करने के लिए कुछ टिप्स दे रहे हैं :
- अपने होने वाले नुकसान को रोकना बेहद जरूरी है। अगर आप मार्केट में इनवेस्ट किए हुए पैसे से नुकसान उठा रहे हैं तो जल्द ही उसे रोकने का प्रयास करें और मार्केट से बाहर हो जाएं। वहीं अगर इनवेस्ट किए हुए पैसे से प्रॉफिट मिल रहा है तो मार्केट के डाउन होते ही और इनवेस्ट करना आपके लिए बेहतर होगा।
- नुकसान होने की स्थिति में उससे सीखने का प्रयास करें। स्वयं की गलती से पैसे गंवाए जा सकते हैं। मार्केट में स्वयं को जमाए रखने के लिए गलतियों को न दोहराएं तो बेहतर होगा।
- लालच को अपने से दूर रखें। जब मार्केट ऊपर जाता है तो इनवेस्ट करना आसान होता है। लेकिन इस प्रकार की गलती नुकसान का भी कारण बन सकती है। होम लोन के लिए डाउन पैमेंट और नई कार के लिए कार लोन लेने से बचने के लिए जल्द से जल्द बड़ी रकम का इंतजाम करने के लालच में कई लोग छोटी और तेजी से ऊपर जाती कंपनियों के शेयर में इनवेस्ट करते हैं। यह बात सिद्ध हो चुकी है कि इस प्रकार उठाया गया कदम हमेशा नुकसान देता है। अच्छे लाभ के लिए हमेशा लंबी अवधि के लिए ऐसी कंपनी के शेयरों में इनवेस्ट करना चाहिए जो मार्केट में स्टेबलिश हों और उनका ट्रेक रिकॉर्ड हमेशा अच्छा रहा हो।
- ज्यादा पैसा इनवेस्ट कर ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में कई लोग पैसा उधार लेकर इनवेस्ट शुरू कर देते हैं। इसका उन्हें भारी खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। इससे उस व्यक्ति पर वित्तीय भार तो बढ़ता ही है साथ ही मानसिक तनाव भी झेलना पड़ता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए जरूरी है कि थोड़ा-थोड़ा इनवेस्टमेंट किया जाए और उधार लेने से बचा जाए।
- मार्केट में आए उतार-चढ़ाव को देखकर ही कदम आगे बढ़ाएं। जब तक स्वयं पूरी तरह से तैयार न हों तब तक इनवेस्टमेंट न करें।
- जितना हो सके इनवेस्टमेंट से संबंधित किताबों का अध्ययन करें। अधिक से अधिक मार्केट के टच में रहने का प्रयास करें और अपने ज्ञान को हमेशा अपडेट करते रहें। आप वारेन बफेट और राकेश झुनझुनवाला जैसे इनवेस्टर गुरु की पुस्तकों की भी मदद ले सकते हैं।
- अलग-अलग स्टॉक में इनवेस्ट करें लेकिन एक निश्चित सीमा में। एक व्यक्ति को 20 से अधिक स्टॉक में इनवेस्ट नहीं करना चाहिए। विभिन्न सेक्टर में इनवेस्ट करने से नुकसान का खतरा कम किया जा सकता है।
- ज्यादा इनवेस्टमेंट रणनीति का उपयोग करने से बचना चाहिए। अगर आप खरीदने और बेचने की पद्धति से संतुष्ट हैं तो अन्य रणनीति का प्रयोग न करें। अन्यथा आप वास्तविक रणनीति से भटक सकते हैं।
- ऐसे स्टॉक का चुनाव करें जिससे पैसे वापस प्राप्त हो सकें। अगर आप ज्यादा जोखिम उठाने में समर्थ नहीं हैं तो अधिक इनवेस्टमेंट न करें।
कंपनी का मूल्याकंन करने के हथियार
यदि आप काफी मोलभाव कर खरीदारी करते हैं तो एक एयर कंडीशनर या फिर डायमंड ब्रेसलेट की सही-सही कीमत जरूर पता लगा सकते हैं। लेकिन आप यह कैसे तय करेंगे कि किसी एक कंपनी के बिजनेस के लिए या उसके स्टॉक को खरीदने के लिए आप क्या कीमत चुकाएंगे?
ऐसे समय पर मूल्याकंन की जरूरत होती है। किसी खरीददार द्वारा किसी कंपनी का अधिग्रहण करने के लिए वह कितनी कीमत चुकाए यह जानने के लिए उस कंपनी का सही-सही मूल्याकंन करना भी जरूरी होता है। इससे प्रारंभिक सार्वजनिक प्रस्ताव (आईपीओ) में शेयर की कीमत पता करने या शेयर बाजार में मोलभाव करने में भी मदद मिलती है। तो सवाल यह है कि कैसे कोई विश्लेषक किसी व्यापार के मूल्य तक पहुंचते हैं?
शेयर बाजार में कंपनियों के मूल्याकंन के लिए आप विभिन्न प्रकार के कई गुणक सुनेंगे। यहां हम आपको संक्षेप में कुछ निरपेक्ष और साथ ही सापेक्षित मूल्याकंन उपायों के बारे में बता रहे हैं।
पीई गुणक:
प्राइस अर्निंग या पीई सामान्यता सबसे ज्यादा उपयोग किया जाने वाला गुणक है। लेकिन इसमें भी कई वेरिएंट हो सकते हैं जैसे करंट पीई, ट्रेलिंग पीई और अन्य। किसी फर्म द्वारा प्लेन वनीला पीई की गणना शेयर कीमत में अपने प्रति शेयर आय को विभाजित कर की जाती है। पीई गुणक का इस्तेमाल आमतौर पर कंपनी के वर्तमान बाजार मूल्य के आधार पर किया जाता है। जब इसे विभाजित करने की बात होती है तब प्रति शेयर आय के लिए पिछले 12 महीनों में कंपनी की आय (इसे ट्रेलिंग ईपीएस कहा जाता है), अनुमानित आय अगले 12 माह की ईपीएस (फॉरवर्ड ईपीएस) और भविष्य वर्ष के लिए आय (फ्यूचर ईपीएस) का उपयोग किया जा सकता है।
एक उच्च पीई अनुपात यह संकेत देता है कि मार्केट कंपनी की ग्रोथ रेट को सपोर्ट कर रहा है और यह काफी उच्च होगी, इसमे जोखिम काफी कम होगा और इसका भुगतान अनुपात भी काफी उच्च हो सकता है। (वैकल्पिक रूप से यह कहा जा सकता है कि कंपनी को पुनर्निवेश की जरूरत काफी कम है।)
पीईजी अनुपात:
प्राइस अर्निंग ग्रोथ रेशियो की तुलना कंपनी के पीई गुणक के साथ उसके मुनाफे में अनुमानित वृद्धि से की जाती है। इसकी गणना पीई गुणक को कंपनी के ईपीएस में अनुमानित वृद्धि दर से विभाजित कर की जाती है। यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि ईपीएस के लिए उपयोग किए जाने वाले अंक पीई गुणक और जी की गणना करते समय एक समान होने चाहिए। उदाहरण के लिए यदि हीरो होंडा अनुमान लगाए कि इस साल उसके ईपीएस में 10 फीसदी की वृद्धि होगी और उसकी वर्तमान पीई 18.15 है, तब इसकी पीईजी 18.15/10 = 1.815 बार होगी।
पीईजीवाय गुणक:
यह पीई गुणक का एक और वेरियंट है। इसकी गणना कंपनी के पीई अनुपात को उसके ग्रोथ रेट और डिविडेंड यील्ड के जोड़ से विभाजित कर की जाती है। इसका विचार यह है कि डिविडेंड को भी निवेशक के कुल रिटर्न में जोड़ा जाए। यहां डिविडेंड यील्ड की गणना कंपनी की अनुमानित डिविडेंड पेआउट को स्टॉक के मार्केट प्राइस से विभाजित कर की जाती है। पीईजीवाय अपेक्षाकृत पीईजी से बेहतर है।
उदाहरण के लिए मान लीजिए टीवीएस मोटर की ग्रोथ रेट 8 फीसदी है और इसकी अनुमानित डिविडेंड यील्ड 7 फीसदी है, यदि स्टॉक का पीई 18.65 है, तब टीवीएस मोटर का पीईजीवाय 18.65/(8+7) = 1.24 है, जबकि इसका पीईजी 18.65/8 = 2.33 है। यदि कंपनी का पीई गुणक उसके ईपीएस में ग्रोथ रेट और अनुमानित डिविडेंड यील्ड के योग से कम है, तब कंपनी का मूल्यांकन सही नहीं है।
रिलेटिव पीई:
पीई रेशियो और पीईजी यह बताने में आपकी मदद कर सकते हैं कि कोई शेयर अपने फायदे और ग्रोथ रेट की तुलना में कितना महंगा या फिर कितना सस्ता है। लेकिन आप यह कैसे तय करेंगे कि कौन सा स्टॉक मार्केट या सैक्टर के हिसाब से खरीदना बेहतर है?
इसके लिए एक उपाय है कि कंपनी के पीई गुणक को मार्केट के पीई रेशियो से विभाजित कर दिया जाए। उदाहरण के लिए 24 दिसंबर 2010 को निफ्टी के लिए पीई रेशियो लगभग 24 था। बजाज ऑटो के लिए रिलेटिव पीई 17.80/24 = 0.74 था। हम अब कह सकते हैं कि निफ्टी और मार्केट की तुलना में बजाज ऑटो अंडर वेल्यूड है। जब यहां रिलेटिव वेल्यूशन का उपयोग करते हैं, तब कंपनी के ऐतिहासिक प्रीमियम और मार्केट के डिस्काउंट का ध्यान रखना भी जरूरी है। उदाहरण के लिए यदि बजाज ऑटो का ऐतिहासिक ट्रेंड मार्केट पीई का 90 फीसदी तक था, तब वर्तमान में यह अंडर वेल्यूड है।
पीई रेशियो के अन्य वेरिएंटस के माध्यम से किसी कंपनी के शेयरों की मार्केट वेल्यू उनकी अर्निंग के तुलनात्मक आधार पर प्राप्त की जा सकती है। लेकिन यह सभी गुणक किसी संपूर्ण फर्म की वेल्यू नहीं निकाल सकते। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रत्येक गुणक किसी विशेष परिस्थितियों में सही हो सकता है और कोई दो गुणक एक-दूसरे के पूरक नहीं हो सकते। और सबसे आखिर में किसी भी चीज के लिए दाम लगाने की आजादी तो मूल्यंकनकर्ता के पास ही है।
जुआघर नहीं है शेयर बाजार
शेयर बाजार को जुआ से जोड़कर देखने वाले कहीं न कहीं मिल ही जाते हैं। कई शहरों में आपने देखा होगा कि जिस गली या रास्ते पर यह बाजार होता है चाहे वह कमोडिटी का हो या शेयरों का, उसका नाम सट्टा बाजार होता है। इतना ही नहीं, इससे जुड़े लोगों को भी जुआरी की तरह देखा जाता है। यह भी एक कारण है कि सवा अरब लोगों के हमारे देश में सिर्फ 30 लाख लोग इस बाजार में हिस्सा लेते हैं और कोई 3.25 करोड़ लोग कंपनियों के शेयरधारक हैं। शेयर बाजार में कोई काम भी करना चाहे तो घर के बड़े बुजुर्ग उसे रोकते हैं, सावधान करते है। इतना ही क्यों, एक वक्त तो ऐसा भी था कि जब स्टॉक और शेयर बाजार से जुड़े किसी बेचारे के लिए शादी का प्रस्ताव मिलना भी मुश्किल होता था।
इसलिए जुए के खेल में और शेयर बाजार के खेले में जो फर्क है उसे हमें समझ लेना चाहिए। आजकल जुआ सबसे अधिक कहां दिखाई देता है-क्रिकेट या फुटबाल या घुड़दौड़ में, सिक्का उछालकर कोई फैसला करने में, लॉटरी लगाने या कैसिनो खेलने में, ये सब ऐसे हैं कि जिनमें आपका कुछ दावं पर नहीं लगा होता है। जैसे कि क्रिकेट है तो आप जीते या हारे, लोग तो खेल का पूरा मजा लेंगे ही लेंगे। बहुत होगा तो घरेलू टीम के हारने से दर्शक थोड़े दुखी हो जाएंगे लेकिन खेल देखने से किसी दर्शक का कोई आर्थिक नुकसान नहीं होगा। लेकिन यही मामला तब बिलकुल बदल जाएगा जब आप मैच के परिणाम को लेकर बाजी लगाने लगेंगे। मतलब यह कि खेल में अपने आप कोई खतरा नहीं होता है। आपने खेल में जुआ खेला तो खतरा बढ़ जाता है।
अब हम शेयर में पैसा लगाने को समझने की कोशिश करें, जब हमारे पास नकद पैसा होता है, तब कई खतरे हमेशा बने रहते हैं। अगर हम पैसे को कहीं लगाए नहीं बल्कि अपने पास ही रखे रहें तो महंगाई बढ़ने के साथ-साथ उसकी कीमत गिरने लगती है, उसकी चोरी हो जाती है, हमारे नाते-रिश्तेदारों में से कोई उसे अनाप-शनाप खर्च कर देता है या आप उसे किसी ऐसी जगह लगा देते हैं कि जिससे कमाई बहुत कम होती है। ऐसे निवेश को हम मौका गंवाना कहते हैं। इसलिए जब हम अपने पैसों का निवेश शेयरों में करते हैं तो हम अपने सामने के इन खतरों को कम करते हैं और वैसे निवेश चुनते हैं जिनमें वापसी अच्छी मिले। इसमें खतरे में पड़ने या खतरा ओढ़ने जैसी कोई बात नहीं होती है।
शेयर बाजार में उतार चढ़ाव इतना तेज होता रहता है कि लोगों को लगता है कि इसमें निवेश करना सुरक्षित नहीं है। आपको ऐसे लोग मिलेंगे कि जो कहेंगे कि यह बाजार तो रोज-रोज गिरता-उठता है, इसका क्या भरोसा? घाटे का डर इतना होता है कि लोग अपने कदम वापस खींच लेते हैं। लेकिन हम इस उतार-चढ़ाव को कमाई के बेहतर मौके के रुप में क्यों न देखें? अगर बाजार में चढ़ाव-उतार नहीं रहा तो आपको कमाई का मौका कहां से मिलेगा ! जब बाजार ऊपर जाता है तब हमें मौका मिलता है कि हम अपने शेयर बेचकर कमाई करें और जब बाजार गिरता है तो हमें मौका मिलता है कि हम ज्यादा शेयर खरीद सकें।
निवेशकों की तरफ से एक बात यह भी कही जाती है: इस बाजार में तो हमेशा यही होता है कि हम महंगा खरीदें, सस्ता बेचें और इस तरह हर बार अपना पैसा डुबाएं। अब इस शंका को भी हम देख लें। शेयर बाजार में आपको पैसा कमाना हो तो उसकी एक शर्त यह है कि आपका इस बाजार से लंबा रिशता बनना चाहिए। सामान्यत: होता ऐसा है कि बाजार में जिन शेयरों में धूम मची होती है और रोज जिनका भाव बढ़ता जाता है, हम यह सोचकर कि कहीं हम कमाई में किसी से पिछड़ न जाएं, जल्दबाजी में उन्हीं शेयरों में पैसा लगाते हैं, कुछ ही समय बाद हमारा हाल ऐसा होता है कि कई सारे महंगे शेयर हमारी झोली में होते हैं फिर आप इन महंगे शेयरों में उलझ जाते हैं और आपका धैर्य जवाब देने लगता है। आप हैरान होकर जिसका जो भाव मिले, उसी भाव पर अपने शेयर बेच देते हैं और फिर कभी शेयर बाजार में न आने की कसम खाकर इससे संन्यास ले लेते हैं। लेकिन यही पर हम गलती कर जाते हैं। शेयर बाजार में कमाई करनी हो तो आपको इससे लंबी दोस्ती करनी चाहिए और इसे उतार-चढ़ाव को समझते हुए, जब लहर ऊपर की तरफ हो तो उसकी मदद से कमाई करनी चाहिए।
कई निराश निवेशक आपको यह भी कहते मिल जाएंगे कि इस बाजार का कोई भरोसा नहीं है। जुआघरों की तरह इस बाजार में भी कीमतों में घोटाला चलता है, दलालों की धोखाधडी चलती है, लेकिन आप ही सोचिए कि क्या हर बाजार में कुछ गलत लोग नहीं होते हैं ? उस आधार पर सारे बाजार को हम कलंकित तो नहीं कर सकते ! हमें अपने मतलब का क्षेत्र तय कर लेना चाहिए और अपने मामले में किसी प्रकार की गड़बड़ी से बचने के रास्ते सोच लेने चाहिए। आप पूछेंगे कि हम ऐसा कैसे कर सकते हैं ? इसका जवाब यह है कि हमें ए ओर बी वन ग्रुप के शेयरों में ही सौदा करना चाहिए जिनमें किसी भी प्रकार के घोटाले की संभावना नहीं होती है और जो कभी भी बेचे जा सकते हैं। यदि हम सस्ते शेयरों की तरफ जाते हैं तो टी टू टी वाला सौदा करते हैं तो उनके दाम बढ़ने की संभावना के साथ-साथ उनकी कीमतों में छेड़छाड़ की संभावना भी ज्यादा रहती है। इन शेयरों का पूंजी आधार बहुत कमजोर होता है और इसलिए बहुत थोड़ी नकदी से इसकी कीमत को मनचाही दिशा में मोड़ा जा सकता है। आप देखेंगे कि जब भी इस बाजार में खूब तेजी आती है तो उसके बाद कितने ही निवेशक परेशान हाल मिलते हैं क्योंकि उनके हाथ में ऐसे शेयर होते हैं कि जिनका कोई खरीददार नहीं होता, जिसकी कंपनी का कोई अता पता नहीं मिलता। वे शेयर कौड़ी के दाम के नहीं रह जाते। ऐसा इसलिए होता है कि इन शेयरों की खरीददारी करते वक्त इनकी विश्वसनीयता नहीं देखी जाती है बल्कि तिकड़मबाजों द्धारा उड़ाई बातों पर भरोसा किया जाता है।
यदि हमने अपना सौदा करते हुए ही यह भी पक्का कर लिया हो कि हमारे लाभ व नुकसान की सीमा क्या होगी तो निवेशकों की खासी सुरक्षा हो जाती है। मेरा कहना है कि हर परिवार के लिए यह जरुरी है कि वह अपनी आर्थिक योजना बनाएं। इस योजना में अपना पोर्टफोलियो बनाना भी आता है और पोर्टफोलियो बनाते वक्त हमें न सिर्फ यह सोचना चाहिए कि हमें जब नकद पैसों की जरुरत होगी तब कौन सा शेयर काम आएगा बल्कि यह भी देखना चाहिए कि कौन से शेयर हमारे लिए कमाई में मददगार होंगे। हम इस गलतफहमी में रहते हैं कि हम ही हैं कि जो घर के लिए कमाई करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि सोच समझकर किया गया निवेश भी हमारे परिवार का कमाऊ सदस्य बन जाता है और हमारा बोझ हल्का करता है। अपने आर्थिक नियोजन पर आप थोड़ा ध्यान देंगे तो आपको बहुत आसानी हो जाएगी। आप अपने पोर्टफोलियो के हर निवेश की उपयोगिता पर अलग-अलग विचार करेंगे तो आप भी हैरान रह जाएंगे कि आपका पैसा किस तरह और कितना बढ़ता है।
शेयर बाजार की स्थिति बताते हैं इंडेक्स
अब हम देखने की कोशिश करते हैं कि बाजार कब बढ़ता है। इस बात की आशंका रहती है कि बाजार टूट जाएगा, क्या यह सही? इस बात की उम्मीद बनी रहती है कि सबसे अच्छा वक्त अब आने वाला है। कुछ ऐसे भी लोग रहते हैं जिन्होने कभी निवेश नहीं किया और बाजार की तेजी को देखकर वे भी इसका हिस्सा बनना चाहते हैं। अधिकतर निवेशकों का यह सवाल रहता है कि मैं क्या करुं?
पहले हम यह देखने की कोशिश करते हैं कि इंडेक्स में बढ़त के मायने क्या होते हैं। इंडेक्स कुछ और नहीं एक सांख्यिकी फार्मुला है जिसमें चुनिंदा कंपनियों के मार्केट कैपिटलाइजेशन का वैटिड एवरेज लिया जाता है। कंपनी का चयन लिक्विडटी–प्रतिदिन कितने शेयरों का कामकाज होता है, शेयरधारकों की संख्या, कंपनी की परफॉर्मेंस-मुनाफा और डिविडेंड पेमेंट, कॉर्पोरेट गवर्नेंस, कैपिटल साइज जैसे मानकों के आधार पर किया जाता है। इस बात की कोशिश की जाती है कि सभी प्रमुख उद्योग इसमें शामिल हों। मार्केट कैपिटलाइजेशन कुछ और नहीं होता बल्कि कंपनी के कुल शेयर और वर्तमान भाव का गुणित होता है। उदाहरण के लिए एक कंपनी ने एक लाख शेयर जारी किए हैं और उसका वर्तमान भाव प्रति शेयर एक हजार रुपए है तो मार्केट कैपिटलाइजेशन 1०००००x1००० मतलब 1०००००००० (दस करोड़) होगा।
शेयर भाव का साधारण औसत या सिंपल एवरेज लेना पर्याप्त नहीं होता क्योंकि हरेक कंपनी का मार्केट कैपिटलाइजेशन अलग-अलग (कैपिटल के आकार के मुताबिक) होता है, इसलिए हरेक कंपनी को एक वेट या वजन दिया जाता है, जिस कंपनी का कैपिटल अधिक उसे ज्यादा वजन। इंडेक्स कैल्कुलेशन के लिए सभी शेयरों का वे़टिड एवरेज लिया जाता है। जाहिर है कि रिलायंस के शेयर भाव बढ़ने का इंडेक्स पर ज्यादा असर होगा बजाय सिपला जैसी छोटी कंपनी के। फ्री फ्लोट इंडेक्स एक अन्य अहम कॉन्सेप्ट है। कंपनी के सभी शेयर ट्रेडिंग के लिए उपलब्ध नहीं होते हैं क्योंकि या तो वे लॉक इन में रहते हैं या प्रमोटर्स उन्हे अपने पास रखते हैं, इसलिए कंपनी शेयर कैपिटल उतनी ही मात्रा में कम हो जाता है। इससे इंडेक्स पूरी तरह लिक्विड हो जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि इंडेक्स बिना ट्रेडिंग या लिक्विडिटी के ही ऊपर–नीचे होता रहे।
इंडेक्स की गणना हमेशा बेस यीयर या आधार वर्ष के संदर्भ में होती है। शेयर मूल्यों में बदलाव किसी खास समय के भाव के आधार पर होता है। सेंसेक्स का बेस ईयर 1978 का है जबकि निफ्टी का 1995। कंपनियों की कार्रवाई जैसे स्पिलिट, बोनस डिविडेंड के आधार पर शेयर के भाव में एडजेस्टमेंट किया जाता है। टिस्को, एसीसी, ग्रासिम जैसी कंपनिया स्थापना के बाद से लेकर अब तक सेंसेक्स का हिस्सा हैं। इस दौरान इन कंपनियों के शेयर के भाव कई गुना ब़ढ़ गए हैं।
सबसे लोकप्रिय इंडेक्स बीएसई सेंसेक्स में 30 कंपनियां हैं जबकि सबसे ज्यादा ट्रेड होने वाले एनएसई के निफ्टी 50 इंडेक्स में 50 कंपनियां हैं। इनके अलावा बीएसई 100, बीएसई 500, टेक इंडेक्स, मिडकैप जैसे और भी इंडेक्स हैं। अखबारों ने भी शेयरों का चयन करके अपने इंडेक्स बनाए हैं जिनकी निरंतर गणना होती है। शेयरों के मूल्य में बदलाव के साथ हर क्षण इंडेक्स की गणना होते रहती है। जो कंपनियां इंडेक्स में शामिल रहती हैं उनकी भी समय-समय पर समीक्षा होते रहती है, कंपनी को इंडेक्स से हटाने या जोड़ने के लिए पहले से नोटिस दिया जाता है। सेक्टरल इंडेक्स से हमें किसी क्षेत्र के शेयरों की परफॉर्मेंस का बता चलता है।
लोग पूछते हैं कि शेयर के बढ़ने पर जो वैल्थ या पूंजी बनती है या घटने पर वैल्थ में जो कमी आती है उसका क्या होता है? अगर कोई इनकैश नहीं करता है तो शेयर के भाव में होने वाले उतार-चढ़ाव के आधार पर वैल्थ का बनना या बिगड़ना सिर्फ नोशनल या सांकेतिक होता है और कोई भी एक ही बार में ही पूरे बाजार खरीद या बेंच नहीं सकता। आप की पूंजी इंडेक्स के अनुपात में तभी बढ़ेगी जबकि आपने इंडेक्स में शामिल कंपनी के शेयर उसी अनुपात में लिए हों। अगर आपके पास इंडेक्स के इतर कोई शेयर हैं तो वे इंडेक्स के अनुपात में नहीं बढ़ेंगे। सेंसेक्स में 10 फीसदी बढ़त का यह मतलब नहीं है कि हर शेयर 10 फीसदी बढ़ेगा। शेयर की बढ़त इंडेक्स में उसके वजन के द्वारा तय होगी। कुछ शेयर दूसरों की तुलना ज्यादा तेज होंगे।
इंडेक्स को देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति का संकेतक माना जाता है। हालांकि एक्सचेंजों में सभी उद्योग का प्रतिनिधित्व नहीं हैं इसलिए हम इस बात को सही नहीं कह सकते। कई अहम सेक्टर जो देश के जीडीपी में अपना योगदान देते हैं वे एक्सचेंजों में लिस्टिड नहीं हैं। इंडियन रेलवे, एयर इंडिया, इंडियन एयरलाइंस, नेशनल हाइवे एथॉरिटी जैसी ट्रांसपोर्ट सेक्टर की कंपनी का एक्सचेंजों में कामकाज नहीं होता है। एलआईसी, जीआईसी जैसी इंश्योरेंस कंपनी भी लिस्टेड नहीं हैं। मिनरल सैक्टर का प्रतिनिधित्व भी नहीं है। बैंकों में अभी भी रिजर्व बैंक और भारत की बड़ी हिस्सेदारी है। यह लिस्ट और भी लंबी है। इंडेक्स को लेकर हम ज्यादा से ज्यादा यह कह सकते हैं कि यह भारतीय निवेशकों का देश की अर्थव्यवस्था के प्रति सामूहिक रुझान को दिखाता है।
बाजार जब अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचे तो आपको अपने शेयरों की समीक्षा होना चाहिए। इस समय पर सेंटीमेंट बहुत सकारात्मक रहता है, इसलिए आपकों अपने शेयरों की अच्छी कीमत मिल सकती है। लेकिन इंडेक्स ऑल टाइम हाई पर है इसलिए शेयर बेचना उचित नहीं है, हो सकता है कि आपका शेयर अभी भी अंडरवैल्यूड हो। अगर बाजार में लगातार तेजी के बाद आपका शेयर नहीं बढ़ता है तब भी आपको कंपनी की परफॉर्मेंस की समीक्षा करना चाहिए। अगर कोई शेयर सकारात्मक माहौल में अच्छा परफॉर्म नहीं कर सकता तो सामान्य माहौल में बेहतरी की संभावना मुश्किल है।
नए निवेशक के लिए इंडेक्स स्टॉक में निवेश बेहतर रहता है क्योंकि इनकी लिक्विटी, क्वॉलिटी ऑफ मैनेजमेंट और फायनेंसियल परफॉर्मेंस को लेकर थोड़ी निश्चतता रहती है। हालांकि, इन शेयरों में एंट्री हमेशा करेक्शन फेज में करना चाहिए। इंडेक्स अगर ऑल टाइम हाई पर हो तो एंट्री नहीं करना चाहिए। बाजार में अवसर खोने जैसी कोई बात नहीं होती। इंडेक्स का जिगजेग ग्राफ दर्शाता है कि बाजार में लगातार करेक्शन होते रहते हैं।
अगर शेयरों को लेकर अनिश्चतता हो तो इंडेक्स में निवेश करना बेहतर है। आप डेरीवेटिव्स बाजार में इडेक्स फ्यूचर्स और ऑप्शन खरीद सकते हैं। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का निफ्टी फ्यूचर्स काफी लिक्विड है। अगर आपको लगता है कि बाजार बढ़ेगा तो निफ्टी फ्यूचर्स खरीदें या इसका कॉल ऑप्शन लें। अगर बाजार गिरने का अंदेशा हो तो निफ्टी फ्यूचर्स बेच दें या पुट ऑप्शन खरीदें।
अब अगर शुरु में उठाए गए सवाल- अगर बाजार अपने उच्चतम स्तर पर हो क्या करें? पर आएं तो यह खुशी मनाने का मौका होगा लेकिन खरीदी-बिक्री का कोई भी निर्णय कंपनी के वैल्यूएशन और भविष्य की उम्मीदों के आधार पर होना चाहिए।
ट्रेडिंग बस की बात नहीं, बनें निवेशक
बढ़ते बाजारों को रोज देखने वाले ट्रेडर्स बने निवेशकों को मेरा शत शत नमन ! हर जगह एक ही जलवा है। ट्रेडिंग बेकार काम है, निवेश करना चाहिए। हां, इंट्रा-डे या शार्ट टर्म मिल जाए तो बुराई क्या है, नहीं तो हम तो निवेशक हैं ही डिलीवरी उठा लेंगे। कई धोखा खाए ट्रेडर्स का कहना है कि ट्रेडिंग में नुकसान होता है, काम बंद ? कई धोखा खाए ट्रेडर्स ने अपने को निवेशकों वाली पोशाक पहना ली, कोई बोलता है सेंसेक्स 20 हजार या दस हजार ? कोई बोलता है कि रिपोर्ट है ? कोई रोज पीटना पसंद करता है तो कोई कैंसर रोगी की तरह मरना पसंद करता है। अगर आप ट्रेडर्स है तो इस कैंसर रोगी की तरह काम करने से बेहतर है कि रोज पिटें और अपना बचाव करें। एक दिन तो आएगा जब आप अपना बचाव कर पाएंगे। उसके बाद आपका हुनर शायद काम आ जाए कि अपने बचाव के साथ साथ आप वार करना भी सीख जाएं अर्थात थोड़ा बहुत या बहुत अधिक ट्रेडिंग करके कमाने लगें।
खबर आई है
अरे भाई आओ-आओ, दौड़ लगाओ और ऐसी गाड़ी में बैठ जाओ, जिसका ड्राइवर उसको पहले ही कितनी तेजी से और कहां से चलाकर ला रहा है और आपको बैठाकर कूदने के लिए खड़ा हुआ है। सही भी है। सबको आगे जाना है। मैं एक बस स्टैंड पर खड़ा हुआ हूं जो गाड़ी दौड़ेगी उसी में बैठूंगा। आखिर जल्दी पहुंचना है भाई ? अरे जनाब ? दौडि़ए भागिए, पर इतनी तेज नहीं कि आप ऐसी गाड़ी में बैठ जाएं जिसका ड्राइवर खुद भागने वाला है। इसलिए समय लगे तो चलेगा पर गाड़ी अपने मुकाम पर तो पहुंच जाएगी। कहने का तात्पर्य यह कि इन खबरों रुपी जंजाल से दूर रहते हुए, दिखावे पर न जाएं और अपनी अकल लगाएं। यहां पर यह सिखाने वाले तो बहुत हैं कि निवेश क्या है या ट्रेडिंग क्या है, परन्तु क्या यह कोई सीखाने वाला है कि इस मार्केट का गुरु मंत्र क्या है।
अगर आप ट्रेडर हैं तो क्या करें
अगर आप वाकई में ट्रेडर हैं या बनना चाहते हैं तो सबसे पहला सिद्धांत है कि अपने कलेजे का आकार थोड़ा बड़ा करें, लेकिन मुनाफे के लिए। क्या आपको गीदड़ पसंद है या गीदड़ जैसा बनना ? नुकसान होते समय गीदड़ बनना घाटे का सौदा नहीं है। अगर आप इंट्रा डे ट्रेडर हैं तो सबसे आवश्यक बात है कि बाजार का पिछले 5-7 रोज का ट्रेंड समझ में आना चाहिए। अगर बाजार में तेजी का सेंटीमेंट है तो तेजी करके इंट्रा डे काम करना चाहिए और अगर मंदी का ट्रेंड है तो मंदी करके इंट्रा डे काम करना चाहिए। और अगर कंसोलिडेशन है तो स्टॉक स्पेस्फिक स्टॉप लॉस रखकर काम करना चाहिए। ट्रेडर्स नाव की सवारी करें और रोज पल्ले पर जाएं परन्तु डूबती नैया में कोशिश करें कि सबसे पहले आपको ही कूदना है और तैरकर किनारे पर आना है। अगर तैरना नहीं आता तो नाव पर नहीं बैठे। ध्यान रहे कि फ्यूचर्स ट्रेडर्स नुकसान के सौदे को घर लेकर न जाएं तो बेहतर है। मुनाफे के सौदे में कठोर स्टॉप लॉस या ट्रेलिंग स्टॉप लॉस रखकर सौदा कैरी किया जा सकता है। एक ट्रेडर्स को ज्यादा लंबे समय की सोच रखने का कोई फायदा नहीं है। एक अच्छा ट्रेडर वह होता है जो जल्दी से जल्दी आगे बढ़ना चाहता है और चलती गाड़ी पर बैठकर गाड़ी के धीरे होने या रुकने की दशा में फौरन गाड़ी बदल देता है। दूसरी गाड़ी न मिलने पर नई गाड़ी आने की प्रतीक्षा करता है।
अगर आप ट्रेडर हैं तो यह मानने में कोई बुराई नहीं कि आप सटोरिए हैं। यहां लिया हुआ एक अच्छा निर्णय पैसा देकर जाता है और उस निर्णय से खुश होते हैं तो हमारे एक गलत निर्णय को हम क्यों स्वीकार नहीं करते हैं और क्यो अपने निवेशक वाली धारणा को लेकर फंस जाते हैं। ट्रेडर का काम यह नहीं है कि क्या बढ़ने वाला है ? सिर्फ और सिर्फ एक सिद्धांत जो चले वो अपना, जो रुके या गिरे वो पराया। एक इंट्रा डे ट्रेडर या शार्ट टर्म ट्रेडर को भाव को देखकर आकर्षित होने से अच्छा चाल देखकर आकर्षित होना चाहिए।
क्या है निवेश और क्या है निवेशक
वैसे तो सभी जानते हैं कि निवेश क्या है और क्या हैं निवेशक ? परन्तु निवेश के साथ ट्रेडर मेंटेलिटी, यह गलत है। एक निवेशक का यह सवाल कि आज बाजार कैसा लगता है, बड़ी व्यंगास्पद स्थिति है। एक निवेशक को आज क्या आने वाले दो से पांच साल के लिए भी बाजार का अनुमान लगाने का क्या फायदा। एक निवेशक के लिए तो तीन ही शब्द मायने रखना चाहिए। पहला अंडरवैल्यूड, दूसरा ओवरवैल्यूड और तीसरा ग्रोथ। उसको मार्केट से कोई मतलब नहीं होना चाहिए। सेंसेक्स मात्र सेंटीमेंट है जिसके बढ़ने या गिरने से अच्छे स्टॉक्स में क्षणिक मात्र करेक्शन आता है। एक निवेशक के लिए नुकसान करना कहीं से कहीं तक सही नहीं है, लेकिन कलेक्शन परफेक्ट होना चाहिए। हमारे यहां मीडिया ने काफी तरक्की की है, घर बैठे बैठे न्यूज अपने कानों तक पहुंच जाती है। कहीं न कहीं से निवेशक को पता चल ही जाता है कि उसके स्टॉक का क्या भाव चल रहा है। मुझे एक बात से बड़ा आश्चर्य होता है कि ट्रेडर्स बने निवेशकों ने और उनके बताए हुए पिदले अनुभव ने निवेश का यह हाल कर दिया है कि लोगों की सोच निवेश के नाम पर धोखा, सट्टा, जालसाजी जैसे शब्दों पर रह गई है।
स्टॉक मार्केट में किसी कंपनी में निवेश करना उस कंपनी की हिस्सेदारी लेना है। अब आप ही बताइए कि किसी कंपनी की हिस्सेदारी लेना उस कंपनी का मालिक बनने के बराबर नहीं है ? आप निवेश करने या उस कंपनी को खरीदने के पहले उसकी जांच नहीं करेंगे ? क्या बेटी की शादी के पहले लड़के को या उसके परिवार को नहीं देखेंगे ? तो कंपनी को खरीदने के पहले इतनी जानकारी क्यों नहीं ली जाती। किसी ने कहा खबर है तो ले लिया। इसलिए खबर, शार्ट टर्म, मुनाफा आदि शब्दों को एक निवेशक के लिए कोई मतलब नहीं है। जैसे अपनी बेटी या बहन के लिए रिश्ता ढूंढते हैं, वैसे कंपनी ढूंढिए जिसको आप खरीदना चाहते हैं और जो आपके नाती पोतो के लिए एक उदाहरण बन जाए। निवेश करने के पहले यह ध्यान दें कि किस सैक्टर में आने वाले समय में ग्रोथ हो सकती है। कौन सा सैक्टर अंडरवैल्यूड है और उस सैक्टर में कौन सी मल्टीबैगर हो सकती है।
निवेशक बने ट्रेडरों से अनुरोध
हे मेरे निवेशक बने ट्रेडर भाइयों ! आप लोगों से अनुरोध है कि अपनी गलती से किए गए नुकसान का भागीदार इस मार्केट को न बनाएं। अगर आप पैसा कमाने में सक्षम नहीं हैं या आपको लगता है कि आप इस मार्केट के लिए नहीं बने, तो कृपया बाहर हो जाएं या तो अंदर रहने का तरीका सीख लें या मार्केट से बाहर हो जाएं।
मैं यह देख रहा हूं कि यहां पर जो लोग मार्केट में आकर्षित होते हैं, आपकी दयनीय स्थिति देखकर डर जाते हैं। दूसरो की कमियां देखने से अच्छा अपनी कमियां देखें जिससे निवेश का सही अर्थ हम समझ पाएं और नए निवेश को बाजार में आने दें क्योंकि बाजार तो मात्र एक ट्रेडर्स के द्धारा बनाया गया सेंटीमेंट है, इसलिए गिरने की आशंका और बढ़ने की उम्मीद को छोड़ते हुए आज से ही वो हीरा खोजें जो आपके निवेश को आपके नाती पोतों के लिए सहस्त्र गुना कर पाए, ऐसी मेरी कामना है !
सीखें शेयर बाजार की निवेश रणनीतियों के दांव पेंच
हम रिस्क लेने के लिए कितने खुले हैं? एक साधारण सा प्रयोग इसका बहुत सटीक उत्तर दे देगा। अगर आप एक सेक्स के दो जुड़वा लोगों से एक ही प्रश्न पूछें कि अगर आप को 30 रुपए की निश्चित जीत, 500 रुपए जीतने का 20 फीसदी चांस या 100 रुपए जीतने का 50 फीसदी चांस में से एक चुनना पड़े तो आप किसको चुनेगें? तो उनके उत्तर बहुत अलग होंगे। लोगों के रिस्क लेने की क्षमता बहुत अलग-अलग होती है अगर वे भाई-बहन हुए तब भी। जोखिम लेने की क्षमता आदमी और समय के अनुसार जुदा-जुदा रहती है। अभी लोगों के पास सूचना पाने के काफी स्रोत हैं, कई सारी वेबसाइट व्यक्ति की रिस्क प्रोफाइल का आंकलन करने में मदद करती हैं, इसलिए हम अपनी राय प्राय: बदल लेते हैं।
आपकी रिस्क लेने की क्षमता यह निर्धारित करती है कि आप निवेश के लिए किस तरह की कंपनियों का चुनाव करेंगे। आपकी निवेश रणनीति बहुत हद तक जोखिम के प्रति आपके नजरिए पर निर्भर करती है। क्या आप कंजर्वेटिव, माडरेट या एग्रेसिव निवेशक है? जोखिम के प्रति आपके नजरिए के आधार पर हम शेयरों के चुनाव के संबंध में विभिन्न रणनीतियों पर विचार करेंगे।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बिल्कुल रिस्क नहीं लेना चाहते हैं, वे लगभग तयशुदा रिटर्न वाले निवेश को पसंद करते हैं। ऐसे निवेशक हमेशा ऐसी रणनीति को तलाशते हैं जहां नुकसान की आशंका कम से कम हो। वे ऐसी कंपनी को पसंद करेंगे जो ज्यादा डिविडेंड देती या जिनका पे आउट रेश्यो बहुत अधिक रहता है। इस तरह के लोग ऐसी कंपनी की तरफ जाएंगे जिनका मुनाफे का रिकॉर्ड अच्छा है जिससे निरंतर आय हो सके, जैसा कि फिक्सड इनकम बांड के मामले में रहता है। निवेश सुरक्षा की परवाह करने वाले लोग ऐसी कंपनियों को भी तरजीह देते हैं जिनकी बुक वैल्यू, शेयर के भाव से अधिक रहती है। वे लोग इन शेयरों को सस्ता मानते हैं क्योंकि वे जितनी वैल्यू मिल रही है उसके लिए कम कीमत अदा कर रहे हैं।
मध्यम स्तर का जोखिम लेने वाले लोग ऐसी कंपनियों की तरफ देखते हैं जिनका बिक्री, संपत्ति और मुनाफे की वृद्धि के मामले में ट्रेक रिकॉर्ड अच्छा है। इन कंपनियों का प्रबंध अच्छी तरह से हो और ये गवर्नेंस की बेहतर कार्य व्यवहार का अनुसरण करती हैं। इस तरह के लोग सिर्फ डिविडेंड ग्रोथ को ही नहीं देखते बल्कि हर वित्तीय मामले में होने वाली वृद्धि को ध्यान में रखते हैं। वे कंपनी से होने वाली आय की तुलना में शेयर बाजार में भाव बढ़ने से होने वाले लाभ को ज्यादा तरजीह देते हैं। इस तरह के लोग अच्छी कंपनियों को भी ट्रेक करते हैं अगर कंपनी के शेयर में अचानक गिरावट होती है तो कंपनी का शेयर खरीदना इसके लिए फायदे का सौदा हो जाता है। अगर इनके पास पहले से ही कंपनी का शेयर है तो वे निचले भाव पर और शेयर खरीदकर अपने औसत खरीद भाव को कम कर लेते हैं। इस तरह के निवेशक स्माल और मिड कैप पर भी नजर रखते हैं क्योंकि भविष्य में रिलायंस बनने वाले कंपनी की तलाश में रहते हैं।
एग्रेसिव लोग वे होते हैं जो फास्ट ट्रेक पर रहना चाहते हैं। ऐसे लोग मोमेंटम स्टॉक्स के साथ रहना चाहते हैं। ये लोग सेंटीमेंट आधारित कामकाज से पैदा होने वाली लहर पर सवार होना चाहते हैं। इस तरह के निवेशक कम भाव वाले शेयर की तलाश में रहते हैं जहां बहुत कम पैसा लगाकार बहुत ज्यादा रिटर्न मिल सके। इस तरह के लोग कंपनी के बारे में जानकारी और खबरों को जल्द से जल्द पाने की कोशिश करते हैं। इनके मामले में अफवाह भी शेयर के भाव को प्रभावित कर सकती है। इन तीनों के बीच एक ऐसा भी समूह रहता है तो जो पैसिव इनवेस्टमेंट रणनीति में विश्ववास रखता है। इस तरह के लोग मानते हैं कि इक्विटी निवेश उनके पोर्टफोलियो में होना चाहिए। वे उस कंपनी के शेयर खरीदते हैं जिसे वे अच्छा मानते हैं और उससे ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करते।
हरेक रणनीति के अपने नफे और नुकसान होते हैं। एक कंपनी किसी इन्वेस्टर को पसंद आ सकती है लेकिन जरुरी नहीं है कि दूसरे निवेशक को भी वो पसंद आए। अच्छा डिविडेंड देने वाली कंपनी एक कंसरवेटिव निवेशक को पसंद आ सकती है लेकिन उस व्यक्ति को पसंद नहीं आएगी जो मानता है कि कंपनी को शेयर होल्डरों को डिविडेंड देने की बजाय पैसे को विस्तार के लिए फिर से पैसे को निवेश करना चाहिए। इस तरह के निवेशक रिटर्न के तौर पर बाजार में शेयर के भाव में बढ़त को चाहते हैं। इसी तरह मोमेंटम स्टॉक कनसरवेटटिव निवेशकों के लिए ज्यादा रिस्की लगेंगे।
रिस्क के संबंध में आपके नजरिए को छोड़ दें तो भी शेयर के चुनाव में आपको कुछ सरल नियम ध्यान में रखना जरुरी है। अगर टीवी या वाशिंग मशीन जैसी चीजों को खरीदने के मामले में इतना कष्ट उठाते हैं तो जिन कंपनी आप निवेश करना चाहते हैं उनकी भी सावधानी पूर्वक तहकीकात जरुरी है। पहले आप उनको तेजी से बढ़ती, तगड़ा डिविडेंड देने वाली और मोमेंटम स्टॉक के रुप में श्रेणीबद्ध करें। कई वेबसाइट बिना किसी खर्चे के आपकी इस मामले में मदद कर सकती हैं। इस तरह की लिस्ट बनने के बाद आप स्टॉक चयन का साधारण नियम अपनाएं। अच्छे फंडामेंटल्स को देखें जैसे बिक्री, संपत्ति और मुनाफे में वृद्धि, कॉर्पोरेट गवर्नेंस, अच्छा प्रबंधन आदि। तीन से पांच साल का इतिहास आपको इस मामले में पर्याप्त विश्वास प्रदान करेगा।
सीमित अवधि में बाजार में काम करने वाले प्रतिभागियों की कलेक्टिव साइकोलॉजी शेयर की कीमतों को दिशा प्रदान करती है। कई बार कंपनी के अच्छे परिणाम के बावजूद उसका शेयर गिर जाता है क्योंकि लोग इसी तरह की उम्मीद कर रहे होते हैं और जब ऐसा होता है तो वे इसे डिस्काउंट कर देते हैं। कोई नई स्टोरी भी शेयर को चढ़ा या घटा देती है। जब कोई बुरी खबर की आशंका होती है तब भी शेयर के भाव बढ़ जाते हैं क्योंकि लोग मानते हैं कि अब बुरा दौर खत्म हो चुका है और कुछ अच्छा होगा। यह आश्चर्यजनक लगता है कि हरेक निवेशक का नजरिया सामूहिक तौर पर बाजार को चलाता है।
प्राय: बाजार में कामकाज करने वाले लोग इसे बहुत कन्फयुजिंग मानते हैं। मेरा मानना है कि आप अपनी अंर्तात्मा की सुने। कॉमन सेंस निवेश के लिए सबसे बेहतर एप्रोच है। ऐसा शेयर न खरीदें जिसे आपका दिमाग सही न माने। कोई भी अपना पूरा पैसा एक ही कंपनी में नहीं लगाता। अफवाह से आपके अच्छे निवेश को नुकसान हो सकता है। हम स्कूल फीस या अपने राशन के पैसे को बाजार में नहीं लगाते हैं। हमको प्रयास करना चाहिए कि निवेश हमारे लिए फायदेमंद, सुरक्षित और खुशी भरा हो।
पहचानें शेयर में निवेश से जुड़े जोखिम
प्राय: कहा जाता है कि इक्विटी इनवेस्टमेंट आर सबजेक्ट टू रिस्क या शेयरों में निवेश जोखिम भरा है। आखिर यह जोखिम क्या होता है? इसका मतलब होता है कि आपको किसी खास निवेश पर उम्मीद से कम मुनाफा हो रहा है या आप नुकसान में हैं। जब निवेश की बात आती है तो हम सिर्फ रिटर्न की बात करते हैं। हम कहते हैं कि जितना ज्यादा जोखिम होगा उतना अधिक रिटर्न या लाभ मिलेगा। ऐसे में अगर कोई म्युचुअल फंड रिटर्न के साथ रिस्क को प्रकाशित कर रहा हो तो उसका आंकलन कितना आसान हो जाता है।
उदाहरण के लिए एक फंड ने कैपिटल में पांच फीसदी की कमी के जोखिम के साथ 25 फीसदी रिटर्न दिया और दूसरे फंड ने 100 फीसदी कैपिटल नुकसान की रिस्क के साथ 50 फीसदी का रिटर्न दिया। अगर रिस्क का पता नहीं होता तो आप 50 फीसदी रिटर्न वाले फंड को 25 फीसदी का रिटर्न देने वाले से बेहतर मानते। लेकिन रिस्क के हिसाब आप 100 फीसदी की बजाय पांच फीसदी के जोखिम वाले फंड तरजीह देते।
निवेशक बहुत संक्षिप्त रुप में सलाह मांगते हैं: वे पूछते हैं कि क्या खरीदें या क्या बेंचे। लेकिन बिना जोखिम उठाए हम काफी पैसा नहीं बना सकते। जोखिम एक अवसर भी है लेकिन हमें नपी तुली रिस्क उठाना चाहिए। अगर हम नुकसान की आशंका से पैसा फाल्तू पड़ा रहने देंगे या कम रिटर्न वाली जगहों पर निवेश करेंगे तो इंफ्लेशन उसका मूल्य घटा देगी। इसलिए निवेश जरुरी है और इससे जुड़े जोखिम को समझना आवश्यक है। आदर्श स्थिति में निवेशक को सिर्फ इकॉनॉमी और कंपनी की परफॉर्मेंस से जुड़े जोखिम लेना होता है और हमारे मार्केट इस लक्ष्य को प्राप्त करने के करीब हैं।
ऐसे कई पैरामीटर हैं जिनसे रिस्क फैक्टर का आंकलन किया जाता है। इसके लिए कई स्टैटिस्टिकल टूल्स हैं जिनका उपयोग रिस्क के आंकलन के लिए किया जाता है लेकिन छोटे निवेशकों के लिए वे काफी महंगे होते और उनके पास इन टूल्स को उपयोग करने के लिए जरुरी ज्ञान व समय का अभाव होता है। इस लेख में हम रिस्क के कैल्कुलेशन में काम आने वाले पैरामीटर की सूची दे रहे हैं। रिस्क की पहचान कर हम इसे कम कर सकते हैं।
रिस्क समय से संबंधित है। निवेश के समय पहला सवाल यह होता है कि हमें पैसा कब चाहिए? सामान्य रुप से अगर आप लंबे समय के लिए निवेश कर रहे हैं तो ज्यादा रिस्क ले सकते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि लंबी अवधि में आपके पास संभावित नुकसान की भरपाई के लिए ज्यादा समय होगा। जोखिम या रिस्क को निर्धारित करने वाले प्रमुख कारक नीचे दिए गए हैं :
जोखिम को तय करने वाले बड़े कारकों में देश की अर्थव्यवस्था की परफॉर्मेंस शामिल है। एक-दो सालों को छोड़ दें तो पिछले कुछ वर्षों में देश का जीडीपी या सकल घरेलू उत्पाद आठ फीसदी से भी ज्यादा की दर से बढ़ा है जिसकी वजह से शेयर बाजार में रैली बनी। निवेश को ब्याज दर में घटबढ़ से भी जोखिम रहती है। जब भी रिजर्व बैंक बैंचमार्क ब्याज दर में बदलाव करता है इसका शेयर बाजार पर सकारात्मक या नकारात्मक असर होता है। भारत में एफएफआई की बहुलता के कारण अमरीकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दर में किए जाने से वाले बदलाव से भी घरेलू बाजार प्रभावित होता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली घटनाएं जैसे एनर्जी के मूल्य, डब्लूटीओ, आतंकवाद और युद्ध आदि से भी रिस्क पर असर पड़ता है क्योंकि ये शेयर के भाव को प्रभावित करते हैं। ट्रक ओवरलोडिंग नॉर्म, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइटस् और वैट जैसे नियम- कानूनी बदलाव भी जोखिम को बढ़ाते हैं। कंपनी अगर इस तरह की इंडस्ट्री से जुड़ी हुई है तो ये बदलाव प्रत्यक्ष से रुप से प्रभाव डालेंगे और अगर सभी इंडस्ट्रीज पर इनका असर पड़ रहा है तो असर अप्रत्यक्ष रुप से होगा। मार्केट सेंटीमेंट को अच्छा रखने के लिए फील गुड फैक्टर भी जरुरी है, अगर सभी लोग यह सोचने लगे कि इकॉनॉमी नीचे जाएगी तो मार्केट सेंटीमेंट को बेहतर रखना किसी के बस में नहीं होगा।
इंडस्ट्री स्तर के जोखिम में उस उद्योग की दशा शामिल है। क्या वह इंडस्ट्री ग्रोथ, मैच्योरिटी या पतन की अवस्था में है। आईपी टेलीफोन्स और सेल फोन जैसे उद्योग ग्रोथ की अवस्था में जबकि हैल्थ हैजार्ड की वजह से एसबैस्टॉस शीट निर्माण पतन की ओर है। इंडस्ट्री साइकल या उद्योग चक्र भी अहम है, उदाहरण के लिए मॉनसून के समय सीमेंट की मांग साल के बाकी समय की तुलना में कम होती। उद्योग के ढांचे में बदलाव और पैराडाइम शिफ्ट पर नजर रखना जरुरी है, जैसे कि लोगों की स्कूटर की तुलना में मोटर साइकल, लैंडलाइन फोन के मुकाबले मोबाइल फोन या प्रिंटिड की बजाय इलेक्ट्रॉनिक एनसाइक्लोपीडिया में ज्यादा दिलचस्पी।
कंपनी स्तर की परफॉर्मेंस रिस्क में कंपनी के मूल्य और गवर्नेंस नॉर्म, क्या कंपनी का अपनी इंडस्ट्री में प्रभुत्व है, वित्तीय पैरामीटर जैसे ईपीएस, क्या विकास के लिए उसकी दीर्घकालिक एप्रोच है या अल्पकालिक जैसे कारक शामिल हैं। मैनेजमेंट क्वॉलिटी और गवर्नेंस भी अहम हैं। कॉर्पोरेट गवर्नेंस के मामले में इंफोसिस में रिस्क बेहद कम है क्योंकि अपने क्षेत्र में वह सबसे बेहतर ढंग से मैनेज्ड कंपनी है। अगर कंपनी जेड ग्रुप में है या उसका शेयर ट्रेड टू ट्रेड सेटलमेंट में आता है तो यह स्पष्ट संकेत है कि कंपनी लिस्टिंग की जरुरतों को पूरा नहीं कर रही है या उसके शेयर में कुछ असामान्य गतिविधियां हो रही हैं और एक्सचेंज ने उसे विशेष निगरानी में रखा है।
बाजार से जुड़े नियम-कानून से जुड़े जोखिम भी खासी अहमियत रखते हैं। अगर रेग्युलेशन की क्वॉलिटी अच्छी नहीं है तो घोटालों के संबंध में होने वाली कार्यवाही भी पर्याप्त नहीं होगी। जब तक मानवीय लालच कायम है घोटाले और मार्केट मैनूपुलेशन तो होते रहेंगे, इसलिए रेग्युलेटर और कानूनी व्यवस्था किस तरह से इन चीजों के विरुद्ध कार्यवाही करती है वह बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह की गतिविधियों से समय रहते बचाव, जल्द पहचान, तेज और सख्त सजा संबंधी प्रावधान संभावित मैनूपुलेटर्स को गलत काम करने से रोकेंगे।
शेयर बाजार से जुड़े सिस्टम संबंधी रिस्क को भी समझना जरुरी है, विशेषकर टेक्नोल़ॉजी संबंधी। वर्तमान में शेयर बाजार कॉम्पलेक्स सिस्टमस पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं जो पब्लिक और प्राइवेट नेटवर्क पर चलते हैं। बाजार बंद होने से पहले ओपन पोजीशन को खत्म करना एक बड़ी रिस्क है। इस तरह की रिस्क को समझने के लिए ब्रोकर के पास मौजूद रिस्क डिस्कलोजर डाक्यूमेंट जरुर पढ़ें।
सफल निवेश के लिए आपको कंपनी की संभावना और प्रोजेक्ट अर्निंग का अध्ययन करना, पी/ई, रिस्क/ रिटर्न बैंचमार्क आदि की समीक्षा जरुरी है। ज्यादा मुनाफे के लालच और नुकसान के डर से बचें। भावुक नहीं विवेकशील बने। निर्णय जल्दबाजी में न लें। संक्षेप में कहें तो बिना रिस्क के कोई रिटर्न नहीं मिलेगा, नो पैन नो गैन। कदम छोटे लें, सलाह लें, पुस्तकें पढ़े, इंटरनेट का उपयोग करें। लेकिन किसी फिल्म में बताने या अपने किसी जानने वाले की नुकसान की कहानी सुनकर निवेश करना न छोड़ें। अपने निर्णय स्वीकार करें और गलतियों से सीखें।
क्यों होते हैं शेयर बाजार में उतार चढ़ाव
एक समझदार उपभोक्ता की तौर पर हम किसी भी चीज पर हम कीमत का टैग लगे रहने की उम्मीद करते हैं। हम होटल और रेस्टारेंट में टैरिफ व मैनू कार्ड देखना पसंद करते हैं क्योंकि वे बताते हैं कि हम किस चीज के लिए कितना भुगतान कर रहे हैं। इन चीजों की कीमतों में भी बदलाव होता है लेकिन हर सेकेंड में नहीं।
शेयर बाजार कुछ अलग है। यहां कीमतें हर समय बदलती रहती हैं, दरअसल में कीमतों में उतार-चढ़ाव ही यहां एकमात्र कॉन्सटेंट फैक्टर है। कभी आपने सोचा है कि यह सिर्फ शेयर बाजार में ही क्यों होता है बाकी बाजारों में क्यों नहीं। चलों हम इसे समझने की कोशिश करते हैं। अर्थशास्त्र की मूल्य निर्धारण या प्राइसिंग थ्यौरी पर गौर करें तो कीमत उस स्तर पर तय होती है जहां मांग, आपूर्ति से मिलान करती है। एक तरफ तो शेयर की सप्लाई तय रहती है क्योंकि कंपनी हर कभी शेयरों की संख्या घटा या बढ़ा नहीं सकती। लेकिन शेयर धारक मुनाफा के लिए ऐसे अवसरों की तलाश में रहते हैं जब वे अपनी होलि्डंग बेंच सकें। अगर ऐसे लोगों को अच्छी कीमत मिलती है तो वे कंपनी से निकलना चाहेंगे।
डिमांड साइड पर गौर करें तो अर्थव्यवस्था और इंडस्ट्री में ऐसी कई घटनाएं होती रहती हैं जो किसी खास भाव पर कंपनी के शेयर की खऱीदी करना आकर्षक बनाती हैं। इसलिए हमारे पास बहुत सारे खरीददार होते हैं जो किसी खास कंपनी के शेयरों को खरीदना चाहते हैं। शेयर बाजार में काम करने वाले 20 लाख लोगों में किसी खास कंपनी के शेयर में रुचि लेने वाले लोग कुछ हजार तो होंगे। टेक्नोलॉजी के कारण अब यह संभव हो गया है कि लगातार सेकेंड दर सेकेंड मांग- आपूर्ति का मिलान हो सके। मांग- आपूर्ति के बीच यह बैलेंस शेयरों की कीमतों में लगातार परिवर्तन करता रहता है। इस तरह से शेयर एक ऐसा इंस्ट्रूमेंट है जो संपत्ति को नुमाइंदगी करता है और जिसे लाभ के लिए खरीदा और बेचा जाता है।
अगला तार्किक सवाल यह है कि क्या कंपनी की परफॉर्मेंस के बारे में राय मिनट दर मिनट बदलती है? तो इसका जबाव है नहीं। दिए गए तथ्यों के आधार पर किसी खास निवेशक की राय एक ही रहती है लेकिन जरुरी नहीं कि दूसरा भी यही राय रखे। कई बार कंपनी या इंडस्ट्री को प्रभावित करने वाली घटनाओं क आधार पर राय में बदलाव होता है और इसके कारण कीमतों बहुत जल्दी-जल्दी बदलाव हो सकता है।
राय में बदलाव के कारण हो सकता है खरीदी निकले जिससे कीमतों में वृद्धि होगी, उसके बाद ऊपरी स्तर पर बिकवाली निकलेगी और अंतत: एक अन्य स्तर पर लेवाल और बिकवाल के बीच बैलेंस बनेगा। नकारात्मक राय के कारण बिकवाली होगी जिससे कीमतों में गिरावट आएगी, इसके बाद निवेशक खरीदी शुरु कर देंगे क्योंकि निचले स्तर पर उन्हे शेयर आकर्षक लगने लगेगा। इस खरीदी से कीमतों में कुछ हद तक सुधार आएगा और लेवाल व बिकवाल के बीच बैलेंस का एक बिंदू बनेगा।
यह बात अजीब लगे लेकिन कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव खुद खरीदी बिक्री की क्रिया को जन्म देते हैं। बाजार में जॉबर्स और स्केलपर्स जैसे कुछ प्रतिभागी होते हैं जो ट्रेडिंग कम्पयुटर पर तेजी से अंगुली चलाकर और प्राइस मूवमेंट का बहुत जल्द विश्लेषण करके प्राइस डिफरेंस से लाभ उठाने के लिए लगातार खरीदी-बिक्री करते रहते हैं।
यहां अंतर साफ है, होटल या रेस्टारेंट में ट्रांजेक्शन करने वाले बहुत कम होते और उनकी प्राथमिकताएं कुछ और रहती हैं इसलिए प्राइस नेगोशिएशन अगर होता भी है तो बेहद कम। लेकिन शेयर बाजार में दसियों लाख लोग कामकाज करते हैं और उनके के लिए बारगेनिंग जीवन का एक अंग है। बहुत ही कार्यक्षम स्क्रीन आधारित ट्रेडिंग में कीमतें कुछ भी रहें लेकिन वे सि्थर नहीं रहेंगी। इसलिए अगली बार जब आप शेयर बाजार का पल पल बदलता टैरिफ कार्ड देखें तो उसे एक अवसर के रुप में देखें और बाजार में कामकाज करने वाले लोगों की राय को जज करने की कोशिश करें। हो सकता है कि सोने का घड़ा आपका इंतजार कर रहा हो।
शेयर ब्रोकर का कैसे करें चयन
शेयर ब्रोकर आपकी जिंदगी में एक अहम आदमी होता है जो आपके निवेश उद्देश्यों प्राइज़ पाने में मदद करता है। वह उचित सलाह देने, इंटरमीडियरी से जुड़े नियम-कानून के अनुपालन और अच्छी सेवा देने में सक्षम होना चाहिए। ऐसे कई प्रकरण हैं निवेशकों ने अपना पैसे व शेयर फर्जी लोगों के हाथ में सौंपकर अपनी पूरी बचत से हाथ धो लिया।
सबसे पहले आपको ब्रोकर और सब ब्रोकर के बीच अंतर समझना जरुरी है। दोनों ही सेबी और स्टॉक एक्सचेंज में रजिस्टर्ड होते हैं लेकिन इनकी जिम्मेदारी अलग-अलग होती है। ब्रोकर निवेशकों के साथ हुए करार को पूरा करने के लिए बाध्य होता है लेकिन सब ब्रोकर मात्र ब्रोकर का एजेंट और स्थानीय सहायक होता है। अगर आपको अपना भुगतान या शेयर नहीं मिलते हैं तो इसके लिए आपको ब्रोकर को जिम्मेदार ठहराना चाहिए।
क्लेम करने के लिए आपके पास छह महीने की मियाद रहती है, अगर यह खत्म हो जाती है तो आपको सामान्य कोर्ट में जाना पड़ता है जो एक काफी समय लेने वाली प्रक्रिया है। स्टॉक एक्सचेंज आपको सिर्फ चार महीने के भीतर क्लेम दे देते हैं। इसलिए कॉन्ट्रेक्ट सिर्फ ब्रोकर का द्वारा जारी किए जाने चाहिए और पैसे का भुगतान व शेयर इसी के नाम पर और अकाउंट में होना चाहिए। अगर आप सब ब्रोकर के नाम पर भुगतान कर रहे हैं और उसे शेयर की डिलीवरी दे रहे हैं तो इसके लिए ब्रोकर को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
ब्रोकर द्वारा दी गई सलाह की क्वॉलिटी और निष्पक्षता एवं उसे देने का तरीका अगली अहम कसौटी है। निवेशक प्राय: इंवेस्टमेंट टिप्स चाहते हैं। जिनकी ट्रेडिंग की मानसिकता होती है वे दिन में कई बार टेकि्नकल कॉल्स चाहते हैं। ब्रोकर के सलाह देने के इंफ्रास्ट्रक्चर की जांच कर लें। कुछ लोग फुल फ्लेज्ड रिसर्च एनालिस्ट को रखते हैं जो कंपनियों का विश्लेषण करता है और सलाह देता है जबकि कुछ सिर्फ मार्केट इनफॉर्मेशन को पास ऑन करते हैं। आपको ऐसी सलाह की मांग करना चाहिए जो लिखित रुप में हो और उसमें रिकमंडेशन के पीछे के तर्क का उल्लेख हो। लगभग 95 फीसदी सलाह खरीदने की होती हैं, बिकवाली की रिकमंडेशन बहुत कम होती हैं। इसलिए बेचने का निर्णय आपका होता है। ब्रोकर को हमेशा यह पता नहीं होता है कि आपने उसकी सलाह पर काम किया है कि नहीं। इसलिए वह आपके पोर्टफोलिओ को ट्रेक नहीं करता है। अगर ब्रोकर पोर्टफोलिओ मैनेजर भी है तो उसकी जिम्मेदारियां अलग होंगी। पोर्टफोलिओ मैनेजर और एक वैल्यू एडिड सर्विसिस देने वाले ब्रोकर में अंतर समझना जरुरी है।
अगर स्टॉक ब्रोकर वैल्यू एडिड सर्विसिस के तौर पर सभी डिस्कलेमर के साथ आपको सलाह दे रहा है तो वह इंवेस्टमेंट अवसरों की लिस्ट होगी। यह आप पर होगा कि आप अपनी प्रोफाइल को समझकर ऐसे अवसर को चुने जो आपके निवेश उद्देश्य के लिए सही हो। यह समझ लें कि जोखिम आपका है और रिसर्च आधारित निवेश सलाह पर अमल करने के बाद नफे या नुकसान में निकलने का निर्णय भी आपका होगा। आपको यह भी निर्णय करना पड़ेगा कि विभिन्न असेट क्लास में कितना कितना धन अलोकेट करना है। इकि्वटी के लिए आवंटित राशि में से भी आपको लांग टर्म और शॉर्ट टर्म के लिए कितना कितना पैसा लगाना है यह तय करना होगा। मतलब आप निवेश के लिए कितना धन लगाना चाहते हैं और स्पेक्यूलेशन के लिए कितना।
इसकी दूसरी तरफ पोर्टफोलिओ मैनेजर एक अलग रजिस्टर्ड इकाई होती है जिसकी जिम्मेदारी काफी विस्तृत और क्षमताएं काफी ज्यादा होती हैं जिसके लिए आपको सामान्य ट्रांजेक्शन शुल्क के अलावा फीस के रुप में अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ता है। पोर्टफोलिओ मैनेजर असेट अलोकेशन करता है, आपके रिस्क प्रोफाइल के हिसाब से विभिन्न अवसरों की पड़ताल करता है, आपके फंड को डिप्लॉय करता है और टार्गेट रिटर्न पाने के लिए लगातार आपके पोर्टफोलिओ में बदलाव करता रहता है। इसकी फीस मुख्यत: परफॉर्मेंस के ऊपर निर्भर होती है। सेबी के निर्देश के मुताबिक पोर्टफोलिओ मैनेजर द्वारा प्रबंध करने वाली न्यूनतम राशि पांच लाख रुपए होना चाहिए और इसका निवेश कैश मार्केट इंस्ट्रूमेंट में होना चाहिए। इस फंड का उपयोग डेरीवेटिव्स पोर्टफोलिओ के लिए नहीं होना चाहिए, डेरीवेटिव्स का इस्तेमाल सिर्फ हैजिंग के लिए हो सकता है।
टिप्स के आधार पर निवेश काफी जोखिम भरा हो सकता है। जो लोग कीमतों को मैन्युपुलेट करना चाहते हैं वे टिप्स बाजार में फैला देते हैं और जब इसके चलते कीमतें बढ़ने लगती हैं तो निवेशक टिप्स पर भरोसा करने लगते हैं और लगातार उन पर अमल करते रहते हैं। कुछ ब्रोकर जो अपना खुद का प्रोपेरायटरी डेस्क संचालित करते हैं वे भी टिप्स देते हैं ऐसी सि्थति में ब्रोकर डिक्लेयरेशन की जांच करना जरुरी है। ऐसा ब्रोकर जब भी रिकमंडेशन देगा उसे अपने हितों को जाहिर करना पड़ेगा।
नियम व कानूनों पर अमल करना एक ब्रोकर के क्रेडेंशियल का अहम हिस्सा है। सेबी ने निवेशकों की सुऱक्षा के लिए कई रेग्युलेशन बनाए हैं। ब्रोकर निवेशकों को एक तय स्तर की सेवाएं दें यह सुनिशि्चत करने के लिए स्टॉक एक्सचेंज और सेबी द्वारा इंस्पेक्शन किए जाते हैं। एक्सचेंज और सेबी की वेबसाइट पर जाकर देखें कि संबंधित ब्रोकर के लिए कोई ए़डवर्स रिमार्क तो नहीं है या कोई एक्शन तो नहीं ली गई है या कोई केस तो पेंडिंग नहीं है।
अच्छी सलाह के अलावा ब्रोकर की प्राथमिक भूमिका एक भरोसेमंद ट्रेड एग्जयूकेशन प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराना है। स्टॉक एक्सचेंज, डिपॉजिटरी से कनेकि्टविटी, ब्रोकर के हेड ऑफिस और आपके स्थान के बीच लिंकस्, बैंडविड्थ सर्विस प्रोवाइर से लिंक्स, नेटवर्क हार्डवेयर, साफ्टवेयर आदि चीजें तेजी और आसानी से ट्रेड करने के लिए एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जटिलता औऱ बहुत से कंपोनेंट के कारण यह पूरे ट्रेडिंग प्रोसेस का एक हाई रिस्क एलीमेंट बन जाता है। इसलिए ट्रेडिंग से जुड़ी टेक्नोल़ॉजिकल रिस्क और इसके लिए ब्रोकर की तैयारी को समझना जरुरी है। नेटवर्क का कमजोर रिस्पांस या इसमें बाधा आपको काफी नुकसान पहुंचा सकता है।
सेटलमेंट और रिपोर्टिंग इश्यू ब्रोकर को जज करने का एक और क्राइटेरिया है। जिन ब्रोकर के पास बैंकों के पेमेंट गेटवे हैं वे आपका फंड जल्दी ट्रांसफर करवा पाएंगे। आजकल अधिकतर ब्रोकर अपने बैक ऑफिस से आपको 24 घंटे वेब एक्सेस देते हैं जिससे आपको ट्रेड से जुड़ी सारी जानकारी मिल जाती है। पे इन और पे आउट के ऑटोमेटिड सिस्टम से नियमित रुप से आपका सेटलमेंट समय पर हो जाता है।
कुछ लोग ब्रोकरेज की दर को देखकर ब्रोकर का चयन करते हैं। बाजार में कई कम दर की स्कीमें चल रही हैं लेकिन इन्हें स्वीकार करने से पहले इनके साथ जुडी़ वॉल्यूम की शर्तों को अच्छे से समझ लें। ट्रांजेक्शन कॉस्ट और लीवरेजिंग फेसिलिटी डे ट्रेडर और स्पेक्यूलेटर्स के लिए काफी अहमियत रखती हैं क्योंकि ये लोग लगातार खरीदी बिक्री करते रहते हैं। इन लोगों को ब्रोकर से बहुत कम सेवा की जरुरत होती है क्योंकि ये आखिर में ब्रोकर को अपने नुकसान की भरपाई के लिए पैसा देकर जाते हैं। एक औसत निवेशक के लिए ब्रोकरेज कॉस्ट उसके निवेश का एक बहुत छोटा हिस्सा होती है।
शेयर बाजार में कैसे रखें पहला कदम
कई निवेशक शेयर बाजार में हिस्सा लेना चाहते हैं लेकिन वे यह नहीं जानते कि शुरुआत कहां से की जाए। कुछ लोग बाजार के बारे में थोड़ा बहुत जानते हैं लेकिन कुछ लोग इससे पूरी तरह नासमझ हैं। कुछ लोग तो यह कहने में गर्व महसूस करते हैं कि वे शेयर बाजार में निवेश नहीं करते। मैंने पहले इस बारे में लिखा है कि क्यों भारतीय बचतकर्ता शेयरों में निवेश को नजरअंदाज नहीं कर सकते। मैं इस बात को फिर से दोहराना चाहती हूं कि ब्याज दर में कमी, सरकारी व बैंक बचत योजनाओं से होने वाली आय से कर रियायतों की समाप्ति और बढ़ती मुद्रास्फीति के कारण शेयर बाजार में भागीदारी जरुरी हो गई है। अन्य निवेश विकल्पों की तुलना में शेयरों में सबसे ज्यादा कमाई का पोटेंशियल है। इसके लिए जानकारी सबसे पहली जरुरत है।
शुरुआत करने के लिए शेयर बाजार के बारे में पढ़ना शुरु करें। अखबार के शेयर बाजार संबंधित पेज को पढ़ना चालू करें। इसमें शेयर बाजार में दिन भर क्या हुआ उसका सार रहता, जिससे आपको शेयर बाजार की गतिविधियों की अच्छी मालूमात हासिल हो जाएगी। बिजनेस न्यूज चैनल भी आपको बाजार के बारे में जानकार बना सकते हैं। अगर आप दिन में काम करते हैं तो आप मार्केट रिपोर्ट देखें जो शाम को अधिकतर चैनल प्रसारित करते हैं। शुरुआत में यह आपको बोरिंग लगेगी लेकिन एक-दो शेयर पर फोकस करके इसे मजेदार बनाया जा सकता है।
रिलायंस, इंफोसिस जैसे कोई भी शेयर जिसे आप जानते हैं चुन लें। अगर आप किसी कंपनी या बैंक में काम करते हैं या इनसे किसी तरह जुड़े हुए हैं तो उन्हें चुन लें। गृहणियां जिन कंपनियों के उत्पाद खरीदती हैं उन्हें चुन सकती हैं। छात्रों ने जिन कंपनियों पर रिसर्च प्रोजेक्ट किए हैं वे उनका चुनाव कर सकते हैं। सार यह है कि आपको आसपास ऐसी ढेरों कंपनियां मिल जाएंगी जिन पर आप विचार कर सकते हैं। एक डायरी बना लें जिसमें इन कंपनियों का नाम लिख लें। काम को और मजेदार बनाने के लिए आप शेयर के आने वाले दिन के भाव का अनुमान लगाने की कोशिश करें, यह अटकल लगाएं कि कल शेयर चढ़ेगा या गिरेगा और क्यों। रोज 15 मिनिट निकालकर कारणो के साथ लिखें कि आपका अनुमान सही हुआ या गलत।
अगर आप लगातार छह महीने तक यह करते हैं तो आपके पास शेयर बाजार में उतरने के लिए पर्याप्त ज्ञान होगा। लेकिन इस दौरान आप बाजार में पैसा न लगाएं बल्कि मॉक ट्रेडिंग करें, मान लें कि आपके पास एक लाख रुपए हैं और इसे अपनी डायरी में कैपिटल के तौर पर दर्ज कर लें। इस पैसे से आप उन दो-तीन शेयरों पर खरीदी का निर्णय लें जिन्हें आप स्टडी कर रहे थे। बंद भाव के आधार पर खरीदी या बिक्री का निर्णय करें और इसे डायरी में नोट कर लें। जब भी आपको फायदा या नुकसान मिले, इसका कारण डायरी में नोट कर लें। बिजनेस न्यूज चैनल पर प्रमुख कंपनियों के शेयर के विश्लेषण उपलब्ध रहते हैं। इसके अलावा आप खबरें भी पढ़ेंगे।
जानकारी का एक अन्य अहम जरिया बीएसई की आधिकारिक वेबसाइट बीएसईइंडिया डॉट कॉम है जिसमें आपको सभी कंपनियों के नतीजे और खबरें मिल जाएंगी। इस दौरान आपको सघन स्वाध्याय करना पड़ेगा। आपके फैंसले सही या गलत क्यों हुए इसका विश्लेषण करने की कोशिश करें। सामान्य रुप से बढ़ते बाजार में आप प्राय: बहुत सफल रहते हैं, इसका यह मतलब नहीं है कि आप बहुत अच्छे शेयर चुनने वाले हैं। आप तभी सीखेगें जब कि आप कीमतों के उतार या चढ़ाव के कारणों का विश्लेषण करेंगे। लगातार तीन महीने तक ऐसा करने के बाद आप बाजार में पैसा लगाना शुरु कर सकते हैं।
स्टॉक मार्केट में ट्रेडिंग शुरु करने के लिए आपको तीन अकाउंट खुलवाना जरुरी है, ब्रोकर के पास ट्रेडिंग अकाउंट, डिपॉजिटरी पार्टिसिपेंट के पास बेनीफिसिअल ऑनर अकाउंट और बैंक अकाउंट। ब्रोकर के पास सीधे ऑफलाइन अकाउंट खुलवाने की बजाय ऑनलाइन ट्रेडिंग अकाउंट खुलवाना ज्यादा अच्छा है। अगर आपके पास वेब ट्रेडिंग अकाउंट है तो आप एक शेयर भी खरीद सकते हैं। आपमें से अधिकतर लोगों का बैंक खाता होगा लेकिन बिना किसी बाधा के ऑनलाइन ट्रेडिंग करने के लिए ऐसा बैंक होना जरुरी है जो ऑनलाइन बैंकिंग या कोर बैंकिंग की सुविधा देता हो। इसलिए अगर आपका बैंक इस तरह की सेवा नहीं देता है तो नया खाता खुलवाना जरुरी है। अधिकतर ऑनलाइन ब्रोकर के बैंकों से ऑनलाइन ट्रांसफर के लिए टाई अप रहते हैं। जैसे ही आप ब्रोकर का चयन कर लेते हैं आपको उस बैंक की तलाश करना होगा जिसका उस ब्रोकर के साथ टाई अप है और उसके पास अकाउंट खुलवा लें। मैंने ब्रोकर चयन के बारे में पहले ही लिखा हुआ जिसे आप सही ब्रोकर के चुनाव के लिए काम में ले सकते हैं।
ब्रोकर के अकाउंट ओपनिंग फॉर्म के चार भाग होते हैं- द नो युअर क्लाइंट (केवाईसी) फॉर्म, बीएसई और एनएसई में ट्रेडिंग के अलग-अलग एग्रीमेंट, रिस्क डिस्कलोजर डाक्यूमेंट और पॉवर ऑफ एटॉर्नी। यह सुनिश्चित कर लें कि आपने पॉवर ऑफ एटॉर्नी को अच्छे से पढ़ा है और आप सिर्फ बिक्री के सौदों के तहत एक्सचेंज की जाने वाली शेयर की डिलीवरी के लिए ही ब्रोकर को अधिकृत कर रहे हैं किसी अन्य चीज के लिए नहीं। केवाईसी फ़ॉर्म आपका निजी विवरण और फाइनेंशियल वर्थ का उल्लेख होता है। इस फॉर्म के साथ आइडेंटिटी प्रूफ, रेसिडेंस प्रूफ और परमानेंट अकाउंट नंबर की कॉपी लगती है। आइडेंटिटी प्रूफ के लिए पासपोर्ट, वोटर कार्ड आदि की कॉपी दे सकते हैं। फोटो को आपके बैंकर से अटेस्ट करना जरुरी है। रेसिडेंस प्रूफ के लिए राशन कार्ड, हालिया बिजली का बिल आदि दे सकते हैं। वैरिफिकेशन के लिए आपको सभी ऑरिजनल डाक्यूमेंट प्रस्तुत करना होगा।
अगले डॉक्यूमेंटस् ब्रोकर और क्लाइंट के बीच होने वाले एग्रीमेंटस हैं। एनएसई और बीएसई के लिए अलग-अलग एग्रीमेंट करना होगा। दोनों एग्रीमेंट सेबी द्वारा तय किए फॉर्मेट के अनुसार और बिल्कुल समान होते हैं। इसके अलावा डिपॉजिटरी पार्टिसिपेंट और बेनिफिसिअल ऑनर के डिपॉजिटरी ऑपरेशन के लिए अलग से एग्रीमेंट होता है। अगर आप सब ब्रोकर के मार्फत काम कर रहे हैं तो ब्रोकर, सब ब्रोकर और क्लाइंट के बीच त्रिपक्षीय एग्रीमेंट होता है। इस एग्रीमेंट के तहत आप सिर्फ कैश मार्केट ट्रेड ही कर सकते हैं अगर आप डेरीवेटिव्स में काम करना चाहते हैं तो एक द्विपक्षीय एग्रीमेंट करना होगा। इन सभी एग्रीमेंट को स्टैंप्ड करना जरुरी है। यह आपको कन्फ्यूजिंग लग रहा होगा लेकिन यह आपके हित में है, हालांकि इसको कुछ सरल बनाने की जगह मौजूद है।
आप डिपॉजिटरी अकाउंट ऐसी एजेंसी के पास खोल सकते हैं जो सिर्फ डिपॉजिटरी सर्विस देती है या अपने ब्रोकर के पास। अगर आप ऑनलाइन ट्रेडिंग को चुनते हैं तो आपको ब्रोकर के ही पास डिपॉजिटरी अकाउंट खोलने का कहा जाए। अगर आपका डिपॉजिटरी अकाउंट आपके ब्रोकर के पास ही है तो इससे काफी आसानी हो जाती है, ब्रोकर आपकी तरफ से एक्सचेंज को शेयर की डिलीवरी करने की अतिरिक्त सेवा भी देता है।
रिस्क डिस्क्लोजर डॉक्यूमेंट पर हस्ताक्षर करने और इसे ब्रोकर को सौंपने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि आपने इसे अच्छे से पढ़ा है। इस दस्तावेज में आपके ट्रांजेक्शन में निहित विभिन्न जोखिमों का उल्लेख होता है जिसके लिए आप जिम्मेदार होते हैं। जोखिम कीमत, लिक्विडिटी आदि चीजों से संबंधित होते हैं। इसमें रिस्क मिटिगेशन कुछ उपायों का भी विवरण होता है जिनका उपयोग आप कर सकते हैं।
पूरे दस्तावेज मिलने पर ब्रोकर इनकी जांच करता है अगर सब ठीक रहता है तो वह आपको क्लाइंट कोड देता है जिसे हर ट्रांजेक्शन के समय आपको पेश करना पड़ता है। अगर ऑनलाइन अकाउंट है तो आपको आईडी और पासवर्ड मिलता है। सामान्यत: पासवर्ड को पहली बार लॉग इन करने के बाद तुरंत बदलना होता है। दुरुपयोग से बचने के लिए आप अपना लॉग इन आईडी और पासवर्ड ब्रोकिंग फर्म से जुड़े लोगों समेत किसी को न दें।
क्लाइंट कोड मिलने के बाद आप शेयर बाजार में कामकाज शुरु कर सकते हैं। हालांकि आपको यह सुनिशि्चत करना होगा कि सौदे के लिए आपने ब्रोकर तय मार्जिन दिया है। पहले 1-10 शेयर जैसे छोटी मात्रा में ऑर्डर दें, जब आपको सिस्टम समझ में आ जाए तो धीरे-धीरे सौदों का आकार बढ़ाएं। कैश सेग्मेंट मास्टरी हासिल करने के बाद आप डेरीवेटिव्स की तरफ बढ़ सकते हैं।
बैलेंसशीटः सही निवेश की असल कुंजी
अक्सर हमारा निवेश किसी खास ब्रोकिंग हाऊस के बताए हुए टिप्स के आधार पर होता है और हम प्रायः बैलेंस शीट जैसे तकनीकी पक्षों का अध्ययन नहीं करते। यह ठीक भी है कि हमारे पास इसके लिए समय नहीं होता और ब्रोकिंग हाऊस के विशेषज्ञ हमारे लिए यही काम करते हैं लेकिन जैसाकि पुरानी कहावत है कि युद्ध इतना संवेदनशील मुद्दा है कि इसे केवल सेनापति के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, वैसा ही निवेश इतना संवेदनशील मुद्दा होता है कि उसे किसी खास ब्रोकिंग हाऊस के टिप्स के भरोसे (स्वयं संतुष्ट हुए बगैर) नहीं छोड़ा जा सकता।
यहां हम किसी ब्रोकरेज हाऊस के विशेषज्ञ की विश्लेषण क्षमता पर सवाल नहीं उठा रहे अपितु केवल यह कह रहे हैं कि ब्रोकरेज हाऊस के विशेषज्ञ के टिप्स के पीछे निहित सैद्धांतिक कारकों को समझ कर निवेश की उपयुक्तता के विषय में स्वयं आशवस्त हों। इसके लिए बहुत जरूरी है कि आप बैलेंसशीट का विधिवत अध्ययन करें। बफेट जैसे दिग्गज निवेश भी बैलेंसशीट के आधार पर ही निर्णय करते हैं क्योंकि यह ऐसी जगह होती है जिसमें सरसरी निगाह फैलाने पर कंपनी के संबंध में काफी कुछ समझ आ जाता है और अगर निवेशक लंबे समय से बैलेंसशीट का अध्ययन कर रहा हो तब इसके विभिन्न पहलुओं के बारे में ठोस जानकारी रख सकता है।
बैलेंसशीट क्या हैः बैलेंसशीट कंपनी की वित्तीय स्थिति का एक तरह का प्रमाणपत्र है जो कंपनी की वित्तीय क्षमता, देनदारियां तथा अन्य वित्तीय स्थितियों के संबंध में जानकारी देता है। कंपनी की परिसंपदा अथवा एसेट्स वह होती है जिससे कंपनी अपने व्यावसायिक कार्यों का संचालन करती है बैलेंसे शीट में दिखाई गई परिसंपदा कंपनी की देनदारियों और कंपनी के इक्विटी मूल्यों के योग की समतुल्य होती है। एकाउंटिग के दृष्टिकोण से परिसंपदा को दो भागों में रखा जाता है वर्तमान परिसंपदा(करेंट एसेट्स) एवं दीर्घावधि परिसंपदा(लांग टर्म एसेट्स)।
करेंट एसेट्सः करेंट एसेट्स अर्थात वर्तमान परिसंपदा को एक साल से कम अवधि में रखा जाता है अर्थात इसे आसानी से नगदी में परिवर्तित किया जा सकता है। ऐसी परिसंपदा में नकदी और नकद समतुल्य (कैश इक्वीवेलेंट), अल्पावधि में खातों से प्राप्त होने वाली राशि और इनवेंट्री स्टॉक शामिल है। कैश करेंट एसेट्स का सबसे अहम हिस्सा होता है पर्याप्त मात्रा में होने पर इसमें कंपनी के कार्यों के परिचालन में काफी आसानी होती है। कैश इक्वीवेलेंट भी आसानी से नगदी में बदले जा सकते हैं ट्रेजरी बिल इसके उदाहरण हैं। कंपनी के बहुत से क्लाइंट भी होते हैं जिनकी अल्पावधि में कंपनी को देनदारियां होती हैं इसके अलावा कंपनी कई बार अपने उत्पाद अथवा सेवाएं उपभोक्ताओं को क्रेडिट पर देते हैं यह करेंट एसेट्स का हिस्सा होती हैं क्योंकि यह देनदारियां प्रायः अल्पावधि की होती हैं। इसके अलावा इनवेंट्री स्टॉक करेंट एसेट का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है क्योंकि अंततः इन्हें सीमित अवधि के भीतर बाजार में भेजना ही ह[1]ोता है।
यद्यपि इनवेंट्री का महत्व अलग-अलग तरह के सैक्टर के लिए अलग-अलग होता है उदाहरण के लिए अगर कोई मैन्युफैक्चरिंग फर्म है तो इसके इनवेंट्री स्टॉक में कच्चा माल, प्रोसेसिंग अवधि में शामिल माल तथा तैयार माल सभी शामिल होते हैं जबकि रीटेल फर्म तैयार माल दूसरे निर्माताओं से खरीदता है और उसे थोक विक्रेताओं को बेच देता है अतएवं इसमें कच्चा माल अथवा प्रोसेसिंग अवधि के दौरान इनवेंट्री स्टॉक से जुड़ी दिक्कतें नहीं आती।
नान करेंट एसेट्सः नान करेंट एसेट्स ऐसी परिसंपदा होती है जिसे आसानी से नकदी में परिवर्तित नहीं किया जा सकता, प्रायः इन्हें नकदी में परिवर्तित करने के लिए साल भर या इससे भी अधिक समय लग जाता है। उदाहरण के लिए भूमि, मशीनरी, कंप्यूटर्स और इमारत आदि इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं इसके अलावा कुछ ऐसी बाते हैं जो भले ही भौतिक संपदा नहीं हो लेकिन इनका महत्व कम नहीं है। उदाहरण के लिए कंपनी की गुडविल का अथवा कंपनी द्वारा हासिल किए गये खास तरह के पेटेंट का अथवा कापीराइट का महत्व। यह ऐसी बातें हैं जो कंपनी की सूरत को बना अथवा बिगाड़ सकती हैं तो एक तरह से यह कंपनी की ब्रांड वेल्यू है और इसका कंपनी के कार्यसंचालन की सफलता में अहम योगदान है। अवमूल्यन(डिप्रेसिएशन) पर नजर रखना भी महत्वपूर्ण है जो कंपनी की लागत-प्रचालन क्षमता का मूल्यांकन करने में महत्वपूर्ण है।
देनदारी पर भी रखें नजरः बैलेंसशीट का दूसरा पक्ष देनदारियां दिखाता है। यह वह वित्तीय भुगतान है जो कंपनी को दूसरी कंपनियों को करने होते हैं। एसेट्स की तरह ही देनदारियां भी दो प्रकार की होती हैं अल्पावधि की देनदारी तथा दीर्घावधि की देनदारी।
शेयरधारकों की इक्विटीः शेयरधारकों की इक्विटी वह आरंभिक राशि है जो निवेशक व्यवसाय को आरंभ करने के लिए जुटाते हैं। यदि वित्तीय वर्ष के अंत में कंपनी जुटाई गई अतिरिक्त आय को पुनः कंपनी के व्यावसायिक परिचालन में प्रयुक्त कर देती है तो इसे बैलेंसशीट के इनकम स्टेटमेंट से शेयरधारकों के इक्विटी एकाउंट में स्थानांतरित कर दिया जाता है। यह इक्विटी एकाउंट कंपनी की कुल परिसंपदा (नेटवर्थ) दर्शाता है। उदाहरण के लिए अमरीकन कंपनी वालमार्ट की बैलेंसशीट पर निगाह डालें। इसके बांयी ओर एसेट अथवा परिसंपदा दर्शाई गई है और दांयी ओर कंपनी की देनदारी और शेयरधारकों की इक्विटी।
बैलेंसशीट को देखने से स्पष्ट है कि बैलेंस शीट में बांयी ओर कुल परिसंपदा, कंपनी द्वारा दी जाने वाली कुल देनदारी तथा शेयरधारकों की इक्विटी के बराबर है। बैलेंसशीट को अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए एसेट पक्ष में सर्वाधिक तरलता वाले माध्यम (कैश) से लेकर न्यूनतम तरलता वाले माध्यम को क्रमिक रूप से दिखाया जाता है। इसी तरह देनदारी पक्ष में अल्पावधि देनदारी से लेकर दीर्घकालीन देनदारी तथा अन्य अनिवार्य देनदारियों को क्रमिक रूप से जमाया जाता है।
कैसे करें बैलेंसशीट का विश्लेषणः बैलेंसशीट का विश्लेषण करने के सबसे महत्वपूर्ण तरीकों में से एक फाइनेशिंयल रेश्यो के माध्यम से विश्लेषण है। फाइनेशिंयल रेश्यो के अंतर्गत डेट टू इक्विटी रेश्यो सबसे महत्वपूर्ण है। इससे कंपनी की वित्तीय स्थितियों के बारे में जानकारी तो मिलती ही है कंपनी की प्रचालन क्षमता के बारे में जानकारी भी मिलती है। अगर डेट टू इक्विटी रेश्यो अधिक होता है अर्थात कंपनी की देनदारी उसकी इक्विटी की तुलना में अधिक होती है तो इसका मतलब है कि कंपनी अपने बिजनैस के प्रसार के लिए बहुत आक्रामक है और इसके लिए बाजार से बड़े पैमाने पर ऋण ले रही है। इससे कंपनी की आय में बहुत अधिक वृद्धि हो सकती है लेकिन साथ ही ब्याज का भारी बोझ भी कंपनी को सहना पड़ सकता है।
अगर कंपनी के आपरेशन में ऐसा कुछ है जिससे इसके आय में जबर्दस्त वृद्धि हो सकती है तो हाई डेट टू इक्विटी रेश्यो स्वागत योग्य है लेकिन अगर अधिक ऋण लेने से डिफाल्ट का खतरा बढ़ता हो तो यह काफी जोखिम भरी स्थिति हो सकती है। डेट-इक्विटी अनुपात का विश्लेषण इस बात पर भी निर्भर करता है कि कंपनी किस तरह के बिजनैस को आपरेट कर रही है। उदाहरण के लिए अगर कंपनी आटो मैन्युफैक्चरिंग जैसे क्षेत्र में काम कर रही हो जिसमें काफी पूंजी निवेश की जरूरत होती है तो ऐसी कंपनी के लिए डेट-इक्विटी रेश्यो 2 से अधिक होना चाहिए जबकि इसके विपरीत पर्सनल कंप्यूटर के क्षेत्र में काम कर रही कंपनियों के लिए डेट-इक्विटी अनुपात .5 से कम होना चाहिए। एक्टिविटी रेश्यो मुख्यतः करेंट एकाउंट पर काम करता है और यह बताता है कि कंपनी कितनी दक्षता से अपने कार्यो का प्रचालन करती है।
क्यों जरुरी है वित्तीय नियोजन ?
अपने परिवार के प्रति आर्थिक प्रतिबध्दता की बात हो तो सबसे बड़ा रुपैया वाली कहावत काफी सटीक बैठती है। हमारी कमाई की उम्र का काफी छोटी होती है। 25 से 60 साल की उम्र के बीच हम कमाते हैं जबकि औसत आयु 75 साल है।
जिंदगी में 25 साल की उम्र तक पालक हमारी जिम्मेदारी उठाते हैं लेकिन 60 साल के बाद यानि आगे के तकरीबन 15 वर्ष हमें खुद के ऊपर आश्रित रहना पड़ता है या अगर भाग्यशाली रहे तो हमारे बच्चे हमारी देखभाल करेंगे। हमारी उम्र और हमारी आय में अंतर की वजह से हमें कुछ फायनेंशियल प्लानिंग की जरुरत पड़ती है। हम अपने कामकाजी जीवन के दौरान रिटायरमेंट के बाद के दौर के लिए पर्याप्त कमाई कर भी लें तो यह पर्याप्त नहीं होगा। हमें इसे सुरिक्षत बनाए ऱखना और बढ़ाते रहना होगा।
वैल्थ या संपत्ति में कई तरह से क्षऱण होता है। मुद्रास्फीति या इंफ्लेशन आपकी बचत को चट कर सकती है। इसकी वजह से बिना कुछ किए आपके पैसे का मूल्य कम होते जाता है। इसे पैसे की परचैजिंग पॉवर या खरीदी क्षमता में गिरावट कहते हैं। अपने घरेलू प्रोविजन को आज आप 5000 रुपए में खरीद सकते हैं लेकिन आगे चलके इसी सामान के लिए आपको 6000 रुपए चुकाना पड़ सकता है। इसलिए अगर आप इस अतिरिक्त एक हजार रुपए को नहीं कमाते हैं तो अतिरिक्त खर्च के कारण आपका कैपिटल कम हो जाएगा।
आपके कैपिटल के लिए दूसरा जोखिम गिरती ब्याज दरों से है। अभी तक बैंक और सरकार आपकी तरफ से आपके पैसे को मैनेज करती हैं। आप पैसे को पीपीएफ, एनएससी या बैंक डिपॉजिट में रख सकते हैं। ये डिपॉजिट स्कीम बैंक या सरकार द्वारा फ्लोट की जाती हैं जिसके तहत आने वाला पैसा आपकी तरफ से इंडसि्ट्रयल प्रोजेक्टस् में लगाया जाता है। ये प्रोजेक्ट अब बहुत कम दर पर पैसा विदेशों से या स्टॉक मार्केट से उठा सकते हैं क्योंकि विदेशी ऋण पर बंधन बहुत ढीले हो गए हैं। कंपनियां अब बेहतर परफॉर्म कर रही हैं इसलिए उन्हें पैसे काफी सस्ती दर पर मिल जाता है। सरकार खुद अपने लिए पैसा उगाहती है जिससे वह अपने वित्तीय घाटे को पूरा सके। लेकिन अब सरकार के लिए जरुरी हो गया है कि वह अपना वित्तीय घाटा कम करे। बड़े रुप में देखें तो बैंक और सरकार ब्याज दर में कमी करके अप्रत्यक्ष रुप से निवेशकों को यह संदेश देना चाहते हैं कि अब हम आपका पैसा मैनेज नहीं कर सकते, इसका प्रबंध आप स्वंय करें।
आपके पैसे के लिए सबसे बड़ा खतरा खर्च करने की इच्छा से है। कामकाजी सालों में पैसे का प्रवाह इतना अच्छा रहता है कि हम पर्याप्त बचत के बारे में नहीं सोचते हैं। हम फायनेंसियल प्लानिंग या मैनेजमेंट पर ध्यान देने की बजाय अपनी समृद्धि का भोग करने में व्यस्त रहते हैं, शॉपिंग के लिए जाते हैं या परिवार को फिल्म दिखाने या डिनर कराने के लिए ले जाते हैं। हम अपने परिवार को वह सभी सुख देना चाहते हैं जो हमें अपने बचपन में नहीं मिले। खर्चे के बाद जो पैसा बचता है उसे हम प्राय: फिक्स डिपॉजिट में रख देते हैं। ज्यादा से ज्यादा हम इंश्योरेंस पॉलिसी ले लेते हैं। शेयर और म्युचुअल फंडस खरीदते बेंचते हैं लेकिन कभी भी पोर्टफोलिओ बनाने का प्रयास नहीं करते।
इस तरह जब कोई सफल कंपनी एक्जीक्यूटिव, ब्यूरोक्रेट या बिजनेसमैन रिटायर होता है तो अचानक उसे लगता है कि उसे मासिक चैक आना बंद हो गए हैं और उसकी पेंशन पहले की मासिक आमदनी से काफी कम है। उसने जो शेयर लिए थे वे अब मूल्यहीन हैं, बैंक डिपॉजिट या अन्य फिक्स इनकम इन्वेस्टमेंट से इतना पैसा नहीं मिलता कि पहले जैसे जीवन जीने के लिए लगने वाले मासिक खर्च को पूरा कर सके। वह उपलब्ध निवेश विकल्पों के बारे में नहीं जानता है। रिटायरमेंट पर उसे जो पैसा मिलता है और उससे पहले की कमाई पर जो आय होती है वह धीरे-धीरे खत्म होने लगती है। सबसे बुरा तो तब होता है जबकि कोई बीमारी हो जाए, यह सबसे खराब सि्थति होती है। मैं चीजों को थोड़ा बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही हूं जिससे आप फायनेंशियल प्लानिंग के बारे में गंभीरता से सोचें।
हम जैसे बड़े होते जाते हैं हमें भविष्य के लिए योजना बनाना पड़ता है। यदि आप अपनी उम्र के तीसरे दशक में हैं तो आप शादी, घर खरीदने या दूसरे स्टेटस सिंबल जैसे कार, टीवी आदि खरीदने या बच्चों की योजना बनाएंगे। जरुरी हुआ तो स्कूल में बच्चे का एडमिशन सुनिशिचत करने की सोचेंगे। बच्चे बड़े होंगे तो एजेंडे में बड़ा घर खरीदना, विदेश में छुट्टियां मनाने जैसी बाते शामिल होंगी। इसके बाद बच्चों की उच्च शिक्षा, उन्हे व्यवसाय से लगाना, शादी करना जैसे कामों की योजना बनाएंगे। पारिवारिक जिम्मेदारी पूरी होने पर अपने लिविंग स्टैंडर्ड को बनाए रखने की चुनौती होगी। इस बीच मेडिकल इमरजैंसी की भूला नहीं जा सकता, मोतियाबिंद का ऑपरेशन, नी रिप्लेसमेंट, प्रोस्टेट या बायपस सर्जरी। यह कभी नहीं खत्म होने वाली लिस्ट है। शुक्र है कि अब कोई अपने प्रिय की याद में ताज महल बनाने की नहीं सोचता।
स्पष्ट है कि हमें अपनी उम्र के हरेक दौर में वित्तीय जरुरतों की पूर्ति के लिए तय रकम की आवश्यकता होती है। हमारे सामने चुनौती यह होती है कि अपनी आय के दायरे में जीवनयापन करें। चुनौती यह भी होती है कि हमारी बचत का पैसा बढ़ता रहे। हमारे लक्ष्य के मुताबिक हमें सोचना होगा कि हमें कहां निवेश करना है। हमें विभिन्न निवेश विकल्पों का अध्ययन करना पड़ेगा वे कितना रिटर्न देते हैं और उनमें जोखिम क्या है। जोखिम की समझ होना भी उतना ही जरुरी है जितनी रिटर्न का।
एक संतुष्ट जीवन के लिए फायनेंशियल प्लानिंग अहम जरिया है। यह आपको समय से पहले आपकी जिम्मेदारी का अहसाल कराती है। यह उपलब्ध फायनेंसियल इंस्ट्रूमेंटस् और उनके रिस्क-रिटर्न प्रोफाइल के बारे में जानकार बनाती है। इसके साथ ही आपको टैक्सेशन कानून और उनके फायदों के बारे में समझ विकसित करने में भी मदद मिलती है। इस तरह इन्वेस्टमेंट आपके परिवार का एक प्रमुख कमाऊ सदस्य बन जाता है।
निवेश के आधार
हमने पिछले पीरियडों में भांति-भांति के निवेश विकल्पों का अवलोकन किया। बाजार में मौजूद ढेरों नये-पुराने विकल्पों में से अपने लिए एकदम फिट को चुन सकने में ही तो असली समझदारी है।
चौथा पीरियड
हमने पिछले पीरियडों में भांति-भांति के निवेश विकल्पों का अवलोकन किया। बाजार में मौजूद ढेरों नये-पुराने विकल्पों में से अपने लिए एकदम फिट को चुन सकने में ही तो असली समझदारी है। अपना निवेश तरीका चुनते समय तीन आधारों को ध्यान में रखिए-
समय, यानी आप कितने समय के लिए निवेश करना चाहते हैं।
जरूरत, यानी आपको भविष्य की अपनी महत्त्वपूर्ण योजनाओं को पूरा करने के लिए कब और कितने पैसों की जरूरत पड सकती है, इसका खाका खींच कर रखिए।
जोखिम। जोखिम के कई तरीके और स्तर होते हैं। आपकी जोखिम उठाने की क्षमता कितनी है। किसी भी निवेश में अच्छे रिटर्न पाने की उम्मीद करते समय उसके न्यूनतम जोखिम को ध्यान में जरूर रखें। याद रखिए, जो कोई भी जोखिम नहीं लेता, या जोखिम के बारे में नहीं सोचता, दरअसल वह सबसे बड़ा जोखिम उठाता है। जोखिम है क्या ? इस पर आगे विस्तार से भी बात होगी, अभी एक लाइन में कहें तो हकीकत से वाकिफ रहना ही जोखिम को समझना है।
जैसा कि आलोक पुराणिक ने फरमाया है, कि अगर आप तीस फुट ऊंची दीवार से छलांग लगाते हैं, और इसके परिणामों को नहीं समझते हैं, तो यही जोखिम है। अगर आप तीस फुट ऊंची दीवार से छलांग लगाते हैं लेकिन इसके नतीजों से लापरवाह नहीं हैं, तो यह जोखिम नहीं है। कहने का मतलब यही है कि भ्रम में रहना, झूठी उम्मीदें पालना, सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करना और आशंकाओं के प्रति लापरवाही बरतना ही जोखिम है। सतर्कता, जोखिम को खत्म नहीं करती, लेकिन उसका मैनेजमेंट जरूर करा देती है। हर तरह के जोखिम से उचित प्रबंधन के जरिए ही निबटा जाता है। यह फार्मूला, जीवन की दूसरी जरूरी चीजों की तरह निवेश मामलों पर भी लागू होता है।
मजबूत विकास के लिए, निवेश के ऐसे परंपरागत तरीके महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें निश्चित रिटर्न की गारंटी होती है। लेकिन केवल इन्हीं से एक अच्छे निवेशक का पोर्टफोलियो नहीं बनता। ये पूरे पोर्टफोलियो का केवल एक हिस्सा ही होते हैं। लंबे समय में, अगर भविष्य की आर्थिक जरूरतों और सपनों को पूरा करने के लिए, अन्य संपत्तियों की तरह शेयरों में निवेश नहीं किया जाता है तो पर्याप्त पैसा नहीं बनाया जा सकता क्योंकि मुद्रास्फीति की मार और करों के बोझ से आप बच नहीं सकते, जो बहुत बार मिलने वाले रिटर्न को नकारात्मक कर देते हैं।
बैंक व डाकघरों की आर डी पांच सालों में 5 से 7.5 फीसदी तक रिटर्न देती है, वहीं म्युचुअल फंडों में सिप ने पिचले दस सालों में 35 फीसदी का औसत सालाना लाभ निवेशकों को दिलाया है। परंपरागत बीमा योजनाएं, जैसे एंडोमेंट या मनी-बैक पॉलिसी, का रिटर्न 5 से 5.5 फीसदी रहता है और एक बार ऐसी पॉलिसी ले लेने के बाद इसकी अवधि, किस्त या पैसे की निकासी की शर्तों में कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता। नई यूलिप योजनाओं में हर मामले में काफी लचीलापन रहता है और रिटर्न भी ज्यादा।
सीधे शेयरों की खरीद-फरोख्त करने वाले निवेशक मानते हैं कि ब्लू-चिप यानी बडी और मजबूत कंपनियों के शेयर लेकर लंबे समय तक सब्र के साथ बैठना बेहतर है, या वे तेज कमाई के लिए छोटी कंपनियों में पैसा लगाते हैं या सभी तरह के शेयरों में। जब बाजार ऊपर चढा हुआ होता है, तब वे खरीदी करते हैं और बाजार गिरते ही घबराकर बिकवाली पर आमादा होते हैं। कुछ लोग इंतजार ही करते रहते हैं, देखते तक नहीं कि बाजार किधर जा रहा है। इक्विटी म्युचुअल फंडों के जरिए निवेश करने वाले समझदार निवेशक बडी पूंजी की कंपनियों में रूचि रखने वाले म्युचुअल फंडों को चुनते हैं और ब्लू-चिप शेयरों से होने वाली कमाई से बेहतर मुनाफा अर्जित करते हैं।
ज्यादा जोखिम ले सकने वाले लोग मिड-कैप म्युचुअल फंड चुनते हैं, यानी ऐसे फंड, जिनके सयाने मैनेजर अच्छी-अच्छी मझौली कंपनियों में फंड का पैसा लगाते हैं। ऐसे निवेशक टॉप फंडों में सिप के जरिए पैसा लगाते हैं और विश्वास रखते हैं कि बाजार से पैसा बनाना है तो बाजार को समय की मोहलत देनी जरूरी है ताकि वह आपके पैसे से आपके लिए कमाई करके आपको दे सके। यही दीर्घ अवधि का दृष्टिकोण कहलाता है, जबकि शार्ट-टर्म (छोटी अवधि) की सोच मौके का लाभ उठाने की होती है, कि बाजार की संवेदनाओं के उतार-चढाव से पलक झपकते पैसा बना लिया जाये। इसे ट्रेडिंग मानसिकता कहते हैं और यह ट्रेडरों एवं पंटरों की ही मेहरबानी है कि तमाम लोग आज भी शेयर बाजार को जुआघर ही समझते हैं। शेयर बाजार जुआघर क्यों नहीं है, इस पर आगे किसी पीरियड में बात होगी, फिलहाल तो यही कहना है कि अगले निवेश से पहले दो बार बुद्धिमानी से सोचिए और अपनी समयानुसार धन की आवश्यकता व जोखिम क्षमता को ध्यान में रखिए।
जब भी निवेश की बात चलती है तो ज्यादातर लोग केवल एक चीज जानना चाहते हैं, और बडे जोश, बडी जिज्ञासा, बडी व्याकुलता के साथ जानना चाहते हैं। वह यह कि सर्वश्रेष्ठ रिटर्न दिलाने वाला निवेश या फंड या स्टॉक पोर्टफोलियो क्या है ? क्या वाकई कोई ऐसा परफेक्ट निवेश हो सकता है, जो सर्वश्रेष्ठ मुनाफा दिला दे ? इस पर हम बात करेंगे अगले पीरियड में, तब तक के लिए नमस्कार।
बाजारों की अस्थिरता और आर्थिक मंदी का दौर-2 |
अस्थिरता को शांतिपूर्वक देखा जाना चाहिए न कि व्याकुलता बढा़ने वाले भाव के साथ। कीमतों में एकाएक भारी गिरावट उन शेयरों या फंडों की समीक्षा करने का अवसर आपको देती है, जिनमें आपने पोजीशन ले रखी होती है। पहले तो यही देखा जाना चाहिए कि आपकी पसंदीदा कंपनियों के शेयरों में भारी गिरावट का कारण कहीं कंपनी के धूमिल होते प्रदर्शन में ही तो नहीं छिपा है? अगर ऐसा नहीं है, तो इस गिरावट के अन्य कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए।
अगर यह पूरे बाजार का गिरावट भरा रुझान है, तो शांतिपूर्वक रिकवरी की प्रतीक्षा करना एक अच्छी रणनीति कही जा सकती है। बाजार की वर्तमान गिरावट को इसका एक बढिया उदाहरण कहा जा सकता है कि इसमें ऐसी नामी-गिरामी और मजबूत कंपनियों के भी शेयर जमीन पर लोट रहे हैं, जिनकी ऐसी दुर्गतियों के बारे में कभी शायद ही सोचा गया हो। इन कंपनियों में निवेश करने वालों का दोष नहीं, न ही उनके निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है। वास्तविकता यह है कि इस गहराती आर्थिक मंदी के कारण उन घटनाओं में छिपे हैं, जिनका छोटे निवेशकों से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। यह नुकसानदायक मंदी जिस तरह धीरे-धीरे आई है, उसी तरह इसके विदा होने में भी पर्याप्त समय लगेगा, अगर इसके खिलाफ सभी देशों की सरकारों और प्रमुख वित्तीय संस्थाओं द्वारा चरणबद्ध तरीकों से किए जाने वाले प्रयास लगातार जारी रहे तो।
बाजार की अस्थिरता में दो तरह के प्रमुख सक्रिय खिलाड़ियों का योगदान रहता है, एक तो ब्रोकर हाउसों से संबंधित गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं और दूसरे वे ब्रोकर, जो निवेशकों की उधारी पर मार्जिन ट्रेडिंग में प्रतिभाग करते हैं। निवेशकों द्वारा क्षमता से अधिक कारोबार करके मार्जिन कॉल का भुगतान करने से हाथ खड़े कर देना ही मार्जिन ट्रेडिंग से संबंधित है। इनमें से ब्रोकर के जरिए मार्जिन ट्रेडिंग में हिस्सा लेने वाली गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं पर रिजर्व बैंक के नियम लागू होते हैं। रिजर्व बैंक के नियम शेयरों के विरुद्ध उधारी लेने से संबंधित हैं, जबकि सेबी के नियम सीधे मार्जिन ट्रेडिंग के विषय में हैं। इन नियमों में मार्जिन की सीमाओं, अधिकतम उधारी आदि के बारे में नियम हैं। किसी भी गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्था के लिये 10 से 15 फीसदी की रेंज में कारोबार इन नियमों से मुक्त है। आरंभिक मार्जिनों का भुगतान होने के बाद ट्रेडिंग के लिए असीमित धन की उपलब्धता हो जाती है।
एक विश्लेषक के अनुसार, निवेशकों में अस्थिरता के प्रति कुछ अधिक ही घबराहट देखने में आती है। जबकि यह अस्थिरता ही उनके लिए मुनाफों के अवसर लाती है। अगर वर्तमान अस्थिरता की बात करें, जब किसी के लिए भी यह समझना कठिन हो रहा है, कि बाजार किस ओर जा रहा है, ऐसे में यह मान लेना चाहिए कि हम ऐसी असाधारण परिस्थितियों के दौर में हैं, जो अभूतपूर्व हैं। हम इस वक्त एक ऐसे तूफान के दरम्यान हैं, जो हमारी अपनी करतूतों का प्रतिफल नहीं, बल्कि उन तत्वों की देन है, जो भारत के बाहर हैं। इसने जमीन हिला कर रख दी है और लोग अपने दिमाग के बजाय दिल की पुकार सुनते हुए और अधिक आशंकित हो रहे हैं। एसेट्स सिमट रही हैं। भारतीय बाजार में 57 अरब से अधिक रुपए विलीन हो चुके हैं। ऐसे में कोई भी एसेट्स पूरी तरह भरोसेमंद नजर नहीं आ रही, यहां तक कि बहुमूल्य धातुओं के प्रति भी रूझान अनिश्चित हो गए हैं। बाजार में तरलता बढा़ने और निवेशकों के विश्वास बहाली के लिये उठाए जाने वाले क्रांतिकारी कदमों का असर पूरी तरह देखने में नजर नहीं आ रहा है, जिससे अभी और अधिक विकराल स्थितियों के आगमन की संभावनाओं को बल मिल रहा है।
1929 की मंदी से तुलना करते हुए, वर्तमान बहुसूचना-संपन्न और तेज गति के वातावरण ने इस परिस्थिति को एक अलग आयाम दिया है। नेताओं और जिम्मेदार नौकरशाहों के दिलासे अपना असर अधिक तेजी से दिखा सकते थे, अगर लोग आज इतने अधिक सूचना-सम्पन्न और वैश्विक परिस्थितियों के प्रति अधिक सचेत नहीं होते। आज इस अभूतपूर्व परिस्थिति से निबटने और प्रलय की भविष्यवाणियों को विराम देने के लिए परम्परागत तरीकों से कुछ अधिक किये जाने की आवश्यकता है।
एक निवेशक के तौर पर, हम नीति निर्धारण में प्रत्यक्ष भूमिका तो नहीं निभा सकते, लेकिन अपने स्तर पर कुछ ऐसे प्रयास अवश्य कर सकते हैं, जो इस तूफानी दौर में और इसके गुजर जाने के बाद अधिक मजबूती से हमारे उभरने में मददगार हो सकते हैं। -हमें भविष्य को एक प्रलय की तरह देखना चाहिए या बेमिसाल अवसरों से भरी संभावना के तौर पर? -अपने पोर्टफोलियो में गिरावट का फीसदी हमें अधिक डरा सकता है, या बचे हुए धन की बेमिसाल बढ़ चुकी खरीदी शक्ति का अहसास हमारा आत्मविश्वास बढा़ सकता है? -हमें क्रेडिट बुलबुले और नकदी संकट को एक पुराने, घातक रूझान के समापन के तौर पर देखना चाहिए, या हम उस नई, अधिक स्वस्थ परम्परा को देख पा रहे हैं, जिससे युक्त नए दौर में भारत को एक महत्त्वपूर्ण भूमिका के साथ उभरना है? अगले पीरियड में हम बाजारों में वर्तमान अस्थिरता लाने वाली मंदी के विषय में कुछ और बात करेंगे। तब तक हमारे आपके मिलने तक आपको नमस्कार।
बाजारों की अस्थिरता और आर्थिक मंदी का दौर
चौत्तीसवां पीरियड
विदेशी निवेशक किसी अन्य देश में निवेश करने से पहले उस देश के विषय में दो प्रमुख बातों पर ध्यान देते हैं- एक तो निवेश अनुकूल वातावरण। और दूसरा- राजनीतिक स्थिरता। अगर किसी देश का राजनीतिक ढांचा, निजीकरण में विशेष रूचि रखने वाला नहीं है। पर्याप्त पूंजी सुधारों और बाजार सुधारों की ओर उन्मुख नहीं है, तो उस देश में विदेशी निवेश आकर्षित नहीं होगा।
साथ ही स्थिर सरकार ही ऐसी क्रांतिकारी नीतियों को लागू कर सकती है, जो देश का आर्थिक ढांचा नए सुधारों से ओत-प्रोत कर दे। पूंजी सुधार और बाजार सुधार को इस अर्थ में समझा जा सकता है, कि पूंजी का स्वतंत्र आवागमन मानने वाली नीतियों को अपनाना और बाजार में, कंपनियों में विदेशी भागीदारी बढाने के लिए आवश्यक कदम उठाना। भारत या दूसरे एशियाई देशों की आर्थिक विकास की गाड़ी पिछले कुछ समय से विदेशी पूंजी (खासतौर से पश्चिमी निवेशकों की पूंजी) के ईंधन पर चलती रही है। इन देशों की पूंजी भारी मात्रा में पूरे विश्व में स्वतंत्र विचरण करती रहती है और हर उस संभावना को भुनाने का प्रयास करती है, जहां ढेर सारा लाभ मिल सके।
1991 में भारत में आर्थिक सुधारों का दौर शुरू होने के साथ सरकार ने क्रमबद्ध रूप से अपनी प्रमुख कंपनियों/संस्थाओं में अपनी हिस्सेदारी कम करनी शुरू की और भारतीय बाजारों को अंतरराष्ट्रीय पूंजी और कंपनियों के लिए खोल दिया। भारत को पश्चिम में, एशिया के सर्वाधिक संभावनाशील देश (चीन के बाद) देखा गया। लिहाजा विदेशी निवेशक संस्थाओं की पूंजी का भारी मात्रा में भारतीय बाजार में आगमन हुआ, जिससे उत्साहित होकर भारतीय कंपनियों ने भी (कुछ ने तो अपनी हैसियत से बढ़कर) विकास करने के लिए उठा-पटक शुरू की। अमरीका में ऋण आधारित वित्तीय संकट ने पैर पसारने शुरू किए और धीरे-धीरे पूरी दुनिया को अपने लपेटे में ले लिया। वहां की प्रमुख संस्थाएं वित्तीय संकट का शिकार हुईं और विदेशियों की जो पूंजी एशियाई बाजारों में लगी थी, वह उन्होंने जबरदस्त बिकवाली के जरिए अपनी पूंजी वापस खींचना शुरु किया जिससे हमारे बाजार भी औंधे मुंह आ गिरे।
जब तक बाजार बेहतर चल रहा था, तब तक उसकी बेहतरी का श्रेय लेने के लिए हर कोई आगे आ रहा था। अब सभी अमरीका के सब-प्राइम संकट और इसके बाद उठे वित्तीय बवंडर को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। लेकिन यह पहले भी सच था और आज भी सच है कि हमारी अर्थव्यवस्था, पश्चिमी देशों से तो अलग किस्म की है ही, अधिकांश एशियाई देशों से भी अलग प्रकृति की है। थाईलैंड, मलेशिया व इनके अन्य कुछ साथी देश, जो एक समय एशियन टाइगर्स के रूप में जाने जाते थे, काफी पहले ही एक ही वित्तीय तूफान में ढेर हो गए थे। यह अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से विदेशी पूंजी के हवाले कर देने का परिणाम था। चीन की लौह-अर्थव्यवस्था से भारत की तुलना बेमानी है, क्योंकि हमारी 'जनकल्याणकारी' सरकार अति कठोर नीतियां लागू नहीं कर सकती। हमारी अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार देश के अंदर है। विश्व व्यापार में चीन और दूसरे 'उभरते' देशों की अपेक्षा भारत का हिस्सा बहुत कम दो फीसदी है। हमारी अधिकांश कंपनियों ने विदेशी पूंजी के जोरदार प्रवाह का दौर शुरू होने से काफी पहले से धीरे-धीरे मजबूती के साथ विकास किया है और निश्चित ही ये इस वर्तमान अस्थिरता के दौर से साफ बचकर निकल जाएंगी।
भारत में न तो कोई सब-प्राइम संकट है, न ही बैंकिंग संकट है, और बुरे कर्जों के अनुपात अब भी निहायत कमतर हैं। भारत में औद्योगिक क्षमता का देश की अर्थव्यवस्था के मूल तत्वों से बेहतर तालमेल अब भी बना हुआ है। 2006-07 के दौरान जिस तरह अनेक देशों की बैंकिंग प्रणाली ने 'साहसिक' तरीके से प्रदर्शन किया, उसके बनिस्बत भारतीय बैंकों ने काफी हद तक अपने परंपरावादी रवैये को बरकरार रखा। यही वजह है कि आज भारतीय सार्वजनिक बैंक और इनके शेयर, निजी बैंकों की तुलना में मजबूत देखे जा रहे हैं। लिहाजा यहां आंच तो महसूस की जा सकती है, लेकिन जलकर खाक होने की स्थिति नहीं बनी है।
यह साल विश्व के सभी इक्विटी बाजारों के लिए बहुत ही खराब रहा है। बहुत ही कम बाजारों ने सकारात्मक रूझान दिए हैं। चीनी बाजार 60 फीसदी से अधिक, रूसी बाजार 40 फीसदी से अधिक और जर्मन बाजार 80 फीसदी से अधिक गिर चुके हैं। मई और जून 2008 में आकर्षक दिख रहे कमोडिटी रिलेटेड बाजार (जैसे कि ब्रिटेन और रूस) भी एकाएक विपरीत गति को प्राप्त हो गए। इस साल के शुरूआती सात महीनों में ऊपर को जाने वाला कमोडिटी बाजार एकाएक ही गिर गया।
यह एक टर्निंग प्वाइंट है, जहां से पुरानी और आगामी नई आर्थिक नीतियों में विश्व स्तर पर एक स्पष्ट विभाजन देखा जा सकेगा, और यह तो होना ही था। यह जितनी देर में होता, उतना ही अधिक नुकसानदायक होता। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संकटकाल गुजर जाने के बाद पूंजी और अर्थव्यवस्था के कर्णधार अधिक जमीनी, अधिक यथार्थवादी रणनीतियों पर अमल करेंगे, ताकि होने वाला विकास आभासी नहीं हो, बल्कि उसका आधार लंबी अवधि में प्रदर्शन करने के लिए पर्याप्त मजबूत हो। आखिर तेज चलना बेहतर है, लेकिन इतनी तेज दौड़ने से क्या लाभ, जिससे औंधे मुंह गिर पड़ें? अगले पीरियड में हम बाजारों की अस्थिरता और इसके भारतीय पहलू के विषय में और बात करेंगे। तब तक हमारे आपके मिलने तक आपको नमस्कार।
शेयरों से जुड़े़ खास जोखिम
शेयर निवेश जोखिम भरा है। लेकिन इसके वास्तविक जोखिम क्या हैं? क्या इसका अर्थ उम्मीद से कम कमाई है या यह अपनी जमा-पूंजी गंवाने से संबंधित है? जब निवेश की बात आती है तो लोग प्राय: प्रतिफल की बात ही करते हैं। ज्यादा जोखिम ज्यादा प्रतिफल। कम जोखिम तो रिटर्न भी कम। अगर किसी फंड में 25 फीसदी का रिटर्न पूंजी पर 5 फीसदी के जोखिम के साथ है, और दूसरे में 50 फीसदी का रिटर्न पूंजी पर 100 फीसदी के जोखिम के साथ है, तो जोखिम तत्व को संज्ञान में न लेने पर आप दूसरे फंड को वरीयता देंगे और जोखिम मापने की स्थिति में 25 फीसदी रिटर्न वाले फंड को प्राथमिकता देंगे।
जोखिम हमेशा एक मौका है। जोखिम की अनुपस्थिति में रिटर्न नहीं होता। दुनिया में कोई भी, किसी भी प्रकार का रिटर्न बिना जोखिम का नहीं होता। शेयर-बाजारों में ही नहीं, दुनिया के सभी कार्य-व्यापारों के साथ अपने जोखिम जुड़े हुए हैं, पूंजी के साथ जान के जोखिम तक।
एक आदर्श परिस्थिति में निवेशकों को केवल अर्थव्यवस्था और कंपनियों के प्रदर्शन संबंधी जोखिमों का संज्ञान लेना चाहिए। इन जोखिमों के खिलाफ अर्थव्यवस्थाएं और कंपनियां अपनी ओर से सारे प्रयास करती हैं। सांख्यकीय और विश्लेषणात्मक विभिन्न प्रकार के टूल, जोखिम का मापने के लिए उपलब्ध हैं और नए-नए लगातार विकसित भी किए जा रहे हैं, लेकिन समस्या यह है कि आम तौर पर छोटे निवेशक के पास इन साधनों की उपलब्धता या प्रायौगिक समझ या इतना समय नहीं हुआ करते। लेकिन कुछ जोखिम ऐसे हैं, अच्छे रिटर्न सुनिश्चित करने के लिए जिनकी पहचान की जानी चाहिए (और यह आसान भी है) जोखिम को ठीक-ठीक पहचान कर ही आप उसके खिलाफ हेजिंग कर सकते हैं।
सबसे प्रमुख है समय अवधि। निवेश से पहले यह निर्धारण अत्यावश्यक है कि निवेशित रकम की आवश्यकता आपको कब पड़ेगी। समय लक्ष्य निर्धारित न करने का अर्थ है बड़े जोखिम को दावत देना। यह इसलिण् जरूरी है ताकि निवेश दौरान होने वाले किसी घाटे को कवर-अप करने के लिए आप अपनी पूंजी को पर्याप्त समय दे सकें। 2007 के अंतिम दौर में या 2008 के शुरूआती दौर में एक साल या इसके आसपास अवधि का लक्ष्य रखकर निवेश करने वालों के घाटे का पारावार नहीं है। इतनी छोटी अवधि के लक्ष्य का हश्र आप खुद समझ सकते हैं। बाजार किन्हीं भी कारणों से गिरा हो. घबरा कर बेचने का अर्थ है अपने लिए निराशा का चुनाव।
देश के आर्थिक प्रदर्शन से बाजार को भी दिशा मिलती है। सकल घरेलू उत्पाद के पिछले शानदार रहे आंकड़ों के दौर ने बाजार में भी रैली की। अब बेहतरीन विकास दर बनाए रखने का दावा संदिग्ध लग रहा है, क्योंकि विश्वव्यापी आर्थिक मंदी की वजह से पिछले दिनों जब विदेशी संस्थागत निवेशक भारतीय बाजारों की धुआंधार बिकवाली के जरिए कमर तोड़ रहे थे (ये वही हैं जिनकी भारी-भरकम खरीद ने सेंसेक्स को 21000 के पार पहुंचाया था) तब भी दिल बहलाने के लिए यही बयान आ रहे थे, कि भारत को मंदी से कोई खतरा नहीं है। हर बार जब रिजर्व बैंक मुद्रा दरों में बदलाव करता है, तो उसका सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव बाजार पर पड़ता है। अमरीका या यूरोप के बाजारों में मंदी, फेडरल बैंक द्वारा दरों में परिवर्तन, लाइबोर की दरें एवं अन्य प्रमुख वैश्विक आर्थिक घटनाक्रम, जैसे युद्ध, क्रूड और इस्पात आदि की कीमतें आज के ग्लोबल दौर में सीधे तौर पर आपको प्रभावित करते हैं, आपके निवेश के जरिए। नियामकों में परिवर्तन, जैसे कराधान नीतियां, श्रम कानून, आयात-निर्यात नीतियां, राजनीतिकों की मंशाएं, आदि सारी चीजें जोखिम के तत्व ही हैं। अगर ये कारोबारी माहौल के अनुरूप होते हैं तो बाजार के साथ आपका निवेश भी फलता-फूलता है।
इंडस्ट्री स्तर के जोखिम अलग तरह के हैं, जैसे मानव स्वास्थ्य या पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुंचाने वाले उद्योग-धंधों में निवेश में जोखिम बढ रहा है, क्योंकि पर्यावरण के प्रति विश्वस्तर पर जागरूकता बढ़ रही है। मानसून की अवधि में सीमेंट कंपनियों का कारोबार ठंडा रहता है। ढांचागत परिवर्तन या ग्राहकों की अभिरूचि परिवर्तन भी कुछ चीजों की मांग में कमी और कुछ में बढो़तरी लाते हैं। कंपनी स्तर पर कंपनी प्रबंधन की दूरदृष्टि, समय की मांग के मुताबिक अपने को ढालना, कंपनी की विकास योजनाएं और उनका असर आदि चीजें आपके निवेश को प्रभावित करती हैं। ब्लूचिप कंपनियों और ए समूह की प्रमुख कंपनियों में लोग ज्यादा भरोसा करते हैं, क्योंकि ये अपनी अधिक क्षमताओं की वजह से विपरीत परिस्थितियों से भी अधिक दक्षता से निपट लेती हैं।
नियामक संस्थाओं की ढीली पकड़ आपके लिए हानिकारक विभिन्न घोटालों को जन्म दे सकती है। ब्रोकरों/कंपनियों द्वारा जारी किए जाने वाले जोखिम तत्वों के विश्लेषण को सावधानीपूर्वक पढ़ना चाहिए, इससे उनके बारे में अपना तार्किक नजरिया विकसित करने में मदद मिलती है। अधिक लालच या सब कुछ गंवाने का भय आपके निवेश के साथ आपके स्वास्थ्य के लिण् भी हानिप्रद हो सकता है इसलिये किसी 'फ्लो' में बहकर निवेश निर्णय लेने की अपेक्षा अनुशासित रणनीति को वरीयता दी जानी चाहिए। आपके अपने निर्णयों और गलतियों से ज्यादा आपको और कोई नहीं सिखा सकता है। अगले पीरियड में जानिये बाजारों की अस्थिरता के विषय में। तब तक हमारे आपके मिलने तक आपको नमस्कार।
कैसे होता है शेयर बाजार में सौदों का निपटान?
बत्तीसवां पीरियड
वर्ष 1990 से पहले शेयर सौदों को ब्रोकरों द्वारा सीधे एक्सचेंज पर ही निपटाया जाता था। इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि एक सौदा जिस तरह तय किया गया है, उसका यथास्वरूप निपटान भी हुआ है या नहीं? द्वितीयक (सैकेंडरी) बाजार के कारोबार के सुचारू संचालन के लिए बाद में क्लीयरिंग कार्पोरेशन की व्यवस्था की गई। दोनों पक्षों को विधिवत सौदे की डिलीवरी का जिम्मा क्लीयरिंग कार्पोरेशन का होता है अर्थात यह पूरे सौदे में काउंटर-पार्टी की तरह कार्य करता है। यानी कि ब्रोकर अमुक का किसी कंपनी के 100 शेयर खरीदने का सौदा ब्रोकर फलां से होता है, तो इसका अर्थ है कि ब्रोकर अमुक, क्लीयरिंग कार्पोरेशन से 100 शेयर खरीदेगा, जबकि ब्रोकर फलां क्लीयरिंग कार्पोरेशन को 100 शेयर बेचेगा। किसी ब्रोकर के डिफॉल्टर होने से पृथक क्लीयरिंग कार्पोरेशन ही पूरे सौदे के लिए जिम्मेदार होगा।
वर्तमान में सौदे टी+2 (सौदा तिथि से दूसरा कार्य दिवस) के आधार पर निबटते हैं। अगर सौदा सोमवार को हुआ, तो निपटान बुधवार को होगा। नकदी बाजार में, आपूर्तियां ब्रोकर द्वारा एक्सचेंज स्तर पर और ग्राहक के लिए ब्रोकर स्तर पर होती हैं, जिनका निपटान क्लीयरिंग कार्पोरेशन के स्तर पर होता है। माना ब्रोकर अमुक के तीन ग्राहक-अ,ब एवं स हैं। ग्राहक अ टाटा के 100 शेयर खरीदता है,, ब टाटा के 50 शेयर बेचता है और ग्राहक स टाटा के 75 शेयर खरीदता है और 50 बेचता है। ब्रोकर के लेखे में यह अ+100, ब-50, स+25 के तौर पर दर्ज होगा और ब्रोकर अमुक की कुल ग्राहक स्थिति +75 टाटा शेयर की होगी। अब ब्रोकर क्लीयरिंग कार्पोरेशन से 75 टाटा शेयर हासिल करेगा, वह 50 टाटा शेयर ग्राहक ब से भी हासिल करेगा। तब वह ग्राहक अ को 100 और ग्राहक स को 25 शेयर देगा। इस सौदे में सौदा पूर्ण न होने की दो परिस्थितियां बन सकती हैं, एक तो क्लीयरिंग कार्पोरेशन को एक या कई ब्रोकरों से ऐन मौके पर वांछित 75 टाटा शेयर न मिल सकें। ऐसी हालत में सौदा अगले कार्य दिवस (टी+3) में बाकी शेयरों को बोली (ऑक्शन) प्रक्रिया के जरिए प्राप्त करके ब्रोकर अमुक को देगा जबकि डिफॉल्ट ब्रोकर पेनाल्टी और बोली प्रक्रिया के दौरान हुई हानि (यदि कोई होती है, तो) का भागी होगा। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि ग्राहक ब अपने 50 शेयर बेचने से मना कर दे। ऐसी स्थिति में ब्रोकर अमुक बाजार से यथोचित तरीके से 50 टाटा शेयर खरीदकर ग्राहक अ/स को देगा और इस दौरान हुई हानि (यदि कोई होती है, तो) का भागी ग्राहक ब होगा।
ट्रेड फॉर ट्रेड समूह श्रेणी में अंतरण (ट्रांसफर) ट्रेड लेवल पर ही सम्पन्न होते हैं। ग्राहक स्तर पर खरीदी-बिक्री अनुमन्य नहीं है। अगर कोई ग्राहक 100 शेयर खरीदता और 50 बेचता है तो वह टी+2 प्रक्रिया के तहत 50 शेयरों की डिलीवरी देगा और अपने बिहाफ पर क्लीयरिंग कार्पोरेशन से 100 शेयरों की डिलीवरी अलग से प्राप्त करेगा।
अब भुगतान की बात करें। माना ग्राहक अ ने 1000 रूपए के टाटा शेयर खरीदे और 500 के रिलायंस शेयर बेचे। ग्राहक ब ने एसीसी के 800, बजाज के 900 रूपए के शेयर खरीदे और होंडा के 2000 रूपए के शेयर बेचे। ग्राहक स ने कैडिला के 900 रूपए के शेयर बेचे। इस तरह ग्राहक अ को 500 का भुगतान करना है, ब को 300 का भुगतान लेना है और स को 900 का भुगतान लेना है। इस तरह ब्रोकर लेवल पर ब्रोकर को क्लीयरिंग कार्पोरेशन से केवल 700 रूपए का भुगतान लेना होगा। इसके अलावा ब्रोकर अमुक, ग्राहक अ से 500 का भुगतान भी लेगा और ब और स को क्रमश: 300 व 900 रूपए का भुगतान कर देगा।
डेरिवेटिव बाजार में शेयरों की आपूर्ति या प्राप्ति नहीं होती, केवल वायदे के आधार पर एक्सपायरी तिथि के पूर्व भुगतान का लेनदेन होता है। फ्यूचर और ऑप्शन के सौदों में प्रक्रिया भिन्न है। आरंभिक मार्जिन के भुगतान के द्वारा शेयरों की खरीदी-बिक्री की जाती है।
भारत के शेयर बाजारों का सौदा निबटान के मामले में काफी स्वच्छ इतिहास रहा है। 50000 करोड़ से भी अधिक दैनिक सौदों का निपटान एक दशक से भी अधिक समय से विधिवत होता चला आ रहा है और कोई डिफॉल्टर नहीं हुआ। शेयर बाजार से भुगतान में कभी भी एक घंटे से अधिक समय नहीं लगता। शेयर और भुगतान के लिए पर्याप्त पैसा हर वक्त उपलब्ध रहता है। सौदों की प्रक्रिया के बारे में व्यावहारिक जानकारी, समझदार निवेशक अपने ब्रोकर से सौदों के दौरान लेने का प्रयास करते हैं और यह जानकारी बढने के साथ इस बाजार में लेनदेन की ईमानदारी के प्रति निवेशक के विश्वास में भी वृद्धि होती है। अगले पीरियड में जानिए शेयरों में निवेश से जुड़े प्रमुख जोखिमों के बारे में। तब तक हमारे आपके मिलने तक आपको नमस्कार।
क्या है कमोडिटी कारोबार
इक्कतीसवां पीरियड
कमोडिटी का वायदा (फ्यूचर) बाजार भारत में तेज गति से बढ़ रहा है। कमोडिटी को एक ऐसे अभिन्नीकृत उत्पाद के तौर पर समझा जा सकता है, जिसका कारोबार संगठित बाजार में (एक्सचेंज प्लेटफार्म) या मंडी में मुद्रा के बदले में या अन्य कमोडिटी के बदले में किया जा सकता है। कमोडिटी, समान गुणवत्ता की (एक स्तर पर) मूल्यवान वे चीजें हैं, जिनका उत्पादन विभिन्न उत्पादकों द्वारा किया जाता है। इनको उपयोगकर्ता अपने परिप्रेक्ष्य में वर्गीकृत कर सकता है, जैसे कि कपास, जूट (रेशेदार फसलें) रबर, काफी, चाय (बागानी फसलें) आम, चीनी, संतरा (नर्म उत्पाद) मसाले, तिलहन, दलहन, गेहूं, चावल (अन्य कृषि उत्पाद) क्रूड ऑयल, आधारभूत धातुएं जैसे लोहा आदि, सीमेंट, लौह अयस्क, इस्पात, कार्बन क्रेडिट, प्राकृतिक गैस (औद्योगिक उत्पाद) प्लेटिनम, चांदी, स्वर्ण (बहुमूल्य धातुएं) आदि-आदि।
भारत में कृषि उत्पादन विपणन समितियों के माध्यम से कमोडिटी का कारोबार मुख्य रूप से होता है। आधुनिक कमोडिटी बाजार की जड़ें कृषि उत्पादों की परंपरागत विपणन व्यवस्थाओं (मंडी और हाट) में निहित हैं, जबकि अंग्रेजों के समय से ही मानक सौदों के आधार पर यह कारोबार शुरू हुआ। बाम्बे कॉटन एसोशिएशन द्वारा 1875 में बाम्बे कॉटन एक्सचेंज की स्थापना की गई थी। 1900 से तिलहन में वायदा कारोबार की शुरूआत करने वाली गुजराती व्यापारी मंडली ने मूंगफली, कपास और कैस्टर सीड में भी वायदा की शुरूआत की। गेहूं में वायदा हापुड़ मंडी में 1913 से शुरू हुआ। इसके कुछ सालों बाद कोलकाता (तब कलकत्ता) में कच्चे जूट और जूट सामानों का वायदा कारोबार जारी किया गया।
1920 के दशक में ही मुंबई बुलियन कारोबार का केंद्र बन गया था। उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय द्वारा अग्रेषित कारोबार संबंधी नियम और आयोग का गठन 1950 के बाद किया गया। 1960 के दशक में तिलहन उत्पादन में तीव्र गिरावट के बाद मुख्य तिलहन उत्पादों की कीमतें बेतहाशा बढीं। कृत्रिम तरीके से महंगाई बढाने के लिए वायदा कारोबार को जिम्मेदार मानते हुए सरकार ने अधिकांश कमोडिटीज के वायदा पर रोक लगा दी।
2002-03 में फिर से कमोडिटी वायदा के दिन बहुरे। सरकार ने देशव्यापी बहु-कमोडिटी एक्सचेंजों के गठन के साथ फारवर्ड कांट्रैक्ट रेगुलेशन एक्ट-1952 के तहत ज्यादातर जिंसों के वायदा कारोबार का रास्ता साफ कर दिया। आज 21 क्षेत्रीय केंद्रांके साथ तीन बड़े एक्सचेंज एमसीएक्स, एनसीडीईएक्स और एनएमसीई कार्यरत हैं। आपूर्ति और मांग के कारक यहां भी कीमतों को नियंत्रित करते हैं। कमोडिटी का वायदा, शेयर और बांडों की तुलना में कम अस्थिर माना जाता है। शेयर बाजारों की गिरावट का इनसे संबंध नहीं होता और यहां जोखिमों का प्रबंधन अधिक बेहतर तरीके से होता है। फारवर्ड कांट्रैक्ट एक गैर स्टैंडर्डाइज्ड समझौता होता है, जो दो पक्षों के मध्य भविष्य की किसी तिथि पर किसी कमोडिटी की खरीद/बिक्री से संबंधित होता है जबकि फ्यूचर कांट्रैक्ट गुणवत्ता मूल्यों और अन्य चीजों के सम्बन्ध में स्टैंडर्डाइज्ड सौदे की तरह होता है।
अहस्तांतरणीय विशिष्ट आपूर्ति समझौता (एनटीएसडी) के समझौतों में शर्तों को दोनों पक्षों के आधार पर तय किया जाता है और डिलीवरी के साथ यह संपन्न होता है, जिससे संबंधित रेलवे या गोदाम रसीदों का हस्तांतरण नहीं किया जा सकता। इसके उलट टीएसएसडी में रसीदें हस्तांतरणीय होती हैं और आपूर्ति प्रथम विक्रेता से अन्तिम खरीदार को करते हुए सौदा पूरा होता है।
चूंकि मांग और आपूर्ति के कारक यहां कीमतों के लिए नियामक का कार्य करते हैं, इसलिए वायदा कारोबार के जरिए जिंस उत्पादक अपने भावी घाटे (कीमतों में भावी कमी की आशंका के मद्देनजर) के विरुद्द हेजिंग कर सकता है। फ्यूचर ट्रेडिंग पूरी तरह से हेजिंग का साधन ही है। इस तरह, कीमतों में नाटकीय वृद्धि और कमी के लिए जिम्मेदार माने जाने वाले कमोडिटी एक्सचेंज, भारतीय अर्थव्यवस्था में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और उत्पादकों को उनके उत्पादन का समुचित मूल्य दिलाते हैं। सरकार बैंकों, म्युचुअल फंडों और दूसरी वित्तीय संस्थाओं को भी कमोडिटी कारोबार में हिस्सा लेने की अनुमति दे सकती है। यहां एक बात कहना आवश्यक है कि कमोडिटी बाजार सिर्फ बड़े टर्नओवर वाले कारोबारियों और पूंजी के खिलाड़ियों को फायदा पहुंचाते हैं, सामान्य छोटे उत्पादक अपनी सीमाओं के चलते इस बाजार के प्रत्यक्ष लाभों से वंचित ही रह जाते हैं। अगले पीरियड में जानिये शेयर बाजारों में सौदों के निबटान के बारे। तब तक हमारे आपके मिलने तक आपको नमस्कार।
यह है एक्सचेंज ट्रेडेड फंड
तीसवां पीरियड
पहला ईटीएफ अमरीका में 1993 में आरम्भ हुआ था। यह निवेशकों और कारोबारियों के मध्य अपनी विशेषताओं की वजह से शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया। जैसे प्राथमिक बाजार में कंपनियां आईपीओ लाती हैं या म्युचुअल फंड अपना एनएफओ लाते हैं, उसी तरह ईटीएफ शुरू किए जाते हैं। ये शेयरों और फंडों के संकर उत्पाद हैं। ईटीएफ में कोई सक्रिय प्रबंधन न होने के कारण इनमें कारोबार में कोई अतिरिक्त लागत (म्युचुअल फंडों के एंट्रीलोड या एक्जिट लोड की तरह) नहीं आती।
सेबी, म्युचुअल फंडों की तरह इनका भी नियमन करती है। भारत में इन्डेक्स आधारित शुरूआती ईटीएफ निवेशकों को लुभाने में नाकाम रहे। इसके बजाय सोने की खरीद-फरोख्त करने वाले ईटीएफ लोकप्रिय हुए हैं। इनके जरिए सोने को शेयरों की तरह खरीदा-बेचा जा सकता है। आपका खरीदा सोना, ईटीएफ के प्रबधंक के नियंत्रण में रहता है जिसे आप कभी भी भाव चढने पर बेच सकते हैं, कोई सुरक्षा या अशुद्धता संबंधी जोखिम नहीं, कोई शुल्क आदि की कटौती नहीं।
ईटीएफ को एक ऐसी प्रतिभूति के तौर पर समझा जा सकता है कि जो किसी सूचकांक, कमोडिटी या परिसंपत्तियों (जैसे इंडेक्स फंड) आदि पर आधारित होती है और जिसे ठीक शेयरों की तरह की खरीदा-बेचा जा सकता है। ईटीएफ के शेयर भी फंड मैनेजरों द्वारा जारी किए जाते हैं और एक्सचेंज पर सूचीबद्ध कराए जाते हैं।
ईटीएफ के अपने फायदे हैं। सबसे बड़ा तो यही कि इनका शेयरों की तरह कारोबार और फंडों की तरह विविधीकरण किया जा सकता है। साधारण म्युचुअल फंड रोज ही शेयर की तरह खरीदे-बेचे नहीं जा सकते। ये म्युचुअल फंडों की तुलना में सस्ते पड़ते हैं क्योंकि इनमें बढिया रिटर्न पाने के लिए मैनेजरों के करने के लिए कुछ होता ही नहीं। इनमें पारदर्शिता सौ फीसदी होती है क्योंकि हर कोई उन परिसम्पत्तियों को भली-भांति जानता है, जिस पर ईटीएफ आधारित होता है। नकदी के साथ वायदा कारोबार भी धड़ल्ले से होता है और स्टॉप-लॉस आदेशों की रणनीतियां बनाई जा सकती हैं।
ईटीएफ में लगातार जल्दी-जल्दी खरीद-फरोख्त से इनमें भी बचना चाहिए क्योंकि ब्रोकर की फीस और अन्य टैक्स तो हर सौदे पर फिर भी भरने ही पड़ते हैं। इसके अलावा, कई बार ये डिस्काउंट पर भी बिकते नजर आते हैं। ईटीएफ का आकार इसकी कीमत की तुलना में इसकी मांग और आपूर्ति के समीकरण से अधिक तय होता है। ईटीएफ की मुख्य श्रेणियां इस तरह हैं:
* वैश्विक ईटीएफ-ये ईटीएफ वैश्विक सूचकांकों पर आधारित होते हैं। विशिष्ट क्षेत्रीय ईटीएफ चीन और कोरिया के उभरते बाजारों में दांव आजमाते हैं।
* नियमित आय ईटीएफ-ये केवल नियमित आय प्रतिभूतियों पर आधारित होते हैं और लाभांश की घोषणा और भुगतान भी करते हैं।
* कमोडिटी ईटीएफ-ये विशिष्ट जिंसों पर आधारित होते हैं और कमोडिटी कारोबार से फायदा कमाते हैं।
* करेंसी ईटीएफ-ये मुद्रा कारोबार में सौदे करते हैं।
सोने का कारोबार करने वाले ईटीएफ की भारत में लोकप्रियता बढने का बुनियादी कारण यह है कि भारतीय जनमानस में आज भी सोने को सबसे बढिया निवेश माना जाता है। सोने को भौतिक रूप में खरीद कर रखने में सामने आने वाले कई तरह के झंझटों से ये ईटीएफ आजादी दिला देते हैं। तो अगली बार जब निवेश के लिए सोने में पैसा लगाने पर विचार करें, तो इसे भौतिक रूप में खरीदने के बजाय डिमैटिरियलाइज्ड रूप में अपने खाते में रखने पर अवश्य विचार करें। इस तरह आपको सोने की कीमतों का पूरा फायदा, पूरी तरलता के साथ मिलेगा। कमोडिटी बाजार में सोने की खरीद-फरोख्त के लिए एमसीएक्स और एनसीडीईएक्स प्लेटफार्मों का दबदबा भी खूब है।
हाल ही में शेयर बाजार में भारी गिरावट के मद्देनजर निवेशकों ने विश्वस्तर पर सोने की खरीदारी का रूख किया और सोने की कीमतें तेजी से ऊपर चढा दीं। कमोडिटी बाजार में प्रमुख प्लेटफार्मों पर सोने के अलावा चांदी और अन्य धातुओं से लेकर हल्दी, धनिया, मिर्च और तेल-गैस से लेकर कार्बन क्रेडिट तक कुल मिलाकर 80 से अधिक कमोडिटीज का कारोबार किया जा सकता है। यह कारोबार नकद के अलावा वायदा में भी होता है। घरेलू संस्थागत निवेशकों के साथ विदेशी खिलाड़ी और म्युचुअल फंड भी 500 अरब डॉलर से बड़े फ्यूचर बाजार में निवेश करते हैं। एक नई निवेश परिसम्पत्ति के रूप में कमोडिटी कारोबार ने स्वीकार्यता हासिल की है। अगले पीरियड में हम कमोडिटी कारोबार के बारे में विस्तार से बात करेंगे। तब तक हमारे आपके मिलने तक आपको नमस्कार।
क्या है डब्बा ट्रेडिंग
उन्नतीसवां पीरियड
डब्बा ट्रेडिंग उस वाहियात कारोबारी तरीके का नाम है, जिसको जानना निवेशक शिक्षा का एक जरूरी अंग है ताकि इससे बचकर रहा जा सके। डब्बा ट्रेडिंग की अनुमति कोई नियामक नहीं देता। इसकी कार्यप्रणाली और इससे जुड़े जोखिमों को समझना आवश्यक है।
यूं तो डब्बा का मतलब डब्बा ही होता है, यानी कि बॉक्स और डब्बा आपरेटर जो होता है, उसका आफिस भी किसी रजिस्टर्ड, नियमबद्ध ब्रोकर के आफिस की तरह ही होता है, शेयर बाजारों से कनेक्शन युक्त। फर्क यह होता है कि ब्रोकर जहां अपने निवेशक ग्राहकों के साथ सभी सौदों को शेयर बाजार की प्रणाली के अनुसार निबटाता है। जबकि डब्बा आपरेटर, सौदों को केवल अपने लेखों में दर्ज करता है और इन सौदों का आगे शेयर बाजार की प्रणाली से कोई मतलब नहीं होता। डब्बा आपरेटर निवेशक ग्राहक के एजेंट की तरह नहीं, बल्कि अपने में एक संस्था की तरह कार्य करता है। वह रजिस्ट्रेशन, मार्जिन, अंतरण, सौदा निबटान आदि संबंधी किसी नियम कानून का पालन करने के प्रति सचेत नहीं होता।
प्रतिभूति अधिनियम, सभी सौदों को केवल शेयर बाजार के द्वारा निबटाए जाने को ही अनुमति देते हैं। शेयरों की प्राप्ति और डिलीवरी, सौदे के 24 घंटे के अंदर की जानी आवश्यक होती है। लेकिन एक डब्बा आपरेटर अपने ग्राहकों को नकदी या डेरिवेटिव सौदों में कारोबार को यूं भी कैरी-फारवर्ड करने की अनुमति देता है कि जिस अवधि के लिए शेयर बाजार अनुमति नहीं देता। डब्बा ट्रेडिंग में प्राय: लिखित समझौते नहीं किए जाते, बिल जारी नहीं किए जाते। अगर सौदा ग्राहक के पक्ष में है तो रोजाना के मार्क-टु-मार्केट सेटेलमेंट की प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती, लेकिन घाटे की सूरत में ग्राहकों से जरूर पूर्ति कर ली जाती है।
डब्बा ट्रेडिंग कुल मिलाकर एक अवैध कारोबार की तस्वीर हमारे सम्मुख प्रदर्शित करता है। यह एक आपराधिक कृत्य है। कई बार इनके कारोबारी ठिकानों पर रेड पड़ती है और इनके कंप्यूटर्स और दूसरे रिकार्ड सीज कर दिए जाते हैं। गिरफ्तारियां भी होती हैं।
कई डब्बा ट्रेडर्स अपनी पोजीशन सुरक्षित रखने के लिए बाजार से थोड़ा-बहुत सिलसिला बना लेते हैं। यह वे अपने प्रोप्राइटरी खाते या कुछ 'बेनामी' खातों के जरिये करते हैं। ये तब गायब हो जाते हैं जब बाजार इनके खिलाफ जाने लगता है और इस तरह अपने ग्राहकों को चूना लगा जाते हैं। वे ब्रोकर भी प्रभावित होते हैं जो अपने या सब-ब्रोकर के कार्यालयों से ऐसी गतिविधियां संचालित होने देते हैं। शेयर बाजार ऐसी गतिविधियों के खिलाफ शिकायतों को गंभीरता से लेता है और कार्रवाई भी करता है।
ऐसे डब्बा ट्रेडरों को संरक्षण देने के कुछ लाभ भी हैं। मसलन, केवाईसी (नो योर क्लाइंट) फार्म नहीं फरना पड़ता, उकताहट भरी लंबी-चौड़ी कागजी कार्रवाई नहीं करनी पड़ती, पैन कार्ड न हो, तो भी कोई बात नहीं, मार्जिनों की जरूरत नहीं और लीवरेज पूरी आजादी से मुहैया होती है। चेक की भी जरूरत नहीं, कैसी भी नकदी से काम चल जाता है। लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि ये अच्छे वक्त के साथी ही होते हैं, बाजार प्रतिकूल होने पर ये अपने स्वार्थों के अनुसार ही वादे निभाते या नहीं निभाते हैं। इनकी दुकान रातोंरात बंद हो सकती है और कारोबारी फिर ढूंढे नहीं मिलते। वे अपने घाटे पूरे करने के लिए आपकी रकम को अपनी समझकर इस्तेमाल कर सकते हैं। इनसे चोट खाने के बाद आप कहीं फरियाद भी नहीं कर पाते।
हिंदुस्तान एक ऐसा मुल्क है जहां कानूनों का पालन निहित स्वार्थों के अनुसार किया जाता है। हमारे शेयर बाजारों की साख विश्व स्तर पर कायम होने का बड़ा कारण यह है कि कम से कम निवेश के मामले में समझदार निवेशक अपनी पूंजी की सुरक्षा को प्राथमिकता देते हुए, ज्यादातर नियमों को अपनाते हैं और सरकार की संस्थाएं भी कड़ी निगरानी रखती हैं। चूंकि एक स्वस्थ और अनुशासित, नियमबद्ध बाजार ही समुचित संपन्नता का आधार हो सकता है। इसलिए डब्बा ट्रेडिंग जैसी अनुचित गतिविधियों के प्रति सतर्क रहना और इनके खिलाफ रिपोर्ट करना ही आम निवेशक के हित में है। अगले पीरियड में जानिए एक्सचेंज ट्रेडेड फंडों के बारे में। तब तक के लिए नमस्कार।
क्या बला है हेज फंड
अटठाइसवां पिरीयड
हेज फंडों के बारे में माना यह जाता है कि सारे ही हेज फंड अत्यधिक अस्थिर होते हैं। वे विश्वस्तर पर वृहत रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं और शेयर, करेंसी, बाँडों, कमोडिटीज, सोना-चांदी आदि पर बड़े दांव लगाते हैं। लेकिन वास्तव में केवल पांच फीसदी हेज फंड ही वैश्विक वृहत फंड हैं और ज्यादातर हेज फंड डेरिवेटिव सौदों का इस्तेमाल केवल हेजिंग के लिए ही करते हैं।
इनकी हेजिंग रणनीतियां प्राय: इस प्रकार की होती हैं-
• शार्ट सेलिंग- इस रणनीति के तहत शेयरों को धारण किए बिना ही इस उम्मीद में बेचा जाता है कि आगे कीमतें और गिरेंगी। गिरते हुए बाजार में इस तरह उधार शेयर लेकर उनको बेचकर और फिर ज्यादा गिरावट पर खरीदकर पैसा बना्या जाता है। कभी-कभी यह दांव उल्टा भी पड़ जाता है, जैसे कि दिवाली 2008 के अवसर पर जर्मन कार कंपनी वॉक्सवैगन के शेयरों में शार्टसेलिंग की रणनीति के तहत पोजीशन लेने वाले लंदन के बड़े हेज फंडों ने करीब 20 अरब डॉलर का घाटा उठाया और उनमें से कई दिवालिया हो गए।
• आर्बिट्रेज- आपसी संबंधित प्रतिभूतियों की कीमतों में अपर्याप्तता का लाभ उठाना।
• वित्तीय संकट या दिवालिएपन की गिरफ्त में आई कंपनियों की महा-छूट पर उपलब्ध प्रतिभूतियों में निवेश करना, जो तरलता के मूल्यांकन से काफी नीचा होता है।
• खास मौकों पर जमानती निवेश, जैसे कंपनियों का मर्जर, विभाजन, दिवालिएपन से बाहर आने की प्रक्रिया, अधिग्रहण आदि।
• किसी सुरक्षित वित्तीय परिसम्पत्ति, सूचकांक या अऩ्य निवेश पर आधारित मूल्यांकन वाले वायदा और विकल्प सौदों में कारोबारी विकल्पों पर अमल करना।
•
एक हेज फंड वह फंड है, जो दोनों तरह की लंबी और छोटी अवधि की पोजीशनें लेता है, आर्बिट्रेज का इस्तेमाल करता है, वास्तविक से कम मूल्यांकन वाली प्रतिभूतियों मं कारोबार करता है, ऑप्शन व बांड की खरीद-फरोख्त करता है और किसी भी बाजार में न्यूनतम जोखिम पर अधिकतम लाभ की संभावना वाले निवेश को अपनाता है। सैद्धान्तिक रूप से, हेज फंडों का लक्ष्य पूंजी की पूरी सुरक्षा रखते हुए, कैसी भी बाजार परिस्थितियों में अधिकतम रिटर्न हासिल करना और अस्थिरता और जोखिम में कमी लाना होता है।
पहला हेज फंड अल्फ्रेड डब्ल्यू जोन्स द्वारा 1949 में बनाया गया था, जिसका लक्ष्य यह था कि जिन शेयरों में लंबी अवधि के लिए पोजीशन ली गई है, उनके जोखिमों को अन्य शेयरों की शार्ट-सेलिंग के जरिए घटाया जाएं। उसने पहली बार शार्ट-सेलिंग, लीवरेज और प्रेरक शुल्क का आपसी सामंजस्य के साथ प्रयोग किया। आज 20 फीसदी से अधिक गति से सालाना बढती हेज फंडों की दुनिया में 8 हजार से ऊपर हेज फंड काम कर रहे हैं और अधिकांश हेज फंड उच्चस्तर पर विशेषीकृत हैं। उनकी प्रबंधन टीमें अपनी अलग-अलग किस्म की खासियतों के लिए पहचानी जाती हैं।
जिस तरह परंपरागत इक्विटी फंड या म्युचुअल फंड पूरी तरह से बाजार जोखिम के प्रति खुले होते हैं, वैसा हेज फंडों के साथ नहीं होता। अधिकांश हेज फंडों का प्रदर्शन बांड या इक्विटी बाजारों की दिशा पर ही निर्भर नहीं होता। इसके अलावा, ज्यादातर हेज फंडों के प्रबंधक अपनी एक निर्धारित सीमा से अधिक निवेश राशि स्वीकार नहीं करते। वे उतनी ही राशि का प्रबंधन करते हैं, कि जिससे ज्यादा हो जाने पर उन्हें रिटर्न प्रभावित होने की आशंका होती है। इनके प्रबंधक उच्च पेशेवर, अनुशासित और विश्वसनीय रूप से योग्य माने जाते हैं।
हेज फंडों के लिए कोई नियामक संस्था नहीं है। हेज फंडों में केवल कुछ ही निवेशक निवेश करते हैं, यानी व्यापक रूप से ये फंड जनता से पैसा इकट्ठा नहीं करते। इनके विशिष्ट निवेशकों को निवेश की गई रकम के अनुपात में रिटर्न मिलता है। इनके विशिष्ट निवेशकों की विशिष्टता इसी से जाहिर हो जाती है, कि अमरीका में एसईसी के नियमों के अन्तर्गत ये केवल ऐसे विशिष्ट निवेशकों का पैसा स्वीकार कर सकते हैं जिनकी नेटवर्थ 10 लाख डॉलर से ज्यादा हो या आमदनी 2 लाख डॉलर (अगर शादीशुदा हैं तो 3 लाख डॉलर) से कम नहीं हो। कोई अंकुश न होने के चलते ये हेज फंड दुनिया भर में अच्छी निवेश संभावना की तलाश में घूमते रहते हैं और जैसा मौका देखते हैं, उसी के अनुरूप रणनीति पर अमल करते हैं। इस बिंदु पर हेज फंडों के साथ जोखिम अधिक माना जा सकता है। हेज फंडों के लिए रेगुलेटरी अथॉरिटी न होने के साथ कोई ऐसी रेटिंग एजेंसी भी नहीं है जो निवेशकों को यह आकलन करने में मदद कर सके, कि कौन सा हेज फंड ज्यादा या कम अच्छा है। अगले पीरियड में जानिए डब्बा ट्रेडिंग के बारे में। तब तक हमारे आपके मिलने तक आपको नमस्कार।
ऑप्शन एवं फ्यूचर्स में सही रणनीति देती है पैसा
अगर मैं आपको एक महीने बाद की किसी निश्चित तारीख को एक कार एक लाख रूपए की बेचने का वादा करूं और आप उसे उस तारीख पर पूर्वनिर्धारित एक लाख रूपए में खरीद लें, तो यह हुआ फ्यूचर कांट्रैक्ट (भविष्य में लागू होने वाला समझौता) इसके अमल में आने के लिए एक पूर्वनिर्धारित तारीख, एक तयशुदा कीमत और समझौता जिनके मध्य होना है, ऐसी दो आपसी सहमति प्राप्त पार्टियां, फ्यूचर कांट्रैक्ट के जरूरी तत्व माने जा सकते हैं।
सत्ताइसवां पीरियड
अगर मैं आपको एक माह बाद की किसी निश्चित तारीख पर आपको एक लाख रूपए की कार बेचने का वायदा करूं और आपके सामने यह विकल्प भी खुला रखा जाए कि आप चाहें तो एक माह बाद की उस निश्चित तारीख पर एक लाख रूपए के बदले उस कार को खरीदें, चाहे तो न खरीदें। तो यह हुआ विकल्प वायदा समझौता (ऑप्शन कांट्रैक्ट) इसके भी जरूरी तत्व वही हैं, केवल समझौते में खरीदने या न खरीदने का विकल्प खुला हुआ होता है। इस विकल्प का लाभ लेने के एवज में आपको एक छोटी सी राशि का भुगतान करना होता है जिसकी वापसी नहीं की जाती। इसे ऑप्शन प्रीमियम कहते हैं।
अब इसे शेयर बाजार के परिप्रेक्ष्य में समझिए। माना कि टाटा का शेयर आप खरीद सकते हैं जिसकी कीमत और खरीदने की तिथि आज निर्धारित की गई है। अगर आप फ्यूचर कांट्रैक्ट खरीदते हैं, तो इसका मतलब यह है कि निर्धारित तिथि पर टाटा का शेयर आपको पूर्वनिर्धारित कीमत पर दिया जाएगा। आज से लेकर कांट्रैक्ट पूरा होने की तिथि तक शेयर की कीमत में काफी उतार या चढा़व आ सकता है और इन अस्थिर बाजार कीमतों के बावजूद आपको समझौता निभाना होता है।
अगर आप ऑप्शन कांट्रैक्ट खरीदते हैं, तो भी टाटा का शेयर आपको निर्धारित तिथि पर पूर्वनिर्धारित कीमत पर ही दिया जाएगा, लेकिन चूंकि खरीदने या न खरीदने का विकल्प खुला हुआ है, इसलिए जाहिर है कि आप उसी हालत में टाटा का शेयर उस भावी तिथि पर खरीदेंगे, जबकि उसका भाव इस अवधि में बढ गया हो। अगर शेयर गिर गया है तो आप समझौते का पालन नहीं करना चाहेंगे। इस प्रकार के सौदे में नुकसान केवल उस ऑप्शन प्रीमियम का है, जो आपको भरना होता है और जिसकी वापसी नहीं की जाती, और फायदे की अनन्त संभावना होती है क्योंकि शेयर अगर चढना शुरू हो गया, तो एक माह में कहीं से कहीं पहुंच सकता है।
इस तरह स्पष्ट है कि दोनों प्रकार के सौदों में लाभ की संभावना अनन्त होती है लेकिन फ्यूचर्स में जहां हानि की आशंकाभी अनन्त होती है वहीं ऑप्शंस में यह प्रीमियम की रकम के सापेक्ष निश्चित हुआ करती है। डेरिवेटिव बाजार में सौदे करने से पहले इन अवधारणाओं को अच्छी तरह जान लेना हित में है।
डेरिवेटिव्स सौदों को हेजिंग संसाधनों की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। यदि आपने बढिया कंपनियों के शेयर लंबी अवधि के परिप्रेक्ष्य में रखे हुए हैं, और बाजार की आकस्मिक गिरावट आपके पोर्टफोलियो को दबाव में ले रही है तो ऑप्शन बाजार में पुट ऑप्शन खरीदकर शेयर बेचे जा सकते हैं और अधिक गिरावट होने पर वापस खरीदे जा सकते हैं। अगर आपका फैसला गलत साबित होता है, यानि बाजार में और गिरावट नहीं आती, तो आपका नुकसान केवल प्रीमियम का होता है और यदि भारी गिरावट आती है तो आप फायदे में रहते हैं। ऑप्शन सौदों के जरिए आप छोटी अवधि में लाभ उठा सकते हैं और शेयर होल्ड रखने की अपनी लागतें घटा सकते हैं।
बाजार में किसी कार्यवाही से पहले बाजार के बारे में अपना एक स्वतंत्र और तार्किक दृष्टिकोण निर्मित करें और फिर इसके मुताबिक अपनी रणनीति निर्धारित करें। अगर आपको बाजार ऊपर जाने के आसार लगें, तो कॉल ऑप्शन खरीदा जा सकता है, जो खरीदने के एक विकल्प के सिवा और कुछ नहीं है। अगर बाजार नीचे जाने के आसार दिखते हों, तो पुट ऑप्शन खरीदा जा सकता है जो कि एक भावी तिथि पर बेचने के विकल्प के सिवा कुछ भी नहीं है। अगर बाजार के एक निश्चित स्तर के दरम्यान रहने के आसार हों, तो दोनों तरह के ऑप्शन लिये जा सकते हैं, ताकि बाजार के किसी भी रूख का फायदा लिया जा सके।
डेरिवेटिव बाजार के बारे में कम जानकारी रखने वालों को हर हाल में ऊपर दिए गए तरीकों को अपनाने से बचना चाहिए। वे बहुत छोटी मात्राओं में शेयरों के कारोबार के जरिए डेरिवेटिव बाजार की प्रकृति और काम करने के तरीकों को समझें। डेरिवेटिव्स, रणनीति का एक अंग हैं जिनको सही तरह से प्रयोग करके पोर्टफोलियो से हासिल हो सकने वाले रिटर्न को ज्यादा से ज्यादा किया जा सकता है। अगले पीरियड में जानिये हेज फंडों के बारे में। तब तक हमारे आपके मिलने तक आपको नमस्कार।
म्युचुअल फंड डिक्शनरी:अंतिम
छब्बीसवां पीरियड
स्प्रेड- ऊंची दरों, जहां से पैसा उधार लिया गया हो और जिन दरों पर पैसे को किसी वित्तीय संस्थाओं में लगाया गया हो, उनके मध्य का अंतर। इसके साथ, यह एक प्रतिभूति की नीलामी और पूछी गई कीमतों के मध्य के अंतर के रूप में भी जाना जाता है।
सब्सिडी- आमदनी या कीमत समर्थन के साथ, सरकार द्वारा किया गया कोई भी वित्तीय योगदान, जो प्राप्तकर्ता के लाभ हेतु होता है। अनुदान और ऋणों के अतिरिक्त कर-कटौती के तौर पर छोड़े गए राजस्व भी इसमें शामिल होते हैं।
सिस्टेमेटिक विदड्रॉल प्लान- अधिकांश म्युचुअल फंड सिस्टेमेटिक इन्वेस्टमेन्ट प्लान (सिप) के अलावा इसके विपरीत यह सुविधा भी देते हैं। ये भुगतान सामान्यतया फंड की लाभांश आय और पूंजीगत लाभों से हासिल रकमों से किए जाते हैं।
टोटल रिटर्न- एक निवेश का सकल प्रदर्शन, जो एक निश्चित अवधि में बदलती यूनिट कीमतों पर सभी वृद्धियों (लाभांश, ब्याज, पूंजीगत आय) के आधार पर आगणित किया जाता है। सभी पुनर्निवेशित पूंजीगत लाभों और आय वितरणों के साथ, यूनिटों की कुल संख्या के एनएवी के परिप्रेक्ष्य में कुल मूल्य में से वास्तविक निवेशित रकम को घटाकर इसे प्राप्त किया जाता है।
ट्रेड-डेट- वह निश्चित तारीख, जिस पर आप के लिए फंड द्वारा शेयर खरीदे या बेचे जाते हैं। उसी तारीख के बंद एनएवी कीमत के आधार पर अंतरण कीमत का निर्धारण किया जाता है।
अंडरराइटर- म्युचुअल फंड की यूनिटों को ब्रोकर/डीलर और जनता के लिए वितरण करने वाला, वितरक की तरह कार्य करने वाला संगठन।
वर्टिकल इंटीग्रेशन- जब कोई कंपनी अपनी आपूर्ति श्रृंखला से संबंधित अन्य कंपनी/कंपनियों का अधिग्रहण/अपने में विलय करती है, तो इसे वर्टिकल इन्टीग्रेशन कहते हैं। जैसे, एक स्टील उत्पादक कंपनी द्वारा स्टील के द्वितीयक श्रेणी के उत्पाद बनाने वाली कंपनी का अधिग्रहण या विलय कर लिया जाना।
वोलेटिलिटी- निवेश के मामले में, वोलेटिलिटी, निवेश की बाजार कीमतों में आते उतार-चढा़व से संबंधित है। यह उतार-चढा़व जितना अधिक होगा, निवेश उतना ही अस्थिर होगा।
वालंटियरी प्लान- पूंजी संचय की लक्ष्य पूर्ति करने के लिए एक लचीला प्लान, जिससे सुनिश्चित अवधि या निवेश की सुनिश्चित रकम जैसी अनिवार्यताएं नहीं जुड़ी़ होतीं।
यील्ड- निवेश पर हासिल आय या रिटर्न। सामान्यतया किसी दिए गए समयकाल के लिए बाजार कीमतों के प्रतिशत अंशों के रूप में व्यक्त किए जाते हैं। म्युचुअल फंड के लिए, प्रति शेयर कीमत में किसी लाभ या हानि से पहले ब्याज या लाभांश के रूप में पारिभाषित किया जाता है।
जीरो कूपन बांड- अपनी प्रत्यक्ष कीमत (फेस वैल्यू) के एक भाग पर बेचे जाने वाले बांड। यह क्रमिक रूप से वृद्धि करता है लेकिन इस पर ब्याज भुगतान नहीं किए जाते। आमदनी का संचय पूरी परिपक्वता अवधि तक होता है, जब कि बांड पूर्ण फेस वैल्यू पर पुनर्खरीद योग्य हो जाता है।
उम्मीद है, कि इस म्युचुअल फंड डिक्शनरी से उन साधारण निवेशकों की जानकारी में संतोषजनक वृद्धि हुई होगी, जो म्यूचुअल फंडों में निवेश करना तो चाहते हैं। अगले पीरियड में और भी उपयोगी जानकारी के साथ हमारे आपके मिलने तक नमस्कार।
म्युचुअल फंड डिक्शनरी-4
पच्चीसवां पीरियड
नेट वर्थ- किसी व्यक्ति की धारिता में आने वाली सभी परिसंपत्तियों, जैसे मकान, शेयर, बांड व अन्य प्रतिभूतियों में से गिरवी एवं ऋण संबंधी जो भी देनदारियां आदि हों, उन सबको घटाकर शेष बचने वाली मात्रा का कुल मूल्य नेट वर्थ कहलाता है।
नो-लोड फंड- बिना बिक्री शुल्क के, सीधे जनता को या सहयोगी वितरक के द्वारा जनता को एनएवी के रेट पर अपनी यूनिटों की बिक्री करने वाला कमीशन-फ्री फंड।
ऑप्शन- प्रतिभूति बाजार में हेजिंग या अंदाजों के लिए प्रयुक्त तरीका। कॉल ऑप्शन खरीदने का मतलब है कि कोई निवेशक किसी कंपनी के निर्धारित समय-सीमा में 100 शेयर खरीदने का अधिकार हासिल करता है जबकि पुट ऑप्शन के अंतर्गत ऐसी ही शर्त पर शेयर बेचने का अधिकार मिलता है।
प्रीमियम- बांड या शेयर का प्रीमियम वह अतिरिक्त मूल्य है, जो उसकी फेस-वैल्यू के साथ कंपनी की साख के मुताबिक जुडता है। आम तौर पर सभी शेयरों की फेस-वैल्यू 1,2,5 या 10 रूपए होती है, लेकिन आईपीओ या बाद में भी इससे कई-कई गुना प्रीमियम पर शेयरों की खरीद-फरोख्त होती है जो कंपनी की मजबूती व लाभप्रदता को दर्शाता है। बीमा के मामले में प्रीमियम का अर्थ वह राशि होती है जिसका आप पालिसी लेने के एवज में भुगतान करते हैं।
प्राईस-अर्निंग रेशियो- शेयर को इसकी आय प्रति शेयर से विभाजित करके कीमत-आय अनुपात हासिल किया जाता है। किसी कंपनी की आमदनी की क्षमता को दिखलाने वाला यह अनुपात, निवेशकों को बताता है कि वे इसके एवज में कितने गुना अधिक भुगतान कर रहे हैं। ट्रेलिंग पी/ई का मतलब है कि अनुपात, ताजे बीते साल की आमदनी के आंकडों पर आधारित है, जबकि फारवर्ड पी/ई में विश्लेषक द्वारा कंपनी की आगामी साल की आमदनी के लगाए अनुमानों का इस्तेमाल होता है। माना विगत साल 20 रूपया आमदनी दिखाने वाला एक शेयर 200 रूपए का बिक रहा है तो इसका ट्रेलिंग पी/ई 10 होगा। अगर अगले साल की आमदनी 40 रूपए संभावित है तो फारवर्ड पी/ई 5 होगा।
पढ़ें: म्युचुअल फंड डिक्शनरी-3
प्राईस स्टेबिलिटी- निवेश की गई आपकी मूल रकम को यह सुरक्षित रखती है। समय के साथ फंड की एनएवी के परिवर्तनों में प्राईस स्टेबिलिटी (कीमत-स्थिरता) देखी जा सकती है।
प्रास्पैक्ट्स- यह वह आधिकारिक अभिलेख है जिसका प्रकाशन हर एक निवेश कंपनी करती है। म्युचुअल फंड या आईपीओ के संबंध में सारी जानकारी, योजनाएं, नियम, शर्तें व कर्ता-धर्ताओं के अते-पते आदि की सभी जानकारी से लैस प्रास्पैक्ट्स या ऑफर डाक्युमेंट में वह सारी सूचना भी निवेशकों को दी जाती है जिसके लिए सेबी ने नियमों की बाध्यता बनाई हुई है।
रेट ऑफ रिटर्न- यह प्रतिशत के रूप में दिया जाता है और निवेश किए गए प्रति रूपए पर नकदी वितरण, पूंजीगत लाभ आदि सभी प्रक्रियाओं को व्यक्त करता है।
रिकार्ड डेट- वह तारीख, जिस पर फंड अपनी फंड-योजना के यूनिट धारकों का निर्धारण करता है। रिकार्ड के मुताबिक उस तारीख के यूनिट धारक फंड द्वारा घोषित लाभांश/पूंजीगत आमदनी वितरण की प्राप्तियां हासिल करने के अधिकारी होते हैं।
रिडीमेबल- वे वरीयताप्राप्त शेयर व बाँड, जिनको जारी करने वाली संस्था उनको निर्धारित कीमत पर वापस खरीदने का अधिकार रखती है। इस पुनर्खरीद के लिए कुछ फंडों द्वारा चार्ज की जाने वाली फीस को रिडेम्पशन फीस कहते हैं और रिडेम्पशन प्राइस वह कीमत है, जिस पर फंड अपनी जारी यूनिटों को वापस खरीदते हैं। यह प्राय: ताजा एनएवी कीमत के बराबर होती है।
रीजनल फंड- एक विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र, खास तौर से फंड के स्थानीय क्षेत्र की विशेष निवेश संभावनाओं को भुनाने वाला फंड।
रि-इन्वेस्टमेन्ट- वह तारीख, जिस पर (अनुरोध किए जाने के मुताबिक) एक शेयर का पूँजीगत लाभ या लाभांश, फंड की अतिरिक्त यूनिटों को जारी करते हुए पुनर्निवेशित कर दिया जाता है।
रूपया-लागत औसत- शेयर बाजार की गतिविधियों को दरकिनार करके एक निर्धारित राशि नियमित अंतराल पर निवेश करने की तकनीक। इस तरीके से निवेश संबंधी जोखिम, सम्पूर्ण समय-काल के आधार पर बंट जाते हैं और गिरे बाजार में अधिक एवं चढे बाजार में कम यूनिटें समान कीमत पर खरीदी जाती हैं।
सिक्युरिटीज- शेयरों, बांडों, लघु अवधि निवेशों के लिए प्रयुक्त होने वाला अन्य शब्द।
सिक्युरिटाइजेशन- इस प्रक्रिया के तहत गैर-बाजारू संपत्तियाँ जैसे गिरवी, वाहन-लीज और क्रेडिट कार्ड संबंधी प्राप्तियों को बाजारू-प्रतिभूतियों में यूं बदला जाता है, ताकि निवेशकों के बीच इनको बेचा जा सके। अगले पीरियड में कुछ और शब्दों पर बात करने तक के लिए नमस्कार।
म्युचुअल फंड डिक्शनरी-3
चौबीसवां पीरियड
एक्स डिविडेन्ड रेट- वह तारीख, जिस पर फंड की नेट एसेट वैल्यू (एनएवी) डिविडेन्ड तथा/या पूंजीगत लाभ वितरण के समकक्ष गिरती है, हालांकि बाजार के रूझान अंतिम एनएवी कीमत से जुदा हो सकते हैं। ज्यादातर फंड इस तारीख को बंद एनएवी कीमत की जगह अपने नाम के आगे एक्स (X) लगाते हैं।
एक्सपेंस रेशियो- कुल परिसंपत्तियों की तुलना में फंड के कुल खर्चों का अनुपात। खर्चे में शामिल किए जाते हैं-'प्रबंधन की फीस, यूनिट धारकों से पत्राचार व अन्य प्रशासनिक खर्चे आदि। फंड के प्रास्पैक्ट्स में इस अनुपात का उल्लेख होता है। खर्चों पर नियंत्रण की तुलना में यह फंड के आकार पर अधिक निर्भर करता है।
फेस वैल्यू- किसी कंपनी द्वारा जारी किए जाने वाले बांड का वह वास्तविक मूल्य, जो ऋण की परिपक्वता पूरी होने पर कंपनी को वास्तविक रूप में भुगतान करना होता है। यह नाममात्र का होता है।
फिस्कल ईयर- बारह निरंतर महीनों की लेखा-जोखा अवधि, प्राय: अप्रैल से मार्च तक।
इन्फ्लेशन- सेवाओं और वस्तुओं की कीमतें बढ़ने का परिणाम, अर्थात आज किसी चीज को आप जिस कीमत पर खरीद रहे हैं, उसके लिए भविष्य में आपको ज्यादा कीमत देनी होगी।
इंस्टीट्यूशनल इनवेस्टर- पेशेवर वित्तीय प्रबंधक, जो अपने पेंशन और जीवन बीमा फंडों से रकम जुटाने वाले निजी निवेशकों का धन, उनके बिहाफ पर शेयरों व अन्य परिसंपत्तियों में लगाता है।
पढ़ें: म्युचुअल फंड डिक्शनरी-1
इंटरनेशनल फंड- फंड, जो भारत से बाहर की व्यापारिक प्रतिभूतियों में पैसा लगाते हैं।
इनवेस्टमेंट ऑब्जेक्टिव- लंबी अवधि का विकास, निरन्तर आय आदि प्रकार के वित्तीय लक्ष्य, जिनको निवेशक या फंड निर्धारित करके इनके अनुसार निवेश रणनीति बनाते हैं।
इश्यूड शेयर कैपिटल- किसी कंपनी द्वारा सार्वजनिक रूप से जारी किए गए शेयरों की कुल संख्या को शेयरों के न्यूनतम मूल्य से गुणा करने पर प्राप्त आंकडा, जैसे दो रूपए मूल्य के बीस लाख शेयर जारी करने वाली कंपनी की कुल इश्यूड शेयर कैपिटल 40 लाख होगी।
जंक बांड- उच्च क्रेडिट वाला उच्च संभावनाओं पर आधारित मुनाफे दे सकने वाला बांड।
लीजी- लीज पर भुगतान करने वाला वह व्यक्ति, जो लीज की शर्तों के मुताबिक बंधक जायदाद को जब्त या उपयोग कर सकता है।
लीजर- लीज के भुगतान प्राप्त करने वाला व्यक्ति।
लाइबोर- लंदन में बैंकों द्वारा प्रस्तावित अन्तर्बैंकीय ब्याज दरें। लंदन के थोक पूंजी बाजार में बैंक इन ब्याज दरों पर आपसी ऋण प्रस्तावित करते हैं जिन पर आधारित पैसा एक रात के लिए भी उठाया जा सकता है और पांच साल के लिए भी। तीन माह की अवधि पर आधारित दरों का प्रचलन सर्वाधिक है। उच्च मूल्य के लेन-देन हेतु तीन माह के लाइबोर रूझान एक मानक की तरह प्रयोग में लाए जाते हैं और लाइबोर से पाइंट ऊपर की दरें चुनी जाती हैं, जैसे यदि तीन माह का लाइबोर 6 फीसदी बोला गया तो बैंक प्राय: इससे चौथाई फीसदी ऊपर की दर चुनेगा।
लियन- यह एक सिक्युरिटी संसाधन की तरह है, जायदाद के प्रतिपक्ष जो करों, गिरवी, अवार्ड, ऋण आदि के पुनर्भुगतान किए जाने को सुनिश्चित करता है। लियन का भुगतान न होने की सूरत में ऋण वसूली के लिए जायदाद के विरूद्ध ऋणदाता को अग्रिम कार्यवाही के अधिकार मिलते हैं।
लिक्विडिटी- तरलता का मतलब है कि किसी परिसंपत्ति को कितनी तीव्रता से बेचा/खरीदा जा सकता है और नकदी में बदला जा सकता है। सोना, उच्च तरलता का सर्वोच्च उदाहरण है।
लोड- यह एक शुल्क है, जो फंड, निवेशकों से योजना में आते/निकलते समय लेते हैं और अपनी विशिष्ट लागतों की वसूली करते हैं। जो फंड योजना में आते समय निवेशकों से अधिभार वसूली करते हैं, उनको फ्रंट एंड लोड फंड और जो फंड योजना से बाहर निकलते समय निवेशकों से अधिभार वसूलते हैं, उनको बैक एंड लोड फंड कहते हैं। 1.5 फीसदी या कम अधिभार लेने वाले फंडों को लो-लोड फंड कहते हैं।
मैनेजमेंट फीस- फंड का पोर्टफोलियो प्रबंधन करने के एवज में यह फीस एएमसी (असेट मैनेजमेंट कंपनी) इसे लेती है जो प्राय: फंड की सम्पत्ति मूल्य का 0.5 फीसदी से 1.25 फीसदी तक होती है।
पढ़ें: म्युचुअल फंड डिक्शनरी-2
मार्केट- शेयर बाजार एक मार्केट है, जहाँ हर प्रकार के बांड, प्रतिभूतियां, शेयर आदि खरीदे-बेचे जाते हैं।
मैच्युरिटी- एक बांड या अन्य ऋण संसाधन की कुल परिपक्वता अवधि, जिसके पूर्ण होने पर भुगतान प्राप्त किया जाता है।
मार्गेज- गिरवी संबंधी एक अधिकार संसाधन, जो ऋणदाता को ऋणी द्वारा प्रदान किया जाता है, कि ऋण शर्तों का अनुपालन न हो पाने की दशा में संबंधित जायदाद, ऋणदाता द्वारा अधिगृहीत की जा सके।
एनएवी- फंड की एक इकाई (यूनिट) का रूपयों में बाजार मूल्य, जिसकी गणना प्रत्येक कार्यदिवस की समाप्ति पर की जाती है। इसकी गणना करने के लिए फंड के पोर्टफोलियो में शामिल सभी परिसंपत्तियों (शेयर, बांड आदि) का कुल बाजार मूल्य में से फंड के दायित्व घटाकर, उसे कुल जारी की गई यूनिटों की संख्या से विभाजित किया जाता है और बिक्री का शुल्क इसमें शामिल नहीं होता। एनएवी का बाजार मूल्य, फंड की कुल परिसंपत्तियों के बाजार मूल्य के साथ ही उठता-गिरता रहता है। अगले पीरियड में कुछ और शब्दों पर बात करने तक के लिए नमस्कार।
म्युचुअल फंड डिक्शनरी-2
तेईसवां पीरियड
बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स- कंपनी के शेयरधारकों द्वारा सालाना बैठक में चयनित की जाने वाली समिति, जिसके सदस्यों को कंपनी मामलों का प्रबंधन करने के मामले में शेयरधारकों की ओर से अधिकार प्राप्त होते हैं।
बांड/इन्कम फंड- विकास की तुलना में आमदनी को प्राथमिकता देकर निगमों और सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश करने वाले फंड।
बाँड रेटिंग- बांड जारीकर्ता के डिफॉल्टर हो जाने की संभावनाओं का मूल्यांकन करने वाली प्रणाली। CRISIL, CARE, ICRA के साथ अन्य रेटिंग संस्थाएं भी हैं, जो सरकारी और गैर-सरकारी कंपनियों की वित्तीय मजबूती की पडताल, कर्ज प्रतिभूतियों को जारी करने के संदर्भ में करती हैं। AAA सर्वोच्च रेटिंग होती है, जिसका अर्थ है कंपनी के डिफॉल्टर होने की सम्भावना न के बराबर है। इसके विरूद्ध सबसे निचली रेटिंग D वित्तीय कमजोरी को प्रदर्शित करती है। म्युचुअल फंड भी अपनी योजनाओं की रेटिंग कराते व अपने प्रासपैक्ट्स में उल्लेख करते हैं।
कैपिटल- आपकी निवेशित पूंजी की मात्रा। पूंजी संरक्षण का लक्ष्य रख कर निवेश करने पर आपकी प्राथमिकता यह होती है कि आपकी पूंजी जरा भी घटे नहीं। पूंजी विकास का लक्ष्य रखने पर आपकी पूंजी का मूल्य बढता है, इससे जुडे जोखिमों के साथ।
कैपिटल गेन- निवेश बेचने पर मिलने वाला लाभ। 500 रूपए के फंड यूनिट लेकर एक साल बाद बेचने पर अगर 640 रूपए मिलते हैं, तो कैपिटल गेन 28 फीसदी यानी 140 रूपए होगा।
कैपिटल गेन डिस्ट्रीब्यूशन- पोर्टफोलियो प्रतिभूतियों को म्युचुअल फंड द्वारा बेचकर प्राय: सालाना आधार पर यूनिट धारकों को दिया जाने वाला भुगतान।
कैपिटल ग्रोथ- फंड की प्रतिभूतियों का घटता/बढता बाजार मूल्य, इसकी ताजा एनएवी में झलकता है। यह ज्यादातर फंडों का लंबी अवधि का विशिष्ट उद्देश्य होता है।
सर्टिफिकेट ऑफ डिपाजिट- वित्तीय संस्थाओं द्वारा जारी किए जाने वाले लघु अवधि के, ब्याज आधारित ऋण संसाधन।
कोलेटरल सिक्युरिटी- ऋण के पुनर्भुगतान को सुनिश्चित करने के लिए उपलब्ध कराई जाने वाली अतिरिक्त सिक्युरिटी।
कामर्शियल पेपर- निगमों द्वारा लघु अवधि की ऋण जरूरतें पूरी करने के लिए जारी किए जाने वाले ऐसे असुरक्षित नोट्स, जिनकी परिपक्वता अवधि 3 माह से कम होती है।
कमीशन- ग्राहक की प्रतिभूतियों को खरीदने-बेचने के एवज में ब्रोकर/एजेन्ट द्वारा ली जाने वाली फीस। की गई खरीद/बिक्री की बाजार कीमत का यह एक निश्चित प्रतिशत अंश होता है।
कम्पाउन्डिंग- शेयर या म्युचुअल फंड योजना से होने वाली आय या लाभांश का पुनर्निवेश करते हुए, कम्पाउन्डिंग के जरिए आपका धन बहुत तेजी से विकसित होता है।
कन्सीडरेशन- एक अन्तरण (ट्रांजैक्शन) से संबंधित कुल धनराशि, जिसका आप भुगतान या प्राप्ति करते हैं। यह कमीशन, टैक्स या अन्य किसी प्रकार के शुल्क आदि का आधार है।
कन्वर्जन प्रीविलेज- सामान्यतया एक ही फंड हाउस की एक योजना से निकलकर दूसरी योजना में नाममात्र के शुल्क के साथ जाने का अधिकार।
कस्टोडियन- फंड के पोर्टफोलियो की प्रतिभूतियों/परिसम्पत्तियों या उनके रिकार्ड को सुरक्षित रखने वाली बैंक या ट्रस्ट कंपनी, जो पोर्टफोलियो के प्रबंधन में कोई भूमिका नहीं निभाती।
डेरिवेटिव्स- एक निवेश पर आधारित भविष्य का सौदा, जिसका पूरा किया जाना या न किया जाना, कुछ शर्तों के साथ भविष्य की किसी तारीख पर केंद्रित होता है। एक तय मूल्य पर भविष्य में आज निर्धारित निवेश सम्पत्ति को बेचने या न बेचने के अधिकार वला 'ऑप्शन' कांट्रैक्ट ज्यादा प्रचलित है। 'फ्यूचर' कांट्रैक्ट भी डेरिवेटिव्स हैं। फ्यूचर एवं ऑप्शन के समझौतों के बारे में हम आगे किसी पीरियड में विस्तार से चर्चा करेंगे।
डिविडेन्ड- कंपनियां अपना मुनाफा शेयर होल्डरों के साथ लाभांश के रूप में बांटती हैं। कंपनियों से हासिल लाभांश को म्युचुअल फंड भी अपने यूनिट धारकों में सामूहिक रूप से बांटते हैं जो कंपनियों के प्रदर्शन के आधार पर तय होता है।
एन्डोर्समेन्ट- भुगतान प्रक्रिया में 'पे टु दि आर्डर ऑफ' (के आदेशानुसार भुगतान करें) के साथ संबंधित का नाम लिख कर अंतरण संभव बनाया जाता है। मूल कागज में लिखने की पर्याप्त जगह न होने की सूरत में इसे अलग कागज पर लिखकर मूल नोट से स्थायी तौर पर चिपका दिया जाता है जिसे एलांज कहते हैं। अगले पीरियड में कुछ और शब्दों पर बात करने तक के लिए नमस्कार।
म्युचुअल फंड डिक्शनरी
बाईसवां पीरियड
आइए इस पीरियड में जानते हैं म्युचुअल फंडों की दुनिया से जुडे कुछ बहुप्रचलित शब्दों के बारे में।
एडवाईजर- आपके फंड संबंधी निवेश पर पेशेवर मार्गदर्शन देने वाला आपका वित्तीय सलाहकार, जो पोर्टफोलियो परिसंपत्तियों का निरीक्षण भी करता है।
अमार्टाइजे्शन- किसी एक लिए गए कर्ज के पुनर्भुगतान की समान मासिक किस्तों की पद्धति, जो मासिक, त्रैमासिक या किसी अन्य आवृत्ति के आधार पर चुकता की जाती हैं।
एप्रीसिएशन- आपके निवेश का मूल्य बढ़ जाना, जैसे आपके निवेशित 10 हजार रूपए एक साल बाद अगर 11 हजार हो गए, तो यह 10 फीसदी एप्रीसिएशन हुआ।
आर्बिट्रेज- शेयरों को अलग-अलग बाजारों में उनके बीच आपसी मूल्य अंतर के आधार पर खरीद-फरोख्त करके तत्काल पैसा बनाना। कई फंड भी ऐसे तरीकों से पैसा कमाते हैं।
असेट्स- जायदाद, नकदी, शेयर, यूनिटें, बैंक-जमा, बहुमूल्य धातुएं आदि सब व्यक्तिगत परिसम्पत्तियां हैं, जिनका अपना बाजार मूल्य होता है और जिन्हें बेचा-खरीदा जा सकता है।
असेट-अलोकेशन- यह अपने पैसे को कई प्रकार के अलग-अलग निवेशों, जैसे जायदाद, बांड, सोना-चांदी, शेयर आदि में निवेश करके किया जाता है जो आपकी कुल सम्पत्ति को अलग-अलग वर्गों में विभाजित कर देता है।
ऑफरिंग-प्राईस- वह कीमत, जिस पर किसी फंड की यूनिट खरीदी जा सकती है। जैसे किसी फंड की 10 रूपए वाली 1000 यूनिट खरीदने पर 1.5 फीसदी का एंट्री लोड देना पडता है, तो प्रति यूनिट ऑफरिंग प्राईस 10.15 रूपए होगी। एंट्री लोड न होने की दशा में चालू एनएवी का भाव ही ऑफरिंग प्राइस माना जाएगा।
असेट-अलोकेशन फंड- यह विविध विस्तृत प्रकार के निवेशों को अपने पोर्टफोलियो में समेटने वाला फंड होता है जो घरेलू व विदेशी शेयरों, बाँडों, सरकारी प्रतिभूतियों, स्वर्ण मुद्राओं और प्रापर्टी शेयरों में पैसा लगाता है। यह छोटे निवेशकों को सर्वाधिक विविधीकरण का लाभ देता है। ऐसे कुछ फंड विभिन्न प्रकार के निवेशों के बीच एक निश्चित अनुपात को बनाए रखते हैं जबकि कुछ बाजार परिस्थितियों के अनुसार अनुपात घटाते-बढाते रहते हैं।
ऑटोमेटिक-री-इन्वेस्टमेन्ट- ज्यादातर फंड यह सुविधा देते हैं। इसके तहत निवेशकों को मिलने वाली पूंजीगत आय, लाभांश आदि का भुगतान निवेशकों को करने के बजाय उस पैसे का पुनर्निवेश करके उसी अनुपात में निवेशकों को आवंटित यूनिटों की तादाद बढा दी जाती है जिससे निवेशकों को लंबी अवधि में चक्रवृद्धि ब्याज का शानदार लाभ मिलता है।
एनुअलाइज्ड रिटर्न- सारे लाभांशों व पूंजीगत आय का पुनर्निवेश करते हुए, किसी फंड की एक साल की निश्चित अवधि के अंतर्गत संचयी कुल लाभों की गणना, जो फंड के सालाना प्रदर्शन को दिखलाती है।
बैलेंस-शीट- किसी कंपनी की परिसंपत्तियों, दायित्वों, शेयरधारकों की भागीदारी आदि की प्रकृति व मात्रा दिखाने वाला हानि-लाभ का लेखा-जोखा, जो सभी कंपनियों द्वारा तिमाही, छमाही व सालाना जारी किया जाता है।
बैलेंस्ड फंड- साधारणतया अपनी कुल संपत्ति का 60 फीसदी शेयरों व 40 फीसदी बाँड्स में निवेश करने वाला संतुलित फंड।
बार्टर- बिना मुद्रा के वस्तुओं या सेवाओं की अदला-बदली की विनिमय प्रणाली, जो प्राचीनकाल में प्रचलित थी। भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में यह आज भी कहीं-कहीं कुछ हद तक देखा जा सकता है।
बेसिस पाइंट- विभिन्न बांडों पर होने वाली कमाई का आपसी अंतर दिखाने वाला एक फीसदी का सौवां भाग। जैसे एक बांड 6.15 फीसदी और दूसरा 6.18 फीसदी प्रगति करता है, तो दोनों के बीच तीन आधारीय अंक (बेसिस पाइंट) का अन्तर होगा।
बिड या सेल प्राईस- वह कीमत, जिस पर फंड अपने शेयरों को निवेशकों से वापस खरीदता है।
ब्लू-चिप- शेयर-बाजारों में सर्वोच्च श्रेणी की बडी, प्रतिष्ठित, सुरक्षित कंपनियों में फंड का निवेश। बडी भुगतान पूंजी, लाभांश देने का बढिया रिकार्ड, दक्ष प्रबंधन और विकास का अच्छा इतिहास ही किसी कंपनी को ब्लू-चिप की श्रेणी में लाता है। अगले पीरियड में कुछ और शब्दों पर बात करने तक के लिए नमस्कार।
विविधीकरण घटाता है जोखिम
सत्रहवां पीरियड
विविधीकरण या विशाखन (डाइवर्सिफिकेशन) एक बहुउपयोगी, बहुप्रचलित टूल है, जिसे तमाम तरीकों से प्रयोग में लाया जाता है। एक अच्छा विविधीकृत पोर्टफोलियो , बाजार की अनिश्चितकालीन अस्थिरता के खिलाफ मजबूत कवच का काम करता है। यह दीर्घकाल में जोखिम घटाकर आपके वास्तविक लाभ को सुनिश्चित करता है।
विविधीकरण को पहले जोखिम के संदर्भ में समझना जरूरी है। जोखिम दो प्रकार के होते हैं-एक तो प्रणालीगत जोखिम यानी सिस्टेमेटिक रिस्क। ये मैक्रो-इकोनॉमिक कारणों पर आधारित होते हैं। भूकम्प, बाढ, सूखा, युद्ध, दंगाफसाद इत्यादि। ये वे रिस्क हैं, जिन पर न बाजार का कोई नियंत्रण होता है, न ही हो सकता है। भारत के शेयर बाजारों पर चूंकि भारतीय कृषि उत्पादन के घटने-बढ़ने का खासा असर पड़ता है और प्रमुख प्राकृतिक आपदाएं खेती को सर्वाधिक प्रभावित करती हैं, इसलिए इससे जुडे सिस्टेमेटिक रिस्क कंपनियों के कारोबार और शेयरों की चाल पर स्पष्ट प्रभाव डालते हैं। इन जोखिमों को विविधीकरण के जरिए कम या समाप्त नहीं किया जा सकता।
दूसरे होते हैं अनसिस्टेमेटिक रिस्क, जो प्रत्येक परिसंपत्तियों (शेयर, जायदाद, बांड आदि) के साथ अलग-अलग रूप में जुडे़ रहते हैं यानी एक के अनसिस्टेमेटिक रिस्क दूसरे पर भी समान रूप से लागू नहीं होते। इन्हीं जोखिमों को विविधीकरण के जरिए घटाया जाता है। कैसे घटाया जाता है, इसे जानने के लिए अपने पोर्टफोलियो की विभिन्न परिसंपत्तियों के आपसी संबंधों पर गौर फरमाइए। अगर दो अलग किस्म की परिसंपत्तियों को एक जैसा वातावरण और समान अवधि विकसित होने के लिए दी जाए और उनका विकास एक ही दिशा में समान गति से होता दिखे, तो इसका मतलब उन दोनों संपत्तियों के बीच सकारात्मक संबंध है।
विविधीकरण के लिए उदासीन या नकारात्मक संबंधों को आधार बनाया जाता है। यानी कि अगर आपने पांच शेयरों का पोर्टफोलियो बनाया, जिसमें टाटा पॉवर, रिलायंस पॉवर, लैंको इंफ्रा, एस्सार और आरईसी को शामिल कर लिया, तो इसे विविधीकरण नहीं कहेंगे, क्योंकि चूंकि इन सभी कंपनियों का मुख्य कार्यक्षेत्र एक ही है, इसलिए अर्थव्यवस्था के परिवर्तनों का सभी पर समान असर पडने के ज्यादा चांस रहेंगे। नकारात्मक संबंध का हालिया उदाहरण शेयर बाजारों की गिरावट के साथ सोने की ऊंची होती छलांग के तौर पर देखा जा सकता है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों की छोटी-बडी़ कंपनियों के बीच ऊपर से उदासीन नजर आने वाला संबंध कई मायनों में सकारात्मक होता है, इसीलिए बाजार का रूख अच्छा या बुरा रहने के दौर में विभिन्न सेक्टरों की अधिकांश कंपनियों के शेयरों की चाल बाजार की दिशा में ही होती है।
विविधीकरण के मुख्य लोकप्रिय आधार
परिसंपत्तियाँ सेक्टरवाइज निवेश (शेयर व फंड दोनों में)
बैंक/डाकघर जमा योजनाएं बैंकिंग कंपनियां
बीमा (एन्डाउमेन्ट/मनीबैक) ऑटो कंपनियां
बांड रियल्टी (प्रापर्टी) कंपनियां
कमोडिटी गैर टिकाऊ उपभोक्ता सामान कंपनियां
(एफएमसीजी)
शेयर ऊर्जा कंपनियां (तेल, गैस कोयला आदि)
फंड यूनिटें सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां (आईटी)
उपरोक्त के अलावा अन्य भी उपरोक्त के अलावा अन्य भी
विविधीकरण के आधार
कंपनियों का आकार (शेयर) निवेश की अवधि
नामी बडी़ कंपनियां (ब्लू चिप) दीर्घ अवधि निवेश (पांच से आठ साल तक)
अन्य बडी़ कंपनियां (लार्ज कैप) मध्यम अवधि निवेश (तीन से पांच साल तक)
मझोली कंपनियाँ (मिड कैप) लघु अवधि निवेश (एक साल तक)
छोटी कंपनियां (स्मॉल कैप) अनिश्चितकालीन निवेश (अचानक कीमत बढ़ने पर बेचने के लिए)
(यह केवल अनुमानों पर आधारित होता है)
ऊपर दिए गएतरीकों के अलावा विविधीकरण के और भी अनेकों बारीक तरीके होते हैं, जिन पर सयाने निवेशक अमल करके लाभ कमाते हैं। विविधीकरण के बारे में आगे और भी बात करने के लिए हम आगामी पीरियडों में मिलेंगे, तब तक आपको नमस्कार।
निवेश जुआ नहीं है
चौदहवां पीरियड
अधिक जनसंख्या और तंबाकू खपत के अलावा भारत एक और मामले में केवल चीन से आगे और बाकी सबसे पीछे है। वह चीज है सट्टेबाजी। स्टॉक मार्केट भी प्राय: जुए से जोड़कर देखे जाते हैं। शेयर बाजार को बहुत लोग सट्टा बाजार और इसमें धन लगाने वालों को सटोरिए मानते हैं। लोगों को उनके बाप-दादे, शेयर-बाजार से सचेत रहने, दूर रहने की नसीहतें देते देखे जाते हैं। शायद इसीलिए अभी भारत में तीन फीसदी से भी कम लोग ऐसे हैं, जो किसी कंपनी के शेयर रखते हैं। इनमें भी महाराष्ट्र और गुजरात एवं कुछ दक्षिणी राज्यों की तुलना में मध्य और उत्तरी भारत के लोगों का प्रतिशत बहुत ही कम है।
सट्टेबाज तो घुडदौड` या क्रिकेट-फुटबॉल आदि के मैच पर भी दांव लगाते हैं, जबकि वैसे ये केवल खेल हैं, मनोरंजन के लिए। पर जब इसमें पैसों का दांव लग जाता है, तो इसके साथ जुड़ जाता है जोखिम। शेयर-बाजार में कीमतों का उतार-चढा़व, लोगों में घबराहट पैदा करता है। ऐसे में अपनी पूंजी खोने का डर उनके कदम वापस खींच लेता है। लेकिन कीमतों की अस्थिरता में ही तो कमाई के अवसर छिपे हैं। बाजार के ऊपर जाने पर बेचकर और नीचे आने पर खरीद कर कमाई की जाती है लेकिन प्राय: लोग करते क्या हैं? जब सूचकांक लगातार ऊपर जा रहा होता है, तो वे भीड़ मानसिकता की देखादेखी अनाप-शनाप खरीदी करते हैं।
आलोक पुराणिक का बयान है कि कीमतों का सूरज ऊपर चढ़ने पर खरीदार यूं उत्साहित होते हैं जैसे अब कभी रात होगी ही नहीं, और बाजार गिरने पर ऐसा निराश होते हैं, जैसे अब सवेरा ही नहीं होगा। लेकिन यहां रात भी होती है और सवेरा भी आ ही जाता है। एक पश्चिमी लेखक ने स्टॉक-मार्केट को सुपर-बाजार सरीखा बताया है, जहां निवेशक उल्टा व्यवहार करते हैं। यानी जब छूट की सेल लगती है और अच्छे-अच्छे शेयर डिस्काउंट पर मिलने लगते हैं तो निवेशक दूर भागते हैं और तेजी होने पर खरीदने के लिए मारामारी मचाते हैं। जाहिर है, तेजी में खरीदेंगे, तो मंदीमें घबराकर बेचेंगे भी। एक प्रसिद्ध निवेशक ने कहा है कि बाजार में आप बेचकर नहीं, खरीदने पर कमाते हैं। यानी किस कीमत पर क्या खरीद रहे हैं, यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। तेज खरीदकर आपाधापी में मंदा बेचकर बाजार से तौबा करने वालों की निगाह में ही यह जुआघर है, जो अपने हाथ जलाकर औरों को इससे दूर रहने की सलाह देते फिरते हैं।
आपरेटरों की गतिविधियों और कीमतों की अस्थिरता की वजह से इस बाजार के बारे में कोई सटीक भविष्यवाणी नहीं हो सकती। लेकिन अवांछित तत्व और भविष्यवाणियों के सही-गलत तुक्के तो आपको हर जगह मिलेंगे। जोखिम को सही परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी है। खाली पूँजी अपने सन्दूक में बंद रखिए, चोरी का, गल जाने का जोखिम वहाँ भी है। घर में रखें या बैंक में, मुद्रास्फीति का भयानक जोखिम तो है ही। हेलमेट बिना दोपहिया और सीट-बेल्ट बिना कार आपने कभी चलाई होगी, तो उस वक्त सबसे बडे जोखिम, अपनी जान के जोखिम के बारे में नहीं सोचा होगा। लेकिन यहां आप पहले एक-एक जोखिम को खोलकर, स्पष्ट समझते हैं, उसका समुचित प्रबंधन करते हैं, तब सही निवेश रणनीति बनाकर लाभ कमाते हैं।
अपना कार्यक्षेत्र, तरीका और सोच निर्धारित कर उसे कठोरता से अमल में लाएं तो तमाम जोखिमों से बच जाते हैं। ए तथा बी-1 समूह की उच्च तरलता वाली, बडी और मजबूत, अच्छी चलती कंपनियों में ही निवेश से शुरूआत करें, यहां पंटर कीमतों से ज्यादा छेडछाड नहीं कर पाते। हर भयानक तेजी में एकाएक तमाम ऐसी छुटपुट कंपनियां और उनको बढा़वा देने वाले लोग प्रकट होते हैं जो एक झटके में निवेशकों को मालामाल करने लगते हैं। बाजार का बुखार उतरने पर निवेशक पाता है कि कंपनी डिलिस्टेड हो गई है, कंपनी मुख्यालय खोजा नहीं जा पा रहा, तरलता शून्य है और उसके पास बचे शेयरों का कोई कौडी के भाव भी लिवाल नहीं है। यही जुआ है, अप्रत्याशित लाभ की आशा में अतार्किक फैसले करना, और बाद में अपने अलावा सबको कोसते हुए पछताना।
जुआ क्या है? एक ऐसी संभावना, जिसका तर्क नहीं होता। केवल संयोग। कोई भी ताश किसी के पास जा सकता है। कोई पासा किसी भी करवट गिर सकता है। आजाद घूमती चरखी, किसी भी नम्बर पर रूक सकती है। वहाँ घाटे-मुनाफे का कोई आधार नहीं। जीतने वाला हमेशा अपनी किस्मत पर इठलायेगा और हारने पर अपनी बदनसीबी को कोसेगा।
निवेश क्या है? लाभ की ऐसी संभावना, जिसके मजबूत आधार होते हैं। आपने ठोंक-बजाकर, अच्छी चलती कंपनी पकडी, उसके मंदी के दौर में, तो आगे सम्भावित अच्छा समय आने पर उसका कारोबार भी बढेगा और आपका शेयर भी। कंपनी की प्रगति इंसानी दिमागी क्षमता, कठोर परिश्रम, लगन और धैर्य की देन होती है, संयोग की नहीं। इस कठोर परिश्रम और सब्र के अच्छे नतीजे देर-सवेर आते ही आते हैं। यह किस्मत का नहीं, समझ, तर्क और सम्भावनाओं को पहचान कर व्यवहार करने का खेल है, जो आपका वफादार कमाऊ साथी बनकर आपकी आर्थिक जिम्मेदारियों के बोझ को बांट लेता है। आपको चिंतामुक्त और प्रसन्न करता है। अगले पीरियड में हम विचार करेंगे कि बाजार में सीधे निवेश या म्युचुअल फंड के जरिए निवेश में कौन सा तरीका नए निवेशक के लिए बेहतर है। तब तक के लिए नमस्कार।
ब्रोकर और आप-2
तेरहवां पीरियड
टिप पर आधारित निवेश में जोखिम सर्वाधिक है। कीमतों से छेड-छाड करने वाले तिकडमी लोग टिप्स उछालते हैं। शेयर कीमतों में उछाल देखने पर निवेशक टिप को भरोसेमंद मान बैठते हैं और टिप के पीछे दौड़ पड़ते हैं। ब्रोकर भी टिप जारी करता है लेकिन दी गई टिप को उसके अपने हितों के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। ब्रोकर हर राय के साथ यह घोषणा जरूर जारी करता है कि इससे उसका कोई निजी निवेश या दूसरा हित नहीं जुडा हुआ है। यह मात्र औपचारिकता है।
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने समय-समय पर निवेशकों के हित सुरक्षित करने के लिए तमाम नियम-कायदे लागू किए हैं। जिस ब्रोकर को आप चुनना चाहते हैं, उसके बारे में सेबी और शेयर बाजारों की अपनी वेबसाईटों से जानकारी जरूर कर लें। संबंधित ब्रोकर के खिलाफ हुई किसी कार्रवाई, किसी चेतावनी, किसी गैरमामूली टिप्पणी आदि का संज्ञान जरूर लें। सेबी और शेयर बाजार की जिम्मेदारी है कि वे समय-समय पर ब्रोकरों का परीक्षण करें, कि वे निवेशकों को निर्धारित मानक के न्यूनतम स्तर के मुताबिक सुविधाएं मुहैया करा रहे हैं, अथवा नहीँ।
अच्छी सलाह के अलावा, सहज कारोबार के लिए अपने ग्राहकों को एक भरोसेमंद प्लेटफार्म मुहैया कराना भी ब्रोकर की जिम्मेदारी है। शेयर-बाजारों, डिपॉजिटरी कंपनियों, ब्रोकर के मुख्यालय और आपकी लोकेशन के दरम्यान तेज गति वाली इलेक्ट्रॉनिक संचार व्यवस्था, कंप्यूटर सिस्टम्स और नेटवर्किंग प्रणालियां, सूचना-तकनीकी की उच्च गुणवत्तायुक्त व्यवस्था, सहज और तीव्र लेन-देन के लिए जरूरी है। इसमें जरा भी गडबडी, लोगों के लिए भारी नुकसान का कारण बनती है। बैंक से लेन-देन संबंधी सुचारू कनेक्टिविटी, ब्रोकर के बैक-ऑफिस से 24 घंटे सातों दिन इंटरनेट सुविधा, व्यापार सूचनाओं, सौदा-निबटान, कन्फर्मेशन, निवेश पर घाटा और मुनाफा, वित्तीय स्टेटमेन्ट और डिपॉजिटरी होल्डिंग संबंधी सूचनाओं के समय पर सटीकता के साथ मिलने की व्यवस्था, आदि ऐसी चीजें हैं, जिनमें अधूरापन आपके और लक्ष्यों के बीच बाधा की तरह काम करेगा। लिहाजा ब्रोकर ऐसा हो, जिसके द्वारा स्थापित किए गए सूचना तंत्र में किसी ग्राहक को कोई शिकायत न होती हो।
पढ़ें: ब्रोकर और आप-1
कुछ लोग ब्रोकरों के द्वारा ली जाने वाली ब्रोकरेज उर्फ कमीशन के रेट पर ज्यादा ध्यान देते हैं। याद रखिए, यहां कोई चैरिटी करने के लिए नहीं बैठा हुआ। अच्छे ब्रोकरों के रेट आपस में प्रतिस्पर्धी होने के बावजूद उनका अपना एक लेवल होता है। औसत निवेशक के लिए ब्रोकर की फीस, उसके कुल निवेश का बहुत मामूली हिस्सा होती है, लेकिन इस पर पूरे निवेश की सुरक्षा और कई मायनों में सफलता निर्भर रहती है। आप जितनी जल्दी-जल्दी खरीद-फरोख्त करेंगे, आपसे हर अन्तरण पर ब्रोकर उतना ही ज्यादा कमीशन कमाएगा। कम रेट वाला ब्रोकर ढूंढ रहे हैं, तो उसके द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं के स्तर पर गौर जरूर फरमा लें। उसके बुनियादी ढांचे को बारीकी से देख लें और पुराने ग्राहकों में कोई विशेष परिचित हो, तो उसके अनुभव जरूर ले लें।
एक सोच यह है कि जिन आर्थिक संस्थाओं में आप कारोबार करते हैं (शेयर बाजार या कमोडिटी एक्सचेंज) और जिन संस्थाओं पर निगरानी का जिम्मा है (सेबी) उनके नजदीक हम नहीं, बल्कि हमारा ब्रोकर होता है। हम तो बहुत दूर हैं, और शेयर-बाजारों एवं अन्य प्रमुख संस्थाओं की नस-नस से वाकिफ ब्रोकर से हम कैसे पार पा सकते हैं। यहां ध्यान यह रखना चाहिए कि ठोंक-पीट कर ब्रोकर चुनने और बाद में भी उस पर अंधविश्वास करने के बजाय, अपने विवेक से काम करने का मतलब यह नहीं, कि ब्रोकर से आपका कोई मुकाबला है। ब्रोकर ही नहीं, कोई भी व्यक्ति किसी को भी धोखा दे सकता है, अगर वह उसकी लालच की अतिवादी मानसिकता को पहचान ले और उसे उसके लालच के चलते ही धोखा देने की ठान ले। कॉमन-सेंस बडी चीज है। एक्स्ट्रा समझदारी भी यहाँ काम नहीं आती। बस, आंख-कान खुले रखिए और दिमाग सचेत, इतना ही काफी है।
अगले पीरियड में हम बात करेंगे ऐसे लोगों के बारे में, जो शेयर बाजारों को जुए के अड्डों के सिवा कुछ नहीं समझते। अगर आपने भी कभी ऐसा सोचा हो, तो अगला पीरियड जरूर अटैंड करिएगा, क्योंकि मुनाफे की राहें खोलने से पहले अपनी धारणाओं को सही करना बहुत आवश्यक है। नमस्कार।
ब्रोकर और आप
बारहवां पीरियड
आर्थिक मोर्चे पर जीवन में नीचा देखना पडे, तो इसके लिए आपकी दुविधा जिम्मेदार होती है। अनिश्चित मन से किए गए निर्णय जिम्मेदार होते हैं। दुविधा में आदमी जिंदगी में बडे़-बडे़ दांव लगाता है और कहता है कि जो होगा देखा जाएगा। इस दुविधा से बचे, तो बेडा़ पार है। ब्रोकर न तो आपकी निवेश की नाव का मांझी है, न ही पथप्रदर्शक। जाने-माने आर्थिक विश्लेषक कमल शर्मा कहते हैं, कि ब्रोकर को पॉयलट सीट पर मत बिठाइए। पॉयलट सीट खुद संभालिए। ब्रोकर न आपका दोस्त है, न दुश्मन। आप अपने आर्थिक लक्ष्य पूरे करने में उसकी मदद कितनी ले पाते हैं, यह आपकी योग्यता पर निर्भर है। केतन पारीख या हर्षद मेहता कोई नाम नहीं, उस तिकडमी मानसिकता के भूत-प्रेत हैं, जो लोगों की अनिश्चित और अनाप-शनाप लालच वाली मानसिकता का लाभ उठाते हैं। निवेश नैया उनकी डूबी, जो अपनी पूँजी और प्रतिभूतियों को ब्रोकर के हवाले करके खुद रेस्ट सीट पर लंबी तान कर सो गए।
एक होता है ब्रोकर और एक होता है सब-ब्रोकर। दोनों में फर्क यह है कि सब-ब्रोकर, ब्रोकर का स्थानीय एजेंट मात्र होता है जो सारी कार्यवाही ब्रोकर के बिहाफ पर करता है। जिस तरह शेयर बाजार और आपके बीच ब्रोकर एक मध्यस्थ है, उसी तरह ब्रोकर और आपके बीच सब-ब्रोकर एक पुल है। सब-ब्रोकर अपनी तरफ से कोई नियम-कानून-गारंटी-आश्वासन-शर्त आदि आप पर नहीं लागू करता। किसी भी लेन-देन, भुगतान, शेयर ट्रांसफर आदि की पूरी जिम्मेदारी ब्रोकर की ही होती है, सब-ब्रोकर की नहीं।
अगर कोई गड़बडी़ होती है, तो दावा निबटान के लिए दी गई छह माह की समय-सीमा के बाद आप अदालत की शरण में जा सकते हैं, जो एक थकाऊ और कष्टभरी प्रक्रिया है। शेयर बाजार में दावा निबटान की समय-सीमा चार माह है। ब्रोकर के खाते के अलावा किसी भी अन्य खाते से अगर आपने शेयरों या धन का कोई लेन-देन किया, तो उसका उत्तरदायी ब्रोकर नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए हमेशा आपकी सारी कार्यवाही ब्रोकर के नाम से होनी चाहिए, न कि सब-ब्रोकर या किसी अन्य टाईप के एजेंट के नाम से।
निवेशक प्राय: टिप चाहते हैं, कि कौन सा शेयर कब खरीद लें, कब बेच दें। जैसा कि हमने पिछले एक पीरियड में बात की, कि अब सारे बडे ब्रोकर, कंपनियों के रूप में हैं, जिनके पास हर सेक्टर के स्पेश्लिस्ट शोध-विश्लेषकों की पूरी टीम होती है। देखिए कि ब्रोकर से आपके पास सलाहें किस तरह आती हैं। क्या यह केवल बाजार के रूख की सूचना है, कयास है, अन्दाजा है, अफवाह है, या इसके पीछे सटीक सूचनाओं पर आधारित पुख्ता होमवर्क करके राय तैयार की गई है?
100 में तकरीबन 90-95 सलाहें खरीदने की होती हैं या होल्ड रखने की। बेचने की सलाह बिरली ही होती है। इसलिए बेचने का फैसला बहुत बार आपका निजी होता है। प्राय: ब्रोकर यह जान भी नहीं पाता, कि उसकी ओर से आपको जो एसएमएस पर राय या इंटरनेट या डाक से रिपोर्ट मिली, उस पर आपने अमल किया भी या नहीं? अगर ब्रोकर को ही आपने अपना पोर्टफोलियो प्रबंधक भी बना रखा है, तब जिम्मेदारियां जुदा होती हैं। सेबी द्वारा निर्धारित सीमा के अनुसार पोर्टफोलियो मैनेजर, पांच लाख से बडे़ पोर्टफोलियो को ही मैनेज करते हैं और इस सेवा के लिए अलग से धनराशि लेते हैं। अब यह उनका दायित्व हो जाता है कि वे आपको पोर्टफोलियो को ऐसा मैनेज करें, कि वह बढ़ता जाए, बढ़ता जाए। लेकिन कई बार पोर्टफोलियो मैनेजर, अपने ग्राहकों को अंधेरे में रखकर उनके शेयरों की खरीद-फरोख्त करते देखे गए हैं।
ब्रोकर से मिलने वाली खरीद-फरोख्त की सलाहें, चाहे वे मुफ्त में मिलें, या इसके लिए आपसे पैसे लिए जाएं, सबके साथ डिस्क्लेमर जुडे होते हैं, कि सलाह पर अमल करने पर संभावित नुकसान के लिए आप किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। दरअसल, आपको, आपके सैट-अप को, आपकी जोखिम-क्षमता, लक्ष्य औप सपनों को आपसे बेहतर कोई नहीं समझता। ब्रोकर की सलाह सामूहिक होती है, आप देखें कि वह आपको सूट करेगी या नहीं? आप कितना पैसा एक, दो या पांच साल के लिए लगाना चाहते हैं, किस सेक्टर में कितना एक्सपोजर और उसके अनुपात में किस फंड के कितने यूनिट अपने पोर्टफोलियो में रखते हुए कितना पैसा उच्च-जोखिम,उच्च-लाभ वाले शेयरों में लगाना चाहते हैं यह सब खुद तय करें।
ऐसी मानसिकता रखने के बाद ब्रोकर चुनने निकलिए, कभी धोखा नहीं होगा। अपनी और ब्रोकर की सीमाएं जानकर आप मैदान में उतरेंगे, तो ब्रोकर या उसके नाम पर कोई आदमी आपको थोथे वादों या सब्जबागों से बहला नहीं सकेगा। अगले पीरियड में हम ब्रोकर के बाते में कुछ और बात करने के लिए मिलेंगे। तब तक के लिए नमस्कार।
शेयरों में निवेशक बनें, जुआरी नहीं
ग्यारहवां पीरियड
एक जमाना था, जब शेयर कागजों पर छप कर आते थे, और डाक के जरिए निवेशकों को प्राप्त होते थे। इन शेयर सर्टिफिकेटों को निवेशक तहा कर, सम्हाल कर संदूक में रख लेता था। बेचने-खरीदने की प्रक्रिया काफी समय-खपाऊ और झुंझलाहट देने वाली होती थी। आपने चढे भाव देखकर अपने शेयर बेचने का इरादा किया, और हफ्ता-दस दिन में जब तक बिकने का मुहूर्त बन सका, तब तक पता चला कि भावों के साथ आपके सपने भी औंधे मुंह नीचे आ गिरे। हालांकि बहुत लोगों ने अपने पुराने कागजी शेयरों को डि-मैटिरियलाइज करा लिया है, फिर भी आज भी तमाम लोगों के पास कागजी शेयर मौजूद हैं।
आपका शेयर खाता डी-मैट खाता होता है, जिसमें शेयर डि-मैटिरियलाइज रूप में यानी अभौतिक रूप में मौजूद रहते हैं। यानी इलेक्ट्रानिक रूप में। यानी कागजी कार्यवाही, कागजों को सहेज कर रखने से छुट्टी। यानी आपके शेयर आपके संदूक में नहीं, बल्कि आपके डी-मैट खाते में रहते हैं, जिनको आप पकडकर अपनी जेब में करने के बजाय इलेक्ट्रानिक एंट्री के रूप में कंप्यूटर की स्क्रीन पर और अपने खाते के स्टेटमेन्ट के तौर पर देख सकते हैं। आपके शेयर सम्हाल कर रखने की जिम्मेदारी आपकी या ब्रोकर की नहीं, बल्कि तीसरी पार्टी की होती है, जिसे डिपॉजिटरी कंपनी के नाम से जाना जाता है। भारत की दो बडी डिपॉजिटरी कंपनियाँ हैं- नेशनल सिक्युरिटी डिपॉजिटरी लिमिटेड (एनएसडीएल) और सेन्ट्रल सिक्युरिटी डिपॉजिटरी लिमिटेड (सीएसडीएल)।
डिपॉजिटरी भागीदार (डीपी) और लाभान्वित धारक यानी आप के बीच अलग से एक समझौता साइन किया जाता है। अगर आप किसी ब्रोकर के बजाय उसके सब-ब्रोकर यानी एजेंट के जरिए शुरूआत करते हैं, तो समझौता त्रिपक्षीय होता है। इस समझौते के जरिए आप नकद बाजार में खरीद-फरोख्त कर सकते हैं। अगर आप डेरिवेटिव यानी वायदे पर आधारित भविष्य में सम्पन्न होने वाले सौदों में भी कारोबार करना चाहते हैं, तो अलग से एक एग्रीमेंट लिखा जाता है। यह सारी कागजी कार्यवाही आपके हितों की रक्षा के लिए होती है, इससे ऊबने की जरूरत नहीं, इसको समझकर होशियारी से काम करने की जरूरत है।
कोई जरूरी नहीं, कि आप अपने ब्रोकर के जरिए ही डिपाजिटरी कंपनी चुनें। अगर आप ऑनलाइन कारोबार करना चाहते हैं, तब तो यह बाध्यता है, वरना नहीं। लेकिन ज्यादातर होता यही है, कि फिजूल के झंझट बढाने के बजाय लोग ब्रोकर के जरिए ही डिपाजिटरी कंपनी तक पहुंचते हैं। डिपजिटरी कंपनी आपके खाते को मेनटेन करती है और अलग से आपको एक पासवर्ड देती है, जिसके जरिए आप इंटरनेट पर अपने खाते तक पहुंचकर, अपने खरीदे-बेचे शेयरों की अपने खाते में स्थिति देख सकते हैं।
सारे कागज साइन करके ब्रोकर को आगे की कार्यवाही के लिए सौंपने से पहले जोखिमों के दिए गए विवरण को ध्यान से पढें। यह विवरण कठिन अंग्रेजी में होते हैं, जिनको पढना-समझना बहुत बार नत्थू पनवाडी और रफीक मियाँ सब्जी वाले ही नहीं, अच्छे-अच्छे पढे-लिखों के बस की बात नहीं होती। हम इस पाठशाला के किसी पीरियड में आगे उन सब जोखिमों, नियम और शर्तों आदि को भी खोलकर देखेंगे, जिनके बारे में पूछने पर आपका ब्रोकर या उसकी खूबसूरत सेक्रेटरी, अक्सर बुरा सा मुंह बनाकर मुस्करा देते हैं। ये रिस्क यानी जोखिम, शेयरों की चढती-उतरती कीमतों के कारण आपको होने वाले नफे-घाटे से, कंपनी की तरलता यानी पूंजी सुदृढता, खरीदने या बेचने की वांछित और वास्तविक कीमतों के अंतराल आदि से संबंधित होते हैं।
सारे कागज पूरे करके ब्रोकर के पास जमा करने, ब्रोकर द्वारा आगे खाते संबंधी कार्यवाही करने के बाद आपको एक ग्राहक कोड यानी कूट संख्या दे दी जाती है। ब्रोकर की दुनिया और शेयर बाजार में आपकी पहचान इसी कूट संख्या के जरिए ही होती है। अगर आपका खाता ऑनलाइन है, तो आपको लॉग-इन आई-डी के साथ एक पासवर्ड दिया जाता है। इस पासवर्ड को पहली बार अपने खाते पर लॉग-ऑन करने के बाद आप गोपनीय तरीके से बदल देते हैं और अब नया पासवर्ड केवल आपको मालूम होता है। यह पासवर्ड ब्रोकर या किसी दोस्त या किसी और को नहीं बताया जाना चाहिए, अपनी पत्नी, प्रेमिका या सगे बाप तक को नहीं। पैसे के मामले से संबंधित छोटी-मोटी भूलें जब दुखदायी साबित होना शुरू होती हैं, तब तक ये लाइलाज हो चुकी होती हैं।
ग्राहक कोड मिलने के बाद आप बाजार में दांव खेलने के लिए तैयार हैं.....नहीं, ऐसा सोचना समझदार निवेशक की पहचान नहीं। दांव जुए में चलते हैं, शेयर-बाजार में निवेश किया जाता है और हमारी यह पाठशाला भी निवेशकों के लिए है, न कि जुआरियों के लिए। शुरूआत में आप एक-दो शेयर खरीदें- बेचें। धीरे-धीरे आपको सब मालूम होता जाएगा और आप अपनी भावनाओं और लालच की मानसिकता पर काबू करके बढिया पैसे कमा सकेंगे। अगले पीरियड में हम देखेंगे कि एक अच्छा ब्रोकर कैसा होना चाहिए। तब तक के लिए नमस्कार।
शेयर कारोबार के लिए तीन तरह के खाते जरुरी
दसवां पीरियड
स्टॉक एक्सचेंज यानी बाजार में खरीद-फरोख्त करने के लिए तीन तरह के खातों की जरूरत होती है। एक तो आपका बैंक खाता, जो किसी सीबीएस यानी कोर बैंकिंग सॉल्युशन सुविधा वाली बैंक में होता है। यह सामान्य बचत खाता हो सकता है, जिसको आप निवेश प्रयोजनों के सिवाय दूसरे सामान्य लेन-देन के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं। आज की तारीख में कुछ क्षेत्रीय, सहकारी या छोटे बैंकों को छोडकर सभी बडे, अनुसूचित व निजी बैंक सीबीएस प्रणाली से लैस हैं जिनमें आपका एक या कई खाते पहले से ही होंगे। इनमें से किसी खाते को आप निवेश प्रयोजन के लिए प्रयोग कर सकते हैं या नया भी खुला सकते हैं। प्राय: कायदा पसंद लोग निवेश प्रयोग में आने वाला खाता अलग ही रखते हैं, उस खाते से सामान्य लेन-देन नहीं करते।
दूसरा होता है आपका कारोबारी खाता, जिसे ट्रेडिंग एकाउंट कहते हैं। यह खाता आप अपनी इच्छा से किसी ब्रोकर को चुनकर, उसके यहां खुलवाते हैं। ब्रोकर चुनते समय बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में हम पाठशाला के किसी अन्य पीरियड में अलग से बात करेंगे। ब्रोकर के साथ आपका ट्रेडिंग खाता अगर ऑनलाइन है और बैंक खाता भी ऑनलाइन है तो आपको सहूलियत यह मिलती है, कि आप एक-एक बार में दसियों-पचासों ही नहीं, एक-दो शेयर भी आसानी से खरीद-बेच सकते हैं। ज्यादातर बडे ब्रोकर किसी न किसी बैंक से गठबंधन कर रखते हैं। अगर उसी बैंक में आपका खाता भी है तो मामला और आसान हो जाता है। ब्रोकर अपने बैंक की व अन्य जानकारी अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराता है।
यहां यह जानना दिलचस्प होगा, कि बडे ब्रोकर के बारे में सोचने पर दिमाग में आमतौर पर एक बडे़ कारोबारी व्यक्ति की तस्वीर उभरती है। जबकि आज बडे ब्रोकर, कंपनियों के रूप में तब्दील हो चुके हैं जो अपने प्लेटफार्म पर तमाम तरह के वित्तीय कारोबारों की सुविधा मुहैया कराते हैं। इनकी अपनी वेबसाइट हैं, एक हेडक्वार्टर के साथ विभिन्न शहरों में शाखा कार्यालय और फ्रेंचाइजी हैं, जो सब आपस में आन्तरिक टेलीकम्युनिकेशन नेटवर्क द्वारा जुडते हैं। बैंकिंग-ऑटो-एफएमसीजी-स्टील-सीमेंट आदि कंपनियों का समसामयिक विश्लेषण करने के लिए उनके पास अपने विशेषज्ञ विश्लेषकों की टीम होती है, जो कंपनियों के बही-खातों और गतिविधियों पर अनुसंधान करके अपनी रिपोर्टें समय-समय पर प्रस्तुत करती है। इसके अलावा लगभग सभी ब्रोकर अपने रजिस्टर्ड ग्राहकों के लिए मासिक या साप्ताहिक रिव्यू भी संस्था की पत्रिकाओं में और ऑनलाइन प्रकाशित करते हैं। कई बडी ब्रोकिंग कंपनियाँ शेयर-बाजार में सूचीबद्ध भी हैं, जिनके अपने शेयरों की खरीद-बिक्री होती है।
ब्रोकर के साथ आपका खाता चार जरूरी कागजी कार्यवाहियों के जरिए खुलता है। इसमें एक है अपने ग्राहक को जानिए(केवाईसी) फार्म, जो कि अब शेयरों या फंड यूनिटों की खरीद-फरोख्त करने के लिए अनिवार्य कर दिया गया है। इस फार्म में आपकी सम्पर्क जानकारी और वित्तीय स्थिति का विवरण होता है। इसमें आपकी पहचान का प्रमाण, अता-पता और आयकर स्थायी लेखा संख्या यानी पैन नंबर दर्ज होता है। पहचान के लिए मतदाता पहचानपत्र, पासपोर्ट आदि के साथ कई निर्धारित प्रमाणकों में से एक हो सकता है। पते के लिए राशन-कार्ड, बिजली का ताजा बिल या ऐसे ही अन्य निर्धारित डाक्युमेन्ट में से कोई हो सकता है। आपका फोटो, आपकी बैंक द्वारा प्रमाणित किया हुआ होना चाहिए, इसके लिए आपकी फोटो लगी पासबुक की, प्रमाणित फोटोकापी का इस्तेमाल किया जाता है। सभी फोटोकापी का असली कागजों से मिलान तो सामान्य बात है ही।
दूसरी कार्यवाही के तौर पर नंबर आता है उस समझौता प्रपत्र (एग्रीमेन्ट) का, जो ग्राहक-ब्रोकर के बीच लिखित रूप में होता है। यह दोनों बडे शेयर-बाजारों, बीएसई व एनएसई के लिए अलग-अलग साईन किया जाता है और सेबी द्वारा निर्धारित इसके स्वरूप में ब्रोकर अपनी तरफ से कोई फेरबदल नहीं कर सकता। इसके अलावा दूसरी जरूरी कार्यवाहियों पर बात करने के लिए अगले पीरियड में हमारे आपके मिलने तक नमस्कार।
होमवर्क बनाता है शेयर बाजार का खिलाड़ी
नौवां पीरियड
पिछले पीरियड में बाजार की साख और सूचकांकों के अंदाज पर बात करने के बाद अब समय आ गया है कि हम निवेश की शुरूआती तैयारी पर बात करें। अगर आप अपनी गाढी कमाई पर बढि़या रिटर्न पाना चाहते हैं तो एक बात गांठ बांध लीजिए, कि शेयर बाजार को आप उपेक्षित नहीं कर सकते। सरकार की नीयत दिन-ब-दिन आपकी कमाई पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स वसूलने की होती जा रही है। मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए सरकार जो मौद्रिक नीति अपना रही हैं वह आपकी बचत, निवेश और रिटर्न की विरोधी है। सरकार के सहारे रहकर आप महंगाई से नहीं लड सकते। महंगाई कितनी ही बढ जाए, सरकार अपने अफसरों-मंत्रियों को गाडियां, एसी और विभिन्न मदों में मोटी रकम उपलब्ध कराती रहेगी और नए पे-कमीशन के जरिए बेगुनाहों की कमीज भी उतरवाने की कोशिश की जाती रहेंगी। महंगाई आपकी गाढी कमाई को निगलती है। यह दोहराना जरूरी है कि शेयर-बाजार किसी भी दूसरे निवेश की तुलना में ज्यादा रिटर्न देते हैं। कैसे देते हैं, यह सीखने की बात है।
सबसे पहले तो, पढने और समझने की आदत डालिए। इस समय, जैसे आप इसे पढ रहे हैं, वैसे ही दूसरी चीजें भी पढिए। जैसे कि पिंक कागज वाले आर्थिक अखबारों के पन्ने, अगर वे ज्यादा बोरिंग लगें, तो सामान्य अखबार के अर्थ पेज पर नजर डाल सकते हैं। रोज सभी अखबारों में एक कारोबारी पन्ने के साथ कभी-कभी विशेष परिशिष्ट भी प्रकाशित होते हैं। इसको देखें। सुनी-सुनाई बातों से पढी-लिखी बातों को ज्यादा तवज्जो दें। आमतौर पर लिखित में गलत सलाह देने की हिम्मत कोई नहीं करता। बिजनेस चैनल या दूसरे चैनलों पर आने वाले आर्थिक समाचार और विश्लेषण भी आपको इस दुनिया से परिचित कराते हैं।
सैकडों कंपनियाँ आपकी दुनिया से जुडी हैं। किसी का एसी लगाते हैं, किसी का वाहन आप इस्तेमाल करते हैं। किसी के सीमेंट-स्टील से घर बनाते हैं किसी की गैस पर खाना बनाते-खाते हैं। ऐसी दो-तीन खूब परिचित कंपनियों को छांटिए और उनकी गतिविधियों की जानकारी लीजिए। उनके नए प्रोजेक्ट, उनके लाभ-हानि और उनके शेयर की चाल को देखिए। अंदाजा लगाएं कि कंपनी आगे बढि़या तरक्की करेगी या घाटे में जाएगी। रोजाना 10-20 मिनट खर्च करके एक डायरी पर इसके बारे में लिखिए। इनके शेयर की चालू कीमत लिखिए और सोचिए कि कल या परसों या एक हफ्ते-महीने के बाद इसका भाव क्या होगा? जो भी ऊंचा-नीचा भाव समझ में आए उसे भविष्य की तारीखों के साथ नोट कर लीजिए। ऐसा करते समय पीछे के उपलब्ध भावों के आधार पर आइडिया लिया जा सकता है।
यह भी देखा जाना चाहिए कि कभी अगर यह एकदम से गिरा या उठा तो ऐसा किस कारण से हुआ? भविष्य के भाव के जो अनुमान आपने लगाए, इंतजार करने के बाद उनके उस समय आने वाले असली भावों से अपने अनुमानित भावों का मिलान करिए और फर्क देखिए। हो सकता है कि फर्क बहुत ज्यादा हो। ऐसे में आपको निराश नहीं होना है। हो सकता है कि अंदाज बिल्कुल सटीक निकलें। जैसे कि आपने अमुक शेयर के छह माह में 7 फीसदी चढ़ने की भविष्यवाणी नोट की हो, और वह वाकई छह माह बाद आपको 7.2 फीसदी चढा़ नजर आए। ऐसे में ज्यादा खुश मत होइए। कोई सटीक अंदाजा यह सिद्द नहीं करता, कि आप बहुत बडे़ उस्ताद हो गए हैं, बल्कि यह इत्तफाक भी हो सकता है।
चार-छह माह तक यही करने पर आपका एक हैरत भरे बदलाव से सामना होगा। आप अहसास करेंगे कि बोरिंग लगने वाली ये चीजें आपको एकाएक ही बहुत दिलचस्प लगने लगी हैं। आपको मजा आने लगेगा। ध्यान रखिए कि इस दौरान आपको हकीकत में एक पैसा भी नहीं लगाना है। सिर्फ अपनी डायरी पर खरीदारी करके होने वाले कागजी घाटे या मुनाफे की लिखा-पढी करनी है। अब आप अपनी समीक्षा करेंगे, कि आपको कागजी ही सही, घाटा हुआ तो क्यों हुआ और अगर मुनाफा हुआ तो कैसे? इस दौरान जिन दो-तीन कंपनियों में आपने झूठ-मूठ पैसा लगाया होगा़ उनके बारे में और जानकारी भी जुटाते रहे होंगे।
मुंबई शेयर बाजार की आधिकारिक वेबसाइट, कंपनियों के बारे में जरूरी जानकारी देती है। तमाम अंग्रेजी के फाइनांशियल पोर्टल हैं और ढेरों ब्रोकिंग कंपनियों की लगातार रिपोर्टें आती रहती हैं, कि फलां कंपनी के शेयर खरीदिए, ढिकाँ शेयर होल्ड रखिए और अमुक को बेच डालिए। अब हिदी में भी बढिया-बढिया आर्थिक अखबार छपने लगे हैं, जो वेब पर भी उपलब्ध हैं। इसके अलावा, बाजार में सूचीबद्ध ज्यादातर कंपनियों की अपनी वेबसाइटें भी हैं, जिन पर निवेशकों के लिए जरूरी जानकारी दी जाती है। जानकारी हासिल करते समय स्त्रोत की विश्वसनीयता के प्रति सचेत रहना बहुत जरूरी है।
मानसिक तैयारी और रूचि का स्तर पूरा होने तक सब्र करने के आगे बहुत अच्छे फल मिलते हैं। शेयरबाजार में जल्दबाजी करने पर प्राय: नुकसान देखा गया है। अब असली निवेश की शुरूआत के लिए जरूरी खातों और दूसरी कार्यवाही के बारे में जानिएगा अगले पीरियड में, तब तक के लिए नमस्कार....
क्या बिल्कुल आदर्श निवेश संभव है ?
पांचवां पीरियड
पिछले पीरियड में निवेश की बुनियाद पर बात करने के बाद अब इस पीरियड में हम इस बात पर विचार करेंगे, कि क्या वाकई एक परफेक्ट निवेश संभव है, जो सभी पैमानों पर बिल्कुल खरा हो, आदर्श हो ? परफेक्ट निवेश के बारे में सोचने से पहले ध्यान में रखिए कि हर तरह के निवेश के अपने फीचर्स यानी अलग तरह की खासियतें होती हैं। परफेक्ट निवेश क्या है ? इससे पहले जानिए कि परफेक्ट निवेश कैसा होना चाहिये ? कुछ पैमाने हैं, मानक हैं, जो निवेश को आदर्श या उपेक्षा योग्य बनाते हैं।
पहली खूबी- सम्पूर्ण सुरक्षा। आपकी असली पूंजी सुरक्षित रहनी चाहिए और चाहे जो भी हो। एफ डी, सभी तरह के सरकारी बांड और दूसरे ऐसे फिक्स निवेश यह सहूलियत देते हैं, लेकिन वहां आपको अच्छे रिटर्न न मिल पाने से समझौता करना पडता है। समझौता इस मामले में भी कि अक्सर ये रिटर्न मुद्रास्फीति की दर से कम होते हैं, इसलिए इनको वास्तविक रिटर्न नहीं माना जा सकता। रिटर्न का मतलब है कि आपको मिलने वाला लाभ, मुद्रास्फीति की चालू दर से कम से कम 5 से 10 फीसदी ज्यादा हो, तभी वह हमारे लिए सही मायनों में धन बढा़ने वाला हो सकता है। निवेश के दूसरे सारे खर्चे और टैक्स वगैरह की भरपाई इसके अलावा होनी चाहिए। इस तरह कुल रिटर्न कम से कम 15 फीसदी के आसपास तो होना ही मांगता। प्रापर्टी, शेयर, इक्विटी आधारित म्युचुअल फंड आदि ऐसे रिटर्न देते हैं लेकिन वहां पूंजी की गारंटीशुदा सुरक्षा न होने के मसले पर समझौता करना पडता है।
दूसरी खूबी-उच्च तरलता। बिना किसी पेनाल्टी दंड के, किसी भी समय आप जरूरत पडने पर अपना पैसा खाली कर सकें, निवेश ऐसा होना चाहिए। बैंक एफ डी, पीपीएफ, बांड एवं बीमा पॉलिसियां इस पैमाने पर खरी नहीं हैं। एफ डी आदि बेमौके तुडानी पड जाए, तो मिलने वाला ब्याज चिडिया के चुग्गे भर भी नहीं रह जाता। और बीमा, खासतौर से एलआईसी की तो कहानी ही जुदा है। अपना कमीशन बनाने को आतुर एजेंटों के कहने में आकर बीमा लेने वालों की एक ऐसी भारी तादाद है, जिनकी कालातीत पॉलिसियों ने एलआईसी का फंड काफी बड़ा कर दिया है।
तीसरी खूबी-अन्तरण के खर्चे। किसी निवेश योजना में घुसने और बाहर निकलने के दौरान के शुल्क, मुनाफे पर खासा असर डालते हैं। यूलिप बीमा पॉलिसियां ऐसे भारी शुल्कों के चलते इस पैमाने पर खरी नहीं हैं। शेयरों में निवेश करने और पैसा निकालने पर, पूरी लागत डेढ-दो फीसदी के आसपास रहती है। यह वैसे तो कम दिखती है, लेकिन अगर आप फटाफट शेयर खरीदना-बेचना शुरू कर दैं, तो असर पडता है और आपका ब्रोकर आप जैसे कई निवेशकों की बदौलत ज्यादा मालदार होता जाता है। इक्विटी म्युचुअल फंडों में प्रवेश शुल्क और निकासी शुल्क (इन्ट्री लोड एवं एग्जिट लोड) के प्रावधान होते हैं जो कई बार दो से ढाई फीसदी तक होते हैं। पांच हजार के निवेश पर दो फीसदी का सौ रूपये का खर्चा मामूली दिखता है, लेकिन पांच लाख के निवेश पर दो फीसदी का मतलब है कि एक भी आना-पाई कमाने से पहले ही आपकी जेब से दस हजार की मोटी रकम चली गई।
चौथी खूबी- टैक्स। निवेश पर रिटर्न पूरी तरह कर मुक्त होना चाहिए, लेकिन सरकार का क्या करेंगे जो हर तरीके से आपकी जेब से पैसा निकालने पर तुली रहती है। हासिल हो सकने वाले कर छूट लाभ के आधार पर समय-समय पर अपने निवेश की समीक्षा करनी चाहिए।
पांचवी खूबी-आपको अर्थशास्त्री न बनना पडे। निवेश ऐसा हो जिसकी सभी ऊंच-नीच को आप आसानी से समझ सकें, उसके लिए अर्थशास्त्र या कामर्स की डिग्री लेना जरूरी न हो। दिलचस्प यह है कि निहित स्वार्थ वाले लोग पानवाले नत्थू भैया और सब्जी वाले रफीक मियां को भी डी-मैट खुलवाकर सिप चालू करा देते हैं, जो बेचारे शेयर बाजार को शेर बजार कहते और समझते हैं। इनका विश्वास शेर बजार में नहीं, बल्कि उस शख्स पर होता है, जिसने उनका डी-मैट फार्म भरा होता है और समय समय पर उनको अपनी अमूल्य सलाह से नवाजता रहता है। सोना चांदी में निवेश इस पैमाने पर खरा माना जा सकता है। शेयर या शेयर से सम्बन्धित किसी स्कीम में निवेश करने से पहले आप अगर इस बारे में नार्मल जानकारियां जुटा लें, (जैसी कि हम इस पाठशाला में देने की कोशिश कर रहे हैं) तो यह आपके लिए फायदेमंद होगा। कई बार चीजें केवल इसलिए कठिन लगती हैं, क्योंकि वे हाई-फाई लोगों द्वारा हाई-फाई तरीकों से समझाई जाती हैं।
छठी खूबी-पूर्णतया निष्क्रिय। बढिया निवेश किए जाने के बाद लगातार की मगजमारी नहीं मांगता। जमीन-जायदाद में निवेश इस पैमाने पर खरा है, कि खरीदकर डाल दीजिए और भूल जाइए। समय के साथ मुनाफा बढता जाएगा। अब जरा इस बिना सिरदर्द वाले निवेश की तुलना उन लोगों से करिए, जो एक तरफ कुछ शेयर खरीदते हैं और दूसरी तरफ लगातार शेयर वाले अखबार या टीवी पर जुट जाते हैं कि आज गिरा कल उठा, परसों सुबह लहराया और शाम को हिचकोले आये। क्या निवेश करने का मतलब अपना सुख-चैन गंवाना है?
सातवीं खूबी-स्पीड के साथ मुनाफा। निवेश की रकम पर मुनाफा झमाझम बढे़ और पीछे मुडकर न देखना पडे, फटाफट साल-दर-साल दूना तिगुना होता चले, तभी असली मजा है निवेश का। ट्रेडर लोग इससे भी ज्यादा मजा लेते हैं, वे सुबह लगाकर शाम तक ही दूना-तिगुना करने की फिराक में रहते हैं। लेकिन इस मजे के साथ सबसे बुरी बात यह है कि इसमें आपकी पूंजी का एक फीसदी रकम भी सुरक्षित रह जाने की कोई गारंटी नहीं होती। पूरी गृहस्थी के साथ आखिरी लुटिया भी डूब सकती है।
क्या अब भी आप पूछेंगे कि परफेक्ट निवेश क्या है? ऐसा परफेक्ट निवेश अभी नहीं खोजा गया, जिसमें सारी खूबियां हों। हर निवेश के अपने स्याह-सफेद पहलू हैं, जिनमें से लोग अपने मुनाफों का रास्ता निकालते हुए अमीर और प्रसन्न हुए हैं। शेयरों में निवेश करने के लिए कुछ जरूरी नियमों के साथ हम आपसे अगले पीरियड में मिलने तक नमस्कार बोलते हैं। तो बोलिए नमस्कार।
सफल निवेश के नियम
छठा पीरियड
पिछले पीरियड में हमने ऐसे निवेश पर बात की, जो बिल्कुल परफेक्ट, बिल्कुल आदर्श हो सके। दुनिया में ऐसी कोई चीज या शख्सियत नहीं है, जिसमें एकाध या ज्यादा कमियाँ न पाई जाती हों। बिल्कुल परफेक्ट बीवी की तलाश में बुढापे तक कुंवारे रहे एक शख्स ने अपने मित्र को दुखडा सुनाया-- कि बडी1 मुश्किल से एक ऐसी लड़की मिली थी एक बार, जो मुझे हर तरह से परफेक्ट लगी थी, लेकिन अफसोस, कि मेरी तरह वह भी एक परफेक्ट हमसफर की तलाश में भटक रही थी और उसने मुझे इसलिए रिजेक्ट कर दिया क्योंकि मैं उसे परफेक्ट नहीं लगा। तो, कुछ भी बिल्कुल परफेक्ट तो नहीं हो सकता, लेकिन कुछ नियमों का पालन करें, तो बहुत हद तक परफेक्शन के करीब का निवेश संभव है।
आपको बहुत लोग ऐसे ही मिलेंगे, जो ऊपर भागते सेंसेक्स का पीछा करते हुए शेयर खरीदते हैं और भालुओं के हमले में गिरावट का दौर शुरू होते ही फटाफट बेचकर अपना उल्लू सीधा करने लगते हैं। तमाम लोग बढिया रिटर्न से इसलिए वंचित रह जाते हैं क्योंकि वे पैसे के अलावा और किसी तथ्य की ओर देखना ही नहीं चाहते। गिरावट ही नहीं, जब आपके शेयर का मुनाफा भी बढता है, तो भी बहुत बेचैनी होती है लोगों को, 20 फीसदी बढा, फिर 30---40---67---114---137-----185.....।
आखिर सब्र की सीमा क्या हो सकती है, यह उन लोगों से पूछिए, जिन्होंने इंफोसिस या विप्रो में दस हजार लगाकर पचास-साठ लाख से भी अधिक की कमाई की। यह आपकी दूरदृष्टि और सब्र की परीक्षा है, जिसमें पास होने पर ही कोई सयाना, निवेश पर सुखद वापसी के दौर में पहुंचता है। याद रखिए, सुबह शेयर खरीदकर दोपहर को बेच देने वाला और शाम को फिर खरीदने वाला कोई आज तक वॉरेन बफेट या राकेश झुनझुनवाला नहीं बन सका। वॉरेन बफेट तो चाहते ही यही हैं कि उनके पसंदीदा शेयर जब वे खरीद चुकें, उसके बाद शेयर बाजार पांच साल के लिए बंद हो जाए।
फिर ये कौन लोग हैं, जो लगातार टिकर की नाचती बत्तियों को बिना पलक झपकाए देखते हैं और देखते रहते हैं......? खुदरा निवेशकों के लिए, शेयरों में निवेश कठिन, लेकिन जरूरी है। इसे अपनी उम्र, आर्थिक जरूरतों और जोखिम क्षमता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। बाजार की अस्थिर लहरों के पार उतरने के लिए, इसको बहुत ही अनुशासित और व्यवस्थित तरीके से किया जाना ही बेहतर है। अपने नियम निर्धारित करके उनका वैसे ही पालन करें, जैसे कट्टर लोग अपने धार्मिक नियमों का करते हैं। सफल शेयर निवेश का आधार है अनुशासित निवेश रणनीति। इसमें वो पैसा ही लगाइए, जिसकी जरूरत कम से कम तीन या पांच साल तक पड़ने वाली नहीं हो। बढि़या पैसा बनाने के लिए लंबी अवधि के निवेशक बनिए।
हमेशा यह संभव नहीं हो पाता, कि आप बाजार के सबसे न्यूनतम स्तर पर होने के समय घुसें और सबसे ऊंचे स्तर के दौरान किसी शेयर से बाहर निकल जाएं। लेकिन इसके मापक हैं, जो पूरी तरह नहीं, पर बहुत हद तक ऐसा सुनिश्चित करते हैं। अंदाज लगाकर खेल न खेलें। ट्रेडिंग या सट्टेबाजी की तरह शेयर खरीद-बेच कर आप दस सौदों में ही जल्दी-जल्दी बढि़या रकम पीट सकते हैं, लेकिन ग्यारहवें सौदे में एकाएक ही सारी कमाई गंवा भी बैठते हैं। आसान पैसा कमाने का यही बडा़ जोखिम है जिसे जुआरी उठाते हैं, निवेशक नहीं। यह आर्थिक के साथ मानसिक नुकसान भी देता है। तनावग्रस्त हो जाने पर लोगों को रातों में नींद नहीं आती।
दुनिया भर के बाजारों में सात वर्षीय उतार-चढाव का चक्र देखने में आता है। यह मान कर चलिए कि शेयर सम्पत्तियों ने किसी भी अन्य सम्पत्ति की तुलना में बेहतरीन रिटर्न दिलाए हैं, लेकिन लंबे समय में। निवेश करें, तो अर्थव्यवस्था पर भी नजर रखें। इंडस्ट्री के उतार-चढा़वों से बेखबर न रहें। पैसे लगाने के अलावा, होमवर्क तो करना ही होगा। पांच लाख से बडे निवेशकों के लिए फीस लेकर होमवर्क करने वाले पेशेवर लोग कई बार अपने ग्राहक को अंधेरे में रखकर उसके शेयरों की खरीद-बिक्री करते देखे गए हैं। जागरूकता बहुत जरूरी है।
कंपनियों की जरूरी सूचनाओं को देखें जरूर, कि आपका पैसा जिस कंपनी में लगा है, वह कैसा प्रदर्शन कर रही है? किसी संकट में तो नहीं है? बढि़या फल-फूल रही है कि नहीं? निवेश की तकनीकों और इससे जुडी चीजों को जानिए, शेयर बाजार कैसे काम करते हैं? कैसे बेचें कैसे खरीदें? सौदों की प्रक्रिया क्या है? बैलेंस-शीट कैसे देखें? इस मैदान में इस्तेमाल होने वाले खास शब्दों और कोड के मतलब भी समझिए। इन सारी चीजों के बारे में हम इस पाठशाला में आगे बात करेंगे। अगले पीरियड में शेयर बाजार की बुनियादी जानकारी के साथ हम फिर मिलेंगे। तब तक के लिए नमस्कार।
बाजार की साख और सूचकांकों के अंदाज
आठवां पीरियड
पिछले पीरियड में हम बात कर रहे थे, कि शेयर बाजार क्या है और शेयर क्या है? दरअसल, जब तक हम किसी चीज को ठीक तरह से जान नहीं पाते, तब तक उसके बारे में हमारा मन सुनी-सुनाई बातों के आधार पर धारणाएं बनाता रहता है। ये धारणाएं नुकसान करती हैं। जब बात रूपए-पैसे की हो, तो यह नुकसान और भी स्पष्ट होता है और आपके खातों में लिखा हुआ दिखता है। ऐसी नौबत से बचने के लिए जानकारी बढा़नी बहुत जरूरी है क्योंकि जानकारी ही बचाव है। सूचना ही हथियार है और रूचिपूर्वक जानकारी जुटाकर अपनी समझ बढ़ाने वाला निवेशक, भोली धारणाओं के जाल से बाहर निकल आता है और गलत फैसलों से बचने के लिए सुनी-सुनाई बातों का नहीं, बल्कि अपने विवेक का इस्तेमाल करने लगता है।
शेयर बाजार में सौदों का भारी मात्रा में निबटान, दो कारणों से सम्भव हो पाता है। एक तो सौदों की सरलता। बेचे-खरीदे गए शेयर, बेचने-खरीदने वालों के खाते में इलेक्ट्रॉनिक एंट्री के रूप में दर्ज किए जाते हैं। यानी तत्काल भारी-भरकम कागजी कार्यवाही से छुट्टी। डिपाजिटरी कंपनी, डेबिट-क्रेडिट की एक-एक एंट्री से करोडों की कीमत के शेयर इधर से उधर कर देती हैं। डिपाजिटरी कंपनी, वह तीसरी पार्टी होती है, जो खरीदने-बेचने वालों के ओनरशिप खातों का हिसाब-किताब रखती है। दूसरी वजह है सौदों की गारण्टी। 1996 में ट्रेड गारंटी फंड के अस्तित्व में आने के बाद से, भुगतान, वसूली और शेयरों की प्राप्ति में एक घंटे की भी देरी नहीं होती। खरीदने वाले के खाते में शेयर पहुंच जाते हैं और बेचने वाले को भुगतान मिल जाता है। बाजार कितना भी ऊपर-नीचे जाए, आपका ब्रोकर कभी भी शेयर-बाजार के प्रति अपने वादे से, अपनी जवाबदेही से घपला नहीं कर सकता।
हर्षद मेहता और केतन पारीख कांडों के बाद से व्यवस्था में काफी बदलाव आ चुका है। अगर कोई ब्रोकर असाधारण रूप से फेल हो भी जाए, तो भी एक्सचेंज के पास सौदे के निबटान के लिए पर्याप्त धनराशि जमा रहती है। यह भारतीय शेयर बाजारों की अपनी ऐसी अनूठी व्यवस्था है, जिसके कारण ढेरों देसी घरेलू निवेशक ही नहीं, तमाम विदेशी निवेशकों की संस्थाएं और अनिवासी भारतीय भी बेहिचक भारतीय बाजारों में अपना पैसा निवेशित करते हैं। यहाँ तक कि पीनोट या पार्टिसिपेटरी नोट्स वाले भी, जिनकी पहचान खुली नहीं होती। एक लंबे समय से, तय समय पर सौदों का निबटान सही तरह से करने के मामले में भारत के शेयर बाजारों की साख विश्वस्तर पर है जो निवेशकों के भरोसे का प्रतीक है।
कंपनियों के लिए जरूरत के मुताबिक धन व्यवस्था करने के लिए शेयर बाजार ही महत्त्वपूर्ण जगह है। यह सिद्ध हो चुका है कि शेयरों व दूसरी संपत्तियों का देश की गतिशील प्रगति में ठोस योगदान रहा है। शेयर बाजार, अर्थव्यवस्था को मापने वाले मीटर की तरह जाने जाते हैं। शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनियां, देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान करती हैं। कंपनी का अच्छा वित्तीय प्रदर्शन और विकास, उसके शेयर को भी ऊपर ले जाता है। इससे सूचकांक ऊपर जाते हैं और देश के प्रगति पथ पर आगे बढने को परिभाषित करते हैं। इस तरह शेयर बाजार में आपकी भागीदारी, आपको तो लम्बे समय में सुख-समृद्धि सम्पन्नता देती ही है, समानान्तर रूप से यह देश की समृद्धि को भी बढा़ती है।
सबसे ज्यादा चर्चित सूचकांक, मुंबई शेयर बाजार का सेंसेक्स है, जो तीस अग्रणी कंपनियों के शेयर भावों से बनता है। ये तीस कंपनियां, वॉल्यूम के लिहाज से सबसे बडी कंपनियां हैं और सेंसेक्स में सबसे ज्यादा वजन रिलायंस समूह की कंपनियों का है। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का निफ्टी, 50 कंपनियों का सूचकांक है। बीएस-200 की कुल 200 कंपनियों की बाजार में कारोबारी हिस्सेदारी 72 फीसदी से भी ज्यादा है। सेंसेक्स या दूसरे सूचकों की तेजी और गिरावट सभी सूचीबद्ध तकरीबन 3000 कंपनियों के रूख को नहीं दिखाते। एक मोटा नजरिया देते हैं कि बाजार किस तरफ जा रहा है। सूचकांकों की यह गिरावट या तेजी, बहुत लोगों को झुंझलाने वाली होती है, तो बहुत लोगों के लिए बेहद दिलचस्प। यहां हर सेकेण्ड में कीमतें बदल जाती हैं और यह बदलाव ही एकमात्र ठोस तथ्य है। ऐसा शेयर बाजार में ही क्यों होता है? और किसी बाजार में तो कीमतें इतनी जल्दी-जल्दी नहीं बदला करतीं? दरअसल, देश-विदेश के लाखों ग्राहकों के खरीदी-बिक्री के आर्डर एक साथ बाजार को मिलते हैं और इन आर्डरों की पलक झपकते होने वाली मैचिंग के जरिए सौदे के लिए अनुकूल भावों की खोज लगातार चलती है। अर्थव्यवस्था में होने वाली छोटी से छोटी हलचल का भी प्रभाव बाजार पर पड़ता है, जिसके मुताबिक लोग अपना रूख तय करते हैं और आर्डर देते हैं। लिहाजा जल्दी-जल्दी कीमतें बदलने के साथ सूचकांक भी ऊपर-नीचे आते हैं।
इस उतार-चढाव के बावजूद यह असली सच्चाई है कि लंबे तय समय में, बाजार को ऊपर जाना ही होता है। इसलिए सोच-समझकर, बढिया, टिकाऊ कंपनियों में निवेश करने वाले लोग रोज-रोज के उतार-चढा़व से घबराते नहीं। वे सही, निचली कीमत पर खरीदी करने के बाद कंपनी की प्रगति में कई सालों तक साथ देते हैं और मूल्यांकन अच्छे होने पर शेयर बेचकर बढिया मुनाफा कमाते हैं। लेकिन नए निवेशक इस रास्ते पर चलने की शुरूआत कैसे करें, यह बहुत लोग तय नहीं कर पाते। शुरूआती तैयारी के बारे में हम अगले पीरियड में बात करने के लिए फिर मिलेंगे, तब तक के लिए नमस्कार...।
क्या है शेयर बाजार?
सातवाँ पीरियड
निवेश सफलतापूर्वक करने के लिए ध्यान रखने योग्य जरूरी बातों के बाद अब हम जरा यह देख लें कि शेयर बाजार आखिर है क्या? बाजार बोले तो किराना बाजार, मछली बाजार, कपडा बाजार तो समझ में आयेला है, जहां खरीदने वाले और बेचने वाले इकट्ठे होकर, चीजों या सेवाओं की खरीद-फरोख्त करते हैं। जैसे फल बाजार में फल बिकते हैं और मीना बाजार में जवानियां, जैसे हर शहर में चौराहों पर सुबह-सुबह मजदूर बिकते हैं या और भी बहुत कुछ, उसी तरह शेयर बाजार भी बाजार ही है, लेकिन कुछ खास, और बाजारों से कुछ अलग किस्म का।
सीधे कहा जाए, तो शेयर बाजार एक ऐसी जगह है, जहां कंपनियों के शेयरों की खरीद-फरोख्त होती है। भारत में अंग्रेजों के जमाने में शेयर बाजार शुरू हुआ था, और पहले शेयर एक पेड के नीचे मजमा लगाकर बेचे जाते थे। बाद में यह ट्रेडिंग रिंग के रूप में बदला, जिसमें ब्रोकर यानी दलाल लोग इकट्ठे होकर शेयर बेचते थे। अब यह अत्याधुनिक कंप्यूटर प्रणाली से लैस तेज गति की व्यवस्था है, जिसमें एक साथ लाखों खरीददार और विक्रेता, दूरसंचार व्यवस्थाओं के जरिए केंद्रीय कंप्यूटर से जुडते हैं। खरीदने-बेचने वाले ये लोग इंटरनेट सुविधा वाले अपने कंप्यूटर या ब्रोकर के कंप्यूटर के जरिए अपने आर्डर को शेयर बाजार में दर्ज कराते हैं और खरीदे-बेचे जाने वाले शेयरों की संख्या और कीमत का मिलान केंद्रीय कंप्यूटर से होते ही सौदा दर्ज हो जाता है। पूरी प्रक्रिया में आर्डर केंद्रीय कंप्यूटर को भेजा जाता है, उसका कन्फर्मेशन होता है, सौदा तय होता है और उसका निबटान होता है। यह सारी प्रक्रिया सेकेंडों में पूरी हो जाती है।
बाजार का खास पहलू है उस कीमत की खोज, जिस पर सौदा तय हो सके। बेचने वाला ज्यादा से ज्यादा कीमत चाहता है और खरीदने वाला कम से कम में खरीदना चाहता है। यह सौदेबाजी जब समान कीमत पर पहुंचती है तभी सौदा तय होता है। चूंकि शेयर बाजार में एक साथ बहुत भारी तादाद में खरीददार-विक्रेताओं का आपसी सम्पर्क होता है इसलिए सौदे भी भारी तादाद में फटाफट पूरे होते हैं।
शेयर बाजार में शेयर बिकते हैं। शेयर क्या हैं? शेयर का मतलब है हिस्सा। किसी कंपनी का शेयर लेने का मतलब है उस कंपनी में आपने हिस्सेदारी ले ली। एक लाख शेयर वाली किसी कंपनी के दस हजार शेयर खरीदकर आप उस कंपनी के दसवें हिस्से के मालिक बन जाते हैं। उद्यमी और बिजनेसमैन, जो कोई कारोबार खडा करना या बढाना चाहते हैं, वे योजना बनाते हैं कि वे नई कंपनी शुरू करके या पुराना कारोबार बढा़कर ढेर सारा पैसा बना सकते हैं। लेकिन उनके पास इतनी काफी पूंजी नहीं होती कि वे बाहर से पैसा लिए बिना अपनी पूरी योजना को लागू कर सकें। तब निवेशक आगे आता है और कंपनी के शेयर यानी हिस्सेदारी खरीदकर उद्यमी को पूंजी मुहैया कराता है।
आम जनता को शुरुआती शेयर खरीदने के प्रस्ताव आईपीओ (इनीशियल पब्लिक ऑफर) के जरिए दिए जाते हैं। अब, जो निवेशक आईपीओ में शेयर खरीद लेता है, वह अनन्तकाल तक तो शेयर अपने पास रखना चाहेगा नहीं। उसकी अपनी दूसरी जरूरतें हो सकती हैं या किसी और कंपनी में पैसा लगाने के लिए वह अपना पैसा खाली करना चाहता है। लेकिन कंपनी तो उसका पैसा इतनी जल्दी लौटा नहीं सकती, क्योंकि उगाहे गए पैसे को कंपनी ने कारोबार की ठोस चीजों, जैसे मशीनरी, जमीन, इमारत निर्माण आदि में लगा दिया होता है जिसे चाहकर भी तत्काल खाली नहीं किया जा सकता। ऐसे में शेयर बाजार वो प्लेटफार्म मुहैया कराता है जिसे सैकेंडरी मार्केट यानी दूसरे दर्जे का बाजार कहते हैं। इस बाजार में निवेशकों के बीच लिस्टेड यानी सूचीबद्ध कंपनियों के शेयरों की खरीद-फरोख्त होती है और ऐसी कई हजार कंपनियों के लाखों-करोडों शेयर रोज खरीदे-बेचे जाते हैं।
शेयर बाजार में लिस्टेड होने के लिए कंपनी को बाजार से लिखित समझौता करना पडता है, जिसके तहत कंपनी अपनी हर हरकत की जानकारी बाजार को समय-समय पर देती रहती है, खासकर ऐसी जानकारियां, जिससे निवेशकों के हित प्रभावित होते हों। इन्हीं जानकारियों के आधार पर कंपनी का मूल्यांकन होता है और इस मूल्यांकन के आधार पर मांग घटने-बढने से उसके शेयरों की कीमतों में उतार-चढाव आता है। अगर कोई कंपनी लिस्टिंग समझौते के नियमों का पालन नहीं करती, तो उसे डीलिस्ट किया जाता है, उसके खिलाफ कार्रवाई की जाती है जिसके लिए सरकार ने सेबी (भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड) जैसी ताकतवर संस्थाए को कानूनी अधिकार देकर निवेशकों के हित में सक्षम बनाया है।
मामूली, अनजान सी कंपनियों में निवेश करने की तुलना में जानी-मानी, बडी और मजबूत कंपनी को निवेश के लिए चुनना हमेशा ज्यादा सुरक्षित माना जाता है। शेयर बाजार से जुडी कुछ और बुनियादी जानकारी के साथ हमारी आपकी मुलाकात अगले पीरियड में होने तक के लिए नमस्कार।
निवेश क्यों और कैसे ?
पहला पीरियड
इस पाठशाला के पहले पीरियड में आपका हार्दिक स्वागत है। आपको बधाई इस बात की, कि निवेश में आपकी रूचि आपको इस पाठशाला तक खींचकर लाई है, जहां आप जानेंगे कि खुशनुमा जीवन के लिए निवेश कोई बोरियत भरा विषय नहीं, बल्कि अपने कमाए पैसों से पैसा बनाने का एक मजेदार तरीका है। जरूर ही आप अपने भविष्य के प्रति सजग हैं और उन सभी लोगों के भविष्य की आपको चिंता है, जो आपसे जुडे हैं, आपके प्रिय हैं, आपके सुख-दुख के साथी हैं और आपके जीवन में अलग-अलग प्यारी भावनाओं के रंग भरते हैं।
ऐसे कई उदाहरण आपने आसपास देखे होंगे जब ये रंग बदरंग हो जाते हैं या उड़ने लगते हैं। निश्चित ही कोई समझदार शख्स अपने साथ और अपनों के साथ ऐसी अप्रिय स्थिति नहीं आने देना चाहता, लेकिन जीवन का कुछ पता नहीं। कठिन स्थितियां आ जाती हैं और कुछ लोग अचानक ऐसी स्थिति में फंस जाते हैं। समझदार लोग ऐसे हालात से पूर्वनियोजित मजबूती और सतर्कता के साथ निबटते हैं। इस तरह से, निवेश में रूचि रखने वाले लोग जानते हैं कि यह केवल मजे के लिए नहीं है, बल्कि कल से निबटने के लिए आज अपनी मजबूती बनाने के लिए उठाया गया बेहद जरूरी कदम है।
जीवन की सारी समस्याएं और गतिविधियां, या तो आर्थिक हैं या किसी न किसी तरह पैसे से जुडी हैं। जरूरत के मुताबिक पैसे का न होना कई बार ऐसी समस्याएं लाता है, जो यूं तो आर्थिक नहीं दिखतीं, पर इनकी जड़ आर्थिक ही होती है।
भई....आपको बहकाया नहीं जा रहा है। इस पाठशाला में आपको शेयर बाजार, म्युचुअल फंड, यूलिप, ईटीएफ, कमोडिटी, डेरिवेटिव, फ्यूचर और ऑप्शन के सौदे आदि निवेश के तमाम विकल्पों के बारे में सटीक और बुनियादी जानकारी बिल्कुल सहज तरीके से दी जाएगी, जिसे आप आसानी से समझ सकें या ऐसे लोगों का एडमिशन इस पाठशाला में करा सकें, जो आसान, उपयोगी और विश्वसनीय लेकिन सरल जानकारी के अभाव में भटक रहे हैं और कभी एजेंटों, ब्रोकरों का मुंह ताकते हैं तो कभी अपने दोस्तों से पूछते हैं। इस तरह पूछताछ से पैदा खतरनाक कनफ्यूजन को दूर करने के लिए ही यह पाठशाला लगाई गई है, ताकि देश की अर्थव्यव्स्था और बाजार की नब्ज देखकर इस पाठशाला का हर साथी अपनी गाढी कमाई के पैसे को सही जगह लगाकर सुखी हो सके।
थोडा सब्र रखिए, पहले जरा पैसे के महत्त्व को तो जान लें। जो हर कोई जानकर भी नहीं जानता। कोई कहता है, पैसा कमाने और खर्च करने की चीज है, उसके बारे में खाली-पीली सोच-सोच कर दिमाग क्या खराब करना। कोई कहता है, पैसा हाथ का मैल है, तो कोई बोलता है कि भाया-- पैसा ही सबकुछ है। कोई बोलेगा, पैसा कुछ नहींच। सारा कुछ यहींच रह जाएगा। असली पइसा बोले तो रिश्ते-नाते और संवेदनाएं। कोई इसे मोहमाया बताता है तो कोई इस मोहमाया से लिपटने की लालसा में जीवन भर बाबाओं-ज्योतिषियों के चक्कर काटता है।
किसी को कमाने में मजा है, किसी को उडा़ने में। कोई एकएक पैसा जोड़कर रखता है और एक पैसा खर्च ने से पहले सौ बार सोचता है, कोई दोनों हाथों लुटाता है, फिर भी उसके पास कभी कम नहीं पड़ता। कोई बिना मेहनत के, तिकडम से ढेर सारा पैसा जल्दी बनाने की फिराक में है कोई आठ घंटा मेहनत करके फिर लम्बी तान कर सोता है कि मतलब भर का कमा लिए भाई, अब ज्यादा कोई छाती पर लादकर तो ले नहीं जाना। तो कोई दिन-रात अपनी मेहनत का एक्सीलेटर खींचे पडा़ है, यह देखने की भी फुरसत नहीं, कि कितना कमाया कितना बचाया ? कोई लाखों-करोडों डॉलर किसी ट्रस्ट या अपने पालतू कुत्ते-बिल्ली के नाम करके ईश्वर जंक्शन को जाने वाली गाडी पकड़ता है, तो कोई चार्वाक का चेला कर्जे ले-ले कर घी पीता है और फिर कर्जे चुकाने की परवाह किए बिना निकल लेता है।
यह तो है दुनिया का जंजाल, जिसके जाल में फंसे बिना पैसे के सिम्पल फंडे को हर बंदे को याद रखना चाहिए-जैसा कि सयाने कह गए हैं, कि पैसे की कद्र करो, वह तुम्हारी कद्र करेगा। पैसे की कद्र कमाने से ज्यादा, कमाए हुए पैसे को सही तरीके से इस्तेमाल करने में होती है और हमारा दावा है कि यह तरीका सभी को नहीं आता। आता होता तो एक से एक करोडपति, दिवालिया होते न देखे जाते।
निवेश की पहली, सबसे पहली शर्त यह है कि इस पैसे के बारे में गंभीरता से सोचिए, जिसका नाम है पैसा। चाहे आप नियमित आय पाने के लिए निवेश करना चाहते हों या कर-छूट का लाभ पाने के लिए, यह हर अवसर के लिए मौजूद है। परम्परागत या नए तरीकों में से अपने मुताबिक चुनिए और लाभ उठाइए। इन परम्परागत और नए तरीकों के बारे में जानियेगा अगले पीरियड में। तब तक के लिए नमस्कार।