AAKASH KUMAR
ASSISTANT PROFESSOR
DEPTT OF HISTORY
GCW PUNHANA
MOB-9992778282
सल्तनत कालीन प्रशासन
राज्य की प्रकृति और स्वरूप-
मुस्लिम राज्य सैधान्तिक रूप से एक धर्मावलम्बी या धर्म प्रधान राज्य था। राज्य का प्रमुख सुलतान होता था। ऐसा माना जाता था कि इसे उसके पद और अधिकार ईश्वर ने दिए हैं। इस्लाम में एक राज्य, इस्लामी राज्य, एक ग्रंथ कुरान, एक धर्म इस्लाम तथा एक जाति मुसलमान की अवधारणा है। मुसलमानों का विश्वास है कि 'कुरान' में अल्लाह की जो शिक्षाएं और आदेश संचित है उनमें सभी कालों व सभी देशों के लिए उपयुक्त निर्देश हैं। इसलिए इस्लामी शासन का संगठन उन्हीं के आधार पर किया गया है। कुरान के अनुसार "सारी दुनिया का वास्तविक मालिक और बादशाह अल्लाह है। अल्लाह की आज्ञा का पालन सभी का पवित्र कर्तव्य है। उलेमाओं (इस्लामी ग्रन्थों के व्याख्याकार) ने विभिन्न परिस्थितियों और देश में उपस्थित समस्याओं के समाधान के लिए कुरान व हदीस के आधार पर व्यवस्थाएं दी जो शरीयत कहलाया। वास्तव में इस्लामी कानून शरीयत, कुरान और हदीश पर अधारित है। इस्लाम धर्म के अनुसार शरीयत प्रमुख है। खलीफा तथा शासक उसके अधीन होते हैं। शरीयत के अनुसार कार्य करना उनका प्रमुख कर्तव्य होता है। इस दृष्टि से खलीफा और सुल्तान धर्म के प्रधान नहीं बल्कि शरीयत के कानून के अधीन राजनीतिक प्रधान मात्र थे। इनका कर्तव्य धर्म
के कानून के अनुसार शासन करना था। दिल्ली सल्तनत को इसके तुर्क-अफगान शासकों ने एक इस्लामी राज्य घोषित किया था। वे अपने साथ ऐसे राजनैतिक सिद्धान्त लाए थे जिसमें राज्य के राजनैतिक प्रमुख और धार्मिक प्रमुख में कोई भेद नहीं समझा जाता था। इस्लाम का राजनैतिक सिद्धान्त तीन प्रमुख आधारों पर स्थापित था-
(1) एक धर्म ग्रन्थ,
(2) एक सम्प्रभु,
(3) एक राष्ट्र
एक धर्म ग्रन्थ कुरान था। सम्प्रभु इमाम, नेता तथा खलीफा था और राष्ट्र मिल्लत (मुस्लिम भाईचारा) था। मुस्लिम राजनैतिक सिद्धान्त की विशेषता इन तीनों तत्वों की अविभाज्यता थी। दिल्ली सुल्तानों की नीति पर धर्म का प्रभाव रहा और कम या अधिक मात्रा में इस्लाम धर्म के कानूनों का पालन करना उनका कर्तव्य रहा। यद्यपि जब एक बार इल्तुतमिश ने अपने वजीर मुहम्मद जुनैदी से इस्लामिक कानूनों को पूरी तरह से लागू करने को कहा तब उसने उत्तर दिया कि भारत में मुस्लिम समुद्र में बूंद के समान हैं अतः यहाँ इस्लामिक कानूनों को पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सकता। सुल्तान का आदर्श लोगों को इस्लाम धर्म में परिणित करना तथा दारुल हरब (काफिर देश) को दारूल इस्लाम (इस्लामी देश) में परिवर्तित करना था।
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खलीफा-
खलीफा मुस्लिम जगत का प्रधान होता था। मुहम्मद पैगम्बर के बाद प्रारम्भ में चार खलीफा हुए-
प्रारम्भ में खलीफा का चुनाव होता था किन्तु आगे चलकर खलीफा का पद वंशानुगत हो गया।
661 ई० में उमैय्या वंश खलीफा के पद पर प्रतिष्ठित हुआ। उराका केन्द्र दश्मिक (समिरिया) था। 750 ई० में अब्बासी खलीफा स्थापित हुआ। इसका केन्द्र बगदाद था। 1253 ई० में चंगेज खाँ का पोता हलाकू खाँ ने बगदाद के खलीफा की हत्या कर दी। इस घटना के बाद खलीफा की सत्ता का केन्द्र मिस्र हो गया। अब खलीफा के पद के कई दावेदार हो गये थे, यथा- स्पेन का उम्मैया वंश, मिश्र का फतिमी वंश और बगदाद का अब्बासी वंश। प्रारम्भ में एक ही इस्लाम राज्य था। कालान्तर में जब खलीफा की राजनैतिक सत्ता कमजोर पड़ी तो कुछ क्षेत्रों में खलीफा के
प्रतिनिधि के रूप में स्वतंत्र शासकों ने सत्ता ग्रहण की। व्यवहारिक रूप से ये शासक पूर्णतः स्वतंत्र थे और सार्वभौम सत्ता का उपयोग करते थे किन्तु सैद्धान्तिक रूप से उन्हें खलीफा का प्रतिनिधि माना जाता था। उन्हें खलीफा द्वारा मान्यता प्रदान की जाती थी। ऐसे शासक 'सुल्तान' कहे जाते थे। धीरे-धीरे इनका पद वंशानुगत होता गया और इस तरह राजतंत्र का विकास हुआ।
सुल्तान-
सुल्तान शब्द शक्ति अथवा सत्ता का द्योतक है। कभी-कभी खलीफा के प्रान्तीय राज्यपालों के लिए भी इस शब्द का प्रयोग किया जाता था। जब खिलाफत का विघटन शुरू हुआ तो विभिन्न प्रदेशों के स्वतंत्र मुसलमान शासकों ने सुल्तान की उपाधि धारण कर ली। भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नींव शासकों द्वारा सुल्तान की उपाधि धारण करने के साथ प्रारम्भ हुयी। दिल्ली के सुल्तानों ने सुल्तान की उपाधि महमूद गजनवी से ग्रहण किया था। महमूद गजनवी पहला स्वतंत्र शासक था जिसने अपने आपको सुल्तान की उपाधि से विभूषित किया। उसने यह उपाधि समारिदों की प्रभुसत्ता से स्वतंत्र होने के उपरान्त धारण की थी। सुल्तान पूर्णरूप से निरंकुश शासक था। सल्तनत की प्रशासनिक संरचना में वह सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थिति में था। वह एक सैनिक निरंकुश शासक था। राज्य की समस्त शक्तियाँ, कार्यपालिका, विधायी, न्यायिक अथवा सैन्य उसके हाथों में केन्द्रित थी। वह एक धुरी था जिसके चारों ओर सल्तनत की समस्त प्रशासनिक संरचना घूमती थी। हिन्दू विचारधारा के अनुसार भी राजा मानव रूप में ईश्वर होता है। ईरानी मतों ने भी सुल्तान के पद को दैवी प्रकृति का घोषित किया गया। बरनी के अनुसार सुल्तान का हृदय ईश्वर का दर्पण होता है अर्थात् यह ईश्वर की इच्छाओं को प्रतिबिंबित करता है। इन्हीं पहलुओं के दृष्टिगत बलबन ने जिल्ल-अल्लाह (ईश्वर की छाया) की उपाधि धारण की थी तथा अपने दरबार में सिजदा व पैबोस की प्रथा प्रारम्भ की। सुल्तान की मंत्रिपरिषद को 'मजलिस-ए-खलवत' कहा जाता था। इसकी बैठक जहाँ होती थी उसे 'मजलिस-ए-आम' कहा जाता था। इसमें राज्य के सभी मामलों में चर्चा होती थी। बार-ए-खास में सुल्तान सभी दरबारियों,खानों, अमीरों, मालिकों व अन्य रईसों को बुलाता था। बार-ए-आजम में सुल्तान राजकीय कार्यो का अधिकांश भाग पूरा करता था। यहां पर विद्वान, मुल्ला व काजी भी उपस्थित रहते थे। सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में वह दरबार-ए-आम में बैठता था। उसके कार्य में मंत्रियों का एक वर्ग उसकी सहायता करता था।
खलीफा और सुल्तान-
दिल्ली के अधिकांश तुर्की सुल्तानों ने स्वतंत्र होते हुए भी सिद्धान्त खलीफा की सर्वोपरि सत्ता को स्वीकार की। खलीफा समस्त इस्लामी राज्य का प्रधान माना जाता था। चूंकि दिल्ली सल्तनत खिलाफत का ही भाग था इसलिए सुल्तानों ने अपने खुत्वों एवं सिक्कों में खलीफा को स्थान दिया। दिल्ली के सुल्तान अपने आपको खलीफा का नाइब (सहयोगी) मानते थे। किन्तु खलीफा को दिल्ली सल्तनत की आंतरिक या बाह्य नीतियों में न तो हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त था न ही नियमित तौर पर कर अथवा नजराना प्राप्त करने का। वे इस्लामी दुनिया के नाममात्र के प्रधान थे। दिल्ली के सुल्तानों में इल्तुतमिश पहला सुल्तान था जिसे 1229 ई० में बगदाद के खलीफा अलमुन्तसिर विल्लाह से विशिष्टि अधिकार पत्र प्राप्त किया तथा नासिर-अमीर-उलमोमनीन (खलीफा का सहायक) की उपाधि धारण की। खलीफा ने इल्तुतमिश को उन सभी क्षेत्रों पर जिसे उसने विजित किया था के शासक के रूप में मान्यता दे दी। यद्यपि इल्तुतमिश ने खलीफा की प्रभुत्व को स्वीकार नहीं किया था। इसका प्रमाण इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने बंगाल के शासक गयासुद्दीन पर आक्रमण कर उसे पराजित किया तथा बंगाल को दिल्ली सल्तनत का भाग बना लिया। बलबन ने एक निरंकुश राजतंत्र की स्थापना कर जिल्ले-अल्लाह की उपाधि धारण की तथापि उसने खलीफा की सत्ता स्वीकार की। खुत्बों में खलीफा का नाम शामिल किया तथा सिक्कों पर भी उसका नाम अंकित करवाया। हलाकू द्वारा 1258 ई० में अब्बासी खलीफा के हत्या के बाद भी चार दशकों तक दिल्ली के सुल्तानों के सिक्कों में उनके नाम अंकित किए जाते रहे । अलाउद्दीन खिलजी ने भी खिलाफत का सम्मान किया तथा अपने आपको यामिन-उल- खिलाफत (खलीफा का दाहिना हाथ) और नासिर-ए-अमीर-उलमोमीनीन (खलीफा का सहायक) घोषित किया। दूसरी ओर उसने इल खां (हलाकू के वंशज) के साथ कूटनीति संबंध बनाए रखा। इससे यह प्रतीत होता है कि दिल्ली के सुल्तानों ने खलीफा को अपना वास्तविक प्रभु स्वीकार नहीं किया था। उनकी श्रद्धा खलीफा के प्रति नहीं बल्कि खिलाफत के प्रति थी। अलाउद्दीन खिलजी के पश्चात् दिल्ली के सुल्तानों का खलीफा के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। मुबारक खिलजी दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था जिसने खलीफा की सम्प्रभुता को मानने से इंकार कर दिया। उसने अपने आपको खलीफा-ए-खबुल एवं अमीर-उल-मोमनीन (स्वयं खलीफा) घोषित किया। तथा 'खलीफत-उल-लह' एवं अल-वासिक-बिल्लाह जैसी उपाधियाँ धारण की। ने खलीफा के साथ सम्बन्ध स्थापित किया तथा गयासुद्दीन तुगलक पुनः अपने आपको नासिर-ए-अमीर-उलमोमिनीन (खलीफा का सहायक) घोषित किया। आरम्भ में मोहम्मद तुगलक ने खलीफा को महत्व नहीं दिया किन्तु अपने विरुद्ध होने वाले लगातार विद्रोहों से त्रस्त होकर उसने खुत्बों व सिक्कों में खलीफा का नाम शामिल किया। अपने सिक्कों पर उसने अब्बासी खलीफा अल-मुस्तकिफि का नाम अंकित करवाया। फिरोज तुगलक ने अपने शासनकाल के प्रथम 6 वर्षों में मिस्र के अब्बासी खलीफा से दो बार अपने सुल्तान पद की स्वीकृति एवं खिलअत प्राप्त की तथा स्वयं को खलीफा का नाइब घोषित किया। उसके सिक्कों पर खलीफा-ए-अल हाजिम, अल मुताजिद और अलमुतवाक्किल के नाम मिलते हैं। अलमुतवक्किल का नाम फिरोज तुगलक के उत्तराधिकारियों के सिक्कों पर भी मिलता है।
अमीर वर्ग
13वीं सदी के दौरान उत्तर भारत में उभरने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रशासक वर्ग था। ये विदेशी मूल के थे जो दो समूहों के थे पहला तुर्की दास-अमीर वर्ग और दूसरा गैर तुर्की (ताजिक) अमीर वर्ग। गैर तुर्की कुलीन वर्ग के विदेशी थे जो जीविकोपार्जन की तलाश में मध्य व पश्चिम एशिया से भारत आए थे। अमीरों के इन दो वर्गों में तुर्की अधिक शक्तिशाली थे तथा वे बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त थे। शासन-प्रशासन में इनकी भुमिका महत्वपूर्ण होती थी। इल्तुतमिश ने चालीस गुलामों का दल तुर्क-ए-चहलगानी का गठन किया जिसे चालीसा या चरगान भी कहा जाता है। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद तुर्की अमीरों का सत्ता में हस्तक्षेप बढ़ने लगा। रजिया के शासनकाल में चहलगानी तुर्क सरदारों के मध्य संघर्ष आरम्भ हुआ। प्रथम बार रजिया ने ही सामन्त वर्ग की कमर तोड़ने का प्रयास किया तथा गैर-तुर्क शासक वर्ग की शक्ति संगठन का प्रयास किया। मुइजुद्दीन बहराम के काल में अमीरों ने सुल्तान की शक्ति को कम करने के लिए नायब-ए-मुमलिकात का पद सृजित किया। सर्वप्रथम यह पद इख्तियारुद्दीन ऐतगीन को दिया गया। नासिरुद्दीन महमूद ने अपनी समस्त शक्तियां तुर्की सरदारों विशेषकर बलबन के पक्ष में त्याग दिया था। बलबन के राज्यारोहण के साथ ही सुदृढ़ केन्द्रीय शासन का प्रारम्भ हुआ। अपने कुलीन रक्त का दावा करने के लिए उसने स्वयं को तुर्क अमीरों के हितों के रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया। अलाउद्दीन खिलजी ने वंशानुगत तथा जातीय आधार पर तुर्कों को अमीर वर्ग में शामिल करने की नीति को त्याग दिया तथा उसके स्थान पर योग्यता के आधार पर अमीरों को पद प्रदान किया। अलाउद्दीन के सत्तासीन होने के एक वर्ष बाद तक बनने वाले मंत्रिमण्डल में कोई भी तुर्की अमीर नहीं था। गयासुद्दीन तुगलक के संक्षिप्त शासन काल में अमीरों व सुल्तान के बीच सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध रहे। मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में स्थिति पूरी तरह बदल गई। उसने पुराने अमीरों को कमजोर करने की दृष्टि से मिश्रित जनजातीय आधार पर अमीर पदाधिकारियों की एक नई व्यवस्था स्थापित की। फिरोज तुगलक का काल सुल्तान और अमीरों के बीच सद्भाव का काल था। इस प्रकार सम्पूर्ण सल्तनत काल में सुल्तान व अमीरों के मध्य पारस्परिक सम्बन्धों में परिवर्तन होता रहा। सुल्तान पर अमीरों के विशेष समूह या व्यक्तिगत अमीर अपने प्रभाव का प्रयोग करते रहे, किन्तु सम्पूर्ण सल्तनत काल में कोई भी अमीर वर्ग स्थायी और संस्थागत रूप ग्रहण नहीं कर सका। अमीरों का स्वर्णकाल लोदी काल माना जाता है जबकि उनका निम्नकाल अलाउद्दीन एवं बलबन का काल था।
उलेमा वर्ग-
उलेमा वर्ग इस्लामी धर्माचार्यों तथा शरीयत कानून के व्याख्याकारों का एक महत्वपूर्ण वर्ग था। शासन पर भी इनका अत्यधिक प्रभाव रहता था। शरीयत के मान्य व्याख्याकार होने के कारण उलेमा वर्ग के दो महत्वपूर्ण कार्य थे पहले
वे धार्मिक विषयों को प्रभावित करने वाले नीतिगत मामलों में सुल्तान के सलाहकार थे। दूसरे राज्य के न्यायिक पदों पर उनका वास्तविक एकाधिकार था। इल्तुतमिश का उलेमाओं के एक वर्ग से मतभेद था। बलबन ने कुछ सीमा तक उलेमाओं को राजनीतिक संरक्षण प्रदान किया था। किन्तु बलबन, अलाउद्दीन और मुहम्मद तुगलक ने कभी धर्म को राजनीति से ऊपर स्थान नहीं दिया। मुहम्मद तुगलक ने अपने दार्शनिक दृष्टिकोण के कारण उलेमाओं के साथ सही व्यवहार नहीं किया। फिर भी सम्पूर्ण तुर्की-अफगान शासन काल में उलेमा, शासक वर्ग का एक अभिन्न वर्ग बना रहा।
केन्द्रीय प्रशासन
सुल्तान- सुलतान शब्द का अर्थ सत्ताधारी होता है। वह केन्द्रीय शासन का प्रधान होता था। प्रशासन की सम्पूर्ण शक्ति उसके हाथों में केन्द्रित थी। वह राज्य का संवैधानिक एवं व्यवहारिक प्रमुख था। सुल्तान एक निरंकुश शासक था। यद्यपि उसकी निरंकुशता पर उसे उलेमा एवं अमीर वर्ग कुछ सीमा तक नियंत्रण रखते थे। सुल्तान की सहायता के लिए केन्द्रीय स्तर पर अनेक मंत्रिगण एवं उच्च अधिकारी थे। इन अधिकारियों में चार महत्वपूर्ण थे जिन्हें प्रशासन रूपी भवन के चार स्तम्भों की संज्ञा दी जा सकती है। इन चार मंत्रियों के अन्तर्गत दीवान-ए-विजारत, दीवान-ए-अर्ज, दीवान-ए-इंशा एवं दीवान-ए-रिसालत नामक विभाग थे।
दीवान-ए-विजारत-
दीवान-ए-विजारत विभाग का अध्यक्ष वजीर कहलाता था। तुगलक काल मुस्लिम भारतीय वजारत का स्वर्णकाल था। जबकि बलबन का काल इनका निम्नकाल था। वजीर केन्द्रीय सरकार का सर्वोच्च अधिकारी था। केन्द्रीय प्रशासन के अन्य मंत्रियों की तुलना में उसका स्थान उच्चतर था, इस कारण उसे प्रधानमंत्री भी कहा जाता था। सुल्तान के पश्चात् प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी उसे ही माना जाता था। सामान्य शासन-व्यवस्था का अध्यक्ष होने के अतिरिक्त वह विशेषतः वित्त विभाग का प्रमुख था। इसका मुख्य कार्य लगान बन्दोबस्त के लिए नियम बनाना, अन्य करों की दर निश्चित करना एवं राज्य के व्यय पर नियंत्रण रखना था। मुस्लिम विधिवेत्ता अलमावर्दी के अनुसार वजीरों की दो श्रेणियां थी
(1) वजीर-ए-तौफीद
(2) वजीर-ए-तनफीद
इसमें वजीर-ए-तौफीद असीमित अधिकार प्राप्त थे। वह सुल्तान के आदेश के बिना ही महत्पूर्ण विषयों का निर्णय लेने में सक्षम होता था। किन्तु उसे उत्तराधिकारी नियुक्त करने की शक्ति नहीं थी। वजीर-ए-तनफीद के अधिकार सीमित थे। वह सुल्तान के आदेशों का पालन करता था। राजकीय नियमों को लागू करता था तथा कर्मचारियों व सर्वसाधारण पर नियंत्रण रखता था। वजीर के अधीन दीवान-ए- इसराफ (लेखापरीक्षा विभाग), दीवान-ए-इमारत (लोक निर्माण), दीवान-ए-अमीरकोही (कृषि विभाग) आदि कार्यरत थे। सैन्य विभाग की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति वजीर के द्वारा होने के कारण सैन्य व्यवस्था पर भी उसका नियंत्रण था। विद्वानों तथा निर्धनों के दी जाने वाली छात्रवृत्तियों एवं जीवन निर्वाह भत्तों का प्रारम्भ वजीर के हाथों में था। वजीर की सहायता के लिए एक नायब वजीर होता था। नायब वजीर से निम्न श्रेणी पद पर मुशरिफे-मुमालिक (महालेखाकार) होता था। दीवान-ए-विजारत विभाग में लेखा परीक्षा अनुभाग का संचालन मुशरिफे मुमालिक एवं मुस्तौफिएमुमालिक नामक अधिकारियों द्वारा होता था। मुशरिफे मुमालिक प्रान्तों एवं अन्य विभागों से होने वाली आय का लेखा रखता था जबकि मुस्तौफी-ए-मुमालिक राज्य की आय की जांच करता था। फिरोज तुगलक के शासन काल में राजस्व विभाग की संरचना पूर्ण विकसित हुयी। मुशरिफ-ए-मुमालिक तथा मुस्तौफी-ए-मुमालिक को स्पष्ट रूप से अलग कर दिया गया। दीवान-ए-अमीर कोही विभाग की स्थापना मुहम्मद तुगलक ने की थी। इस विभाग का कार्य मालगुजारी व्यवस्था को ठीक प्रकार से चलाना और जिस भूमि पर खेती न हो रही हो उसे खेती योग्य बनाना था। इस विभाग के ऊपर विजारत का प्रत्यक्ष नियंत्रण था। इस विभाग के कार्य को कार्यान्वित करने के लिए आर्थिक सहायता भी विजारत से मिलती थी। मुशरिफ-ए-मुमालिक आय का एवं मुस्तौफी-ए-मुमालिक व्यय का हिसाब रखता था। फिरोज तुगलक ने एक पृथक अधिकारी के तहत सुल्तान की प्रत्यक्ष आय हेतु एक पृथक इमलाक विभाग की स्थापना की थी। आमिल, कारकुन एवं मुतसर्रिफ वजीर के वित्तीय तथा लिपिक वर्गीय कर्मचारी थे। मुशरिफे मुमालिक की सहायता के लिए नाजिर नामक अधिकारी होता था। सल्तनत काल में वजीर की स्थिति में अनेक परिवर्तन हुए। जलालुद्दीन खिलजी ने विजारत की एक शाखा के रूप में दीवान-ए-वकूफ की स्थापना की। यह विभाग व्यय के कागजात की देखभाल करता था। अलाउद्दीन खिलजी ने बकाया राजस्व की जांच एवं वसूली के लिए दीवान-ए- विजारत के अधीन दीवान-ए-मुस्तखराज विभाग की स्थापना की। तुगलक काल में वजीरों की शक्ति एवं प्रभाव में अत्यधिक वृद्धि हुयी। वजीर की सहायता के लिए वकील-ए-सल्तनत नामक पदाधिकारी बहाल किए गए। लोदियों के अधीन वजीर का पद महत्वहीन हो गया।
प्रमुख वजीर-
फखदुद्दीन इसामी इल्तुतमिश का वजीर था। इसके बाद मुहम्मद जुनैदी वजीर बना जिसे निजामुलमुल्क की उपाधि प्रदान की गयी। बलबन के काल में पूरी शक्ति उसके हाथों में केन्द्रित थी फलस्वरूप वजीर का पद महत्वहीन हो गया था। यद्यपि बलबन ने ख्वाजा हसन नामक व्यक्ति को वजीर पद पर नियुक्त किया था जो नाममात्र का था। उसने अहमद अयाज नामक व्यक्ति को अरीज-ए-ममालिक नियुक्त कर वजीर की शक्ति को और भी कम कर दिया था। बलबन ने एक उप-वजीर भी नियुक्त किया था। उसने ख्वाजा खातीर को उप-वजीर बनाया जो एक राजस्व विशेषज्ञ था। जलालुद्दीन खिलजी के समय में भी कुछ समय तक ख्वाजा खातीर वजीर के पद पर आसीन रहे। बाद में नुसरत खां वजीर बना । नुसरत खां के मृत्यु के बाद मलिक काफूर को यह पद प्राप्त हुआ। मुहम्मद तुगलक के शासन काल में अहमद अय्याज वजीर था। उसे खान-ए-जहां की उपाधि प्राप्त थी। मुहम्मद तुगलक उस पर इतना विश्वास करता था कि जब वह किसी अभियान में बाहर जाता था तो उसे दिल्ली में प्रशासन का दायित्व सौंप जाता था। मुहम्मद तुगलक के 28 वर्षों के पूरे शासन काल में अहमद अयाज वजीर बना रहा। फिरोज तुगलक ने खान-ए-जहां मकबूल को अपना वजीर नियुक्त किया था। उसे वेतन के रूप में 13 लाख टंके मिलते थे तथा उसकी सेना और सेवकों के खर्च के लिए अलग से रकम दी जाती थी।
दीवान-ए-अर्ज-
दीवान-ए.-अर्ज विभाग की स्थापना बलबन ने की थी। उसने अहमद अय्याज को अपना आरिज-ए-मुमालिक नियुक्त किया था। इस विभाग का अध्यक्ष आरिज-ए-मुमालिक होता था जिसका प्रमुख कार्य सैनिकों की भर्ती करना, सैनिकों एवं घोड़ों की की हुलिया रखना एवं सैन्य निरीक्षण करता था। यह इक्ता धारकों के सैनिकों का निरीक्षण करता था तथा उनकी नामावलियां रखता था। वह सैनिकों के लिए खाद्य सामग्री एवं यातायात की व्यवस्था करता था। अलाउद्दीन खिलजी दीवान-ए-अर्ज विभाग पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देता था। वकील-ए-सुल्तान की स्थापना अन्तिम तुगलक शासक नासिरुद्दीन महमूद के समय में हुयी थी। इसका कार्य शासन व्यवस्था एवं सैनिक व्यवस्था की देखभाल करना था। कुछ समय बाद यह पद अस्तित्वहीन हो गया।
दीवान-ए-ईशा-
यह शाही सचिवालय था जिसका प्रमुख दबीर-ए-खास कहलाता था। मिनहाजउद्दीन सिराज ने इस विभाग को दीवान-ए-अशरफ के नाम से संबोधित किया है। इस विभाग का प्रमुख कार्य शाही घोषणाओं एवं पत्रों का पाण्डु लेख तैयार करना था। सुल्तान के आदेशों का प्रारूप यही विभाग तैयार करता था। राजकीय अभिलेख भी इसी विभाग में रखे जाते थे। इस विभाग का कार्य गुप्त प्रकार के होने के कारण दबीर-ए-मुमालिक का पद बहुत महत्वपूर्ण होता था। दबीर-ए-मुमालिक की सहायता के लिए अनेक दबीर अथवा सचिव होते थे। सुल्तान के व्यक्तिगत दबीर को दबीर-ए-खास कहा जाता था जो सुल्तान की सेवा में रहता था तथा उसके पत्र व्यवहार का कार्य करता था।
दीवान-ए-रसालत-
सामान्यतः इसे विदेश विभाग माना जाता है जबकि डा० आई. एच. कुरैशी के अनुसार यह विभाग धार्मिक विषयों से सम्बन्धित था। सद इसका अध्यक्ष होता था। यह विभाग पड़ोसी राज्यों को भेजे जाने वाले पत्रों का प्रारूप तैयार करता था तथा विदेशों को जाने वाले व देश में आने वाले राजदूतों से निकट सम्पर्क रखता था।
दीवान-ए-बरीद- यह गुप्तचर विभाग था। इसका अध्यक्ष बरीद-ए-मुमालिक कहलाता था। यह राज्य का प्रमुख समाचार लेखक भी था। इसके अधीन गुप्तचर, संदेशवाहक व डाक चौकियां होती थी। इसके अन्तर्गत अनेक बरीद शहरों, बाजारों एवं प्रत्येक आबादी वाले स्थानों पर नियुक्त थे। वे गुप्त सूचनाएं बरीद-ए-मुमालिक को भेजते थे जिसे वह सुल्तान की सेवा में प्रेषित करता था। मुनहीयान्स नामक गुप्तचर पदाधिकारी की नियुक्ति अलाउद्दीन खिलजी ने की थी।
दीवान-ए-कजा- यह न्याय विभाग था। काजी-ए-मुमालिक (काजी-उल-कुजात) इस विभाग का अध्यक्ष होता था जो कभी-कभी शेख-उल-इस्लाम (सद्रे-जहां अथवा सद्र-उस-सुदूर) भी कहलाता था। काजी-ए-मुमालिक न्याय विभाग के अधिकारियों की नियुक्ति एवं न्यायपालिका के संचालन के लिए भी उत्तरदायी था। इसके अधीन नायब काजी' एवं अदल होते थे जो न्याय निष्पादन का कार्य करते थे। नियमों की व्याख्या तथा गूढ़ विषयों पर मत देने के लिए मुफ्ती होते थे।
सद-उस-सुदूर- यह धार्मिक मामलों में सुल्तान का प्रमुख परामर्शदाता होता था। इसका कार्य इस्लामी नियमों तथा उपनियमों को लागू करना था। मुस्लिम उलेमा, विद्वानों एवं धार्मिक पुरुषों का जीवन निर्वाह भत्ता मंजूर करना भी उसका दायित्व होता था। मुसलमानों से लिए दिए जाने वाले जकात पर इसी अधिकारी का अधिकार होता था।
अमीर-ए-हाजिब- इस पदाधिकारी को बारबक भी कहा जाता था। यह शाही दरबार का शिष्टाचार एवं वैभव बनाये रखता था। इसकी अनुमति के बिना न तो कोई सुल्तान तक पहुंच सकता था और न ही प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत कर सकता था। यह सुल्तान के अतिनिकट थे। अतः इस पद पर सुल्तान अपने निकटतम सम्बन्धी अथवा अतिविश्वसनीय व्यक्ति को नियुक्त करता था। सुल्तान के व्यक्तिगत हाजिब को हाजिब-ए-खास कहा जाता था। सुल्तान जब स्वयं किसी अभियान का नेतृत्व करता था तो अमीरे-हाजिब उसके व्यकितगत सचिव के रूप में कार्य करता था।
दिवान-ए-रियासत- दिवान-ए-रियासत नामक नए विभाग की स्थापना अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार नियंत्रण व्यवस्था को कार्यान्वित करने के लिए की थी। इसका कार्य सुल्तान के द्वारा बनायी गयी मूल्य सूची के आधार पर सभी सामानों के विक्रय का प्रबन्ध करना था। सभी प्रमुख वस्तुओं के बाजार के लिए अलग-अलग अधीक्षक थे जिन्हें शाहना-ए- मण्डी कहा जाता था।
दीवान-ए-कोही- इस विभाग की स्थापना मुहम्मद बिन तुगलक ने कृषि विकास एवं मालगुजारी व्यवस्था की जांच हेतु की थी। इसका अध्यक्ष अमीर-ए-दीवान कोही कहलाता था।
वकील-ए-दर- यह राजपरिवार विभाग से सम्बन्धित था। प्रो० हबीबुल्ला के अनुसार यह राजपरिवार व्यवस्था का प्रशासनिक प्रधान होता था। वास्तविक रूप से यह राजपरिवार विभाग का नियन्ता तथा मुगलकालीन मीरसामां का पुरगामी था।
दीवान-ए-बन्दगान- यह दास विभाग था। इसकी स्थापना फिरोज तुगलक ने की थी। इस विभाग का कार्य दासों को विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षित कर उन्हें शाही कारखानों तथा अन्य स्थानों पर सेवा में लगाना था। इस विभाग के अन्तर्गत अर्ज-ए-बन्दगान, मजमुआदार, चाउगोरी व दीवान आदि अधिकारी थे।
दीवान-ए-खैरात- इस विभाग की स्थापना फिरोज तुगलक ने की थी। इस विभाग का कार्य निर्धन एवं असहाय लोगों की पुत्रियों के विवाह हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करना था। प्रत्येक व्यक्ति की दशा के अनुसार उसे 50 टके, तथा 25 टंके कन्या के विवाह हेतु दिए जाते थे।
दीवान-ए-इमारत-दीवान-ए-इमारत अथवा लोक निर्माण विभाग की स्थापना तुगलक ने की थी। अफीफ ने इस विभाग को 'इमारतखाना' कहा है। इस विभाग का प्रमुख अधिकारी मीर-ए-इमारत होता था। मीर-ए-इमारत के अन्तर्गत अनेक शहना होते थे। इस विभाग द्वारा अनेक सरायों, नहरों, बांधों, मस्जिदों, भवनों, मकबरों व मदरसों का निर्माण किया गया।
मजमुआदार- यह आय-व्यय को ठीक करता था। लोगों को उधार देकर उसका हिसाब रखना भी उसका कार्य था।
खजीन (खजांची)- यह कोषाध्यक्ष के ही अनुरूप था। यह नकद रूपया अपने पास रखता था।
सरजानदार- यह सुल्तान के अंगरक्षकों का नायक था। अमीर-ए-मजलिस-यह सभाओं, दावतों व उत्सवों आदि का प्रबंध करता था। अमीर-ए-आखूर-यह अश्वशाला का अध्यक्ष था। शाहना-ए-पील-यह हस्तिशाला का अध्यक्ष था। अमीर-ए-शिकार-सुल्तान के लिए शिकार खेलने का प्रबंध करता था। दीवान-ए-इस्तेहकाक-अलिमों (विद्वानों) एवं मुस्लिम धर्मशास्त्रियों को वृत्ति प्रदान करता था। यह पेंशन विभाग था।
मजलिस-ए-आम या मजलिस-ए-खलवत- यह सुल्तान के मित्रों और विश्वासपात्र अधिकारियों की परिषद थी, जिसमें समस्त महत्वपूर्ण विषयों पर परामर्श लिया जाता था।
शाही कारखाने-
सल्तनतकालीन प्रशासननिक व्यवस्था में कारखानों का महत्वपूर्ण स्थान था। इन कारखानों में राजदरबार एवं राजपरिवार की विलासिता संबंधी वस्तुएं तैयार की जाती थी। राज्य कारखाने स्थापित करने का सिद्धान्त सम्भवतः फारस से लिया गया था। शाही कारखानों को राज्य व्यापारियों है। वित्तीय सहायता मिलती थी। मुहम्मद तुगलक ने अपने शासनकाल में एक वस्त्र-निर्माणशाला का निर्माण किया था। इसमें एक कारखाना रेशमी वस्त्रों में कढ़ाई करने का था जिसमें चार हजार कारीगर कार्यरत थे। शीतभातु के परिधान सिकन्दरिया से अयात किए हुए कपड़ों से बनाए जाते थे। ग्रीष्मकालीन परिधान सूती कपड़ों से बनाए जाते थे, जो दिल्ली या उसके समीपवर्ती प्रदेशों में बनाये जाते थे या चीन तथा ईराक से आयात किए जाते थे। फिरोज तुगलक ने शाही कारखाना के विकास की ओर विशेष ध्यान दिया। उसने कारखानों को इतना महत्व दिया कि वह उसे अक्ता के समान समझता था। उसके समय में शाही कारखानों का अत्यधिक विस्तार हुआ। फलस्वरूप कारखानों की संख्या 36 हो गई।
अफीफ ने राजकीय कारखानों को दो भागों में बांटा है-
1.रातिबी
2.गैर रातिबी।
रातिबी कारखानों का वार्षिक अनुदान निश्चित था तथा इसमें काम करने वाले लोगों को निश्चित वेतन प्राप्त होता था। रातिबी कारखानों के अन्तर्गत पीलखाना (गजशाला), पायगाहखाना (अश्वशाला), शराबखाना (सुरागार), शैयाखाना (प्रकाश व्यवस्था सम्बन्धित), शुतुरखाना (उँट खाना), सगखाना (कुत्तों को रखने का स्थान), आबादारखाना (जल प्रबन्धन सम्बन्धी) आदि थे। रतिबी कारखाने पर अपार धन व्यय होता था। रतीबी कारखाने में पायगाह (अश्वशाला) सर्वाधिक महत्वपूर्ण था जो अनेक स्थानों पर था। सबसे बड़ा पायगाह, शाहखाना मुल्तानपुर किल्ला दरबार के समीप था। गैर-रातिबी कारखानों का अनुदान निश्चित नहीं था। इसमें अनिश्चित वेतन पाने वाले कर्मचारी थे। इसके अन्तर्गत जमादारखाना (वस्त्रों से सम्बन्धी), अलमखाना (पताका विभाग), फर्राशखाना (फर्श इत्यादि विभाग), रिकाब खाना (घोड़े की जीन आदि तथा भोजन से सम्बन्धित विभाग) आदि थे। प्रत्येक कारखाना उच्च श्रेणी के मलिक के अधीन थे। शाही कारखानों का महानिदेशक मुतसरिफ कहलाता था। उसी के पास सबसे पहले शाही आदेश आते थे। मुतशरिफ को अलग से अपने विभाग का हिसाब रखना पड़ता था और वार्षिक परीक्षण के लिए इसको दीवान-ए- विजारत में देना पड़ता था। फिरोज तुगलक के काल में ख्वाजा अबुल हसन प्रधान मुतशर्रिफ था। उसे कारखानों के हिसाब की नियमित जांच हेतु नियुक्त किया गया था। उसका अलग दफ्तर था। सुल्तान के आदेश की सूचना सर्वप्रथम ख्वाजा अबुल हसन से फर्मान द्वारा दी जाती.थी। ख्वाजा अबुल हसन कारखाने के मुत्सरिफो को आदेश देता था कि वे अमुक वस्तुएं तैयार करवाये कारखानों के हिसाब-किताब की जांच दीवान-ए-मजमुए में हुआ करती थी।
प्रान्तीय प्रशासन-
प्रान्तीय प्रशासन केन्द्रीय शासन का प्रतिरूप था। सल्तनत को अनेक प्रान्तों में विभाजित किया गया था, जिसे इक्ता या विलायत कहा जाता था। प्रान्तों के गवर्नर को इक्तादार, वली, मुक्ती व नायब कहा जाता था। इक्तादार अथवा वली कार्यपालिका, न्यायपालिका और सैन्य संगठन तीनों का प्रधान होता था। प्रान्त में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखना उसका प्रमुख कर्त्तव्य था। यह भूराजस्व की वसूली का कार्य भी देखता था। वली की नियुक्ति, स्थानान्तरण एवं अपदस्थीकरण सुल्तान द्वारा किया जाता था। अपने कार्यों के लिए वह सुल्तान के प्रति उत्तरदायी था। प्रान्तों में वित्तीय विभाग की रेख-रेख के लिए साहिये-दीवान अथवा ख्वाजा नामक अधिकारी होते थे तथा सैनिक मामलों की देख-रेख के लिए प्रान्तीय आरिज थे। प्रान्तों में राजस्व वसूली का कार्य नाजिर एवं वकूफ नामक अधिकारी करते थे।
ख्वाजा अथवा साहिबे दीवान की नियुक्ति सुल्तान द्वारा वजीर के परामर्श से की जाती थी। ख्वाजा की सहायता के लिए मुतसरिफ अथवा कारकुन नामक अधिकारी होते थे। प्रान्तीय स्तर पर एक अन्य महत्वपूर्ण अधिकारी काजी था जो मुकदमों का निर्णय करता था। सामान्य रूप से फौजदारी मुकदमें वली द्वारा तथा दीवानी मुकदमें काजी द्वारा देखे जाते थे।
जिला या शिक प्रशासन-
शिक का शब्दिक अर्थ है 'एक हिस्सा'। प्रशासनिक सुविधा के लिए विलायत अथवा प्रान्तों को जिलों अथवा शिक में विभाजित किया गया था। शिक का निर्माण 1279 ई० में सर्वप्रथम बलबन ने किया। उसने समाना तथा सुनाम, प्रान्तों को शिकों में विभाजित कर विभिन्न अमीरों को सौंप दिया था। शिक का प्रशासन शिकदार कहा जाता था। शिकदार की नियुक्ति उस अमीर वर्ग से होती थी जो मुक्ता वर्ग के पद पर कार्य कर चुका हो या जिन्हें प्रशासन का पर्याप्त अनुभव हो। लोदी काल मे शिक शब्द का प्रयोग कम हो गया तथा उसके स्थान पर 'सरकार शब्द' का प्रयोग किया जाने लगा। शिकदार के अधीन एक सैन्य दल होता था जिसकी सहायता से वह विद्रोहियों का दमन करता था तथा राजस्व की वसूली में अधिकारियों की सहायता करता था।
परगना- शिक के नीचे प्रशासन की इकाई परगना थी जिसमें कई गांव सम्मिलित थे। परगना का प्रमुख अधिकारी आमिल था। इसका प्रमुख कार्य परगने में शांति व्यवस्था स्थापित करना था। प्रत्येक परगने में आमिल, सरहंग, मुशरिफ, मुहास्सिल तथा गुमाश्ते नामक अधिकारी होते थे। इनके अतिरिक्त राजस्व का लेखा रखने के लिए कारकून भी होते थे। अफीफ के अनुसार फिरोज तुगलक में दोआब में पचपन परगने थे। इनेबतूता ने 'सादी' अथवा सौ गांव के समूह का शासन की इकाई के रूप में उल्लेख किया है। के समय
गांव प्रशासन- परगना अनेक गांव में विभाजित था। गांव प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। गांव का शासन कार्य चलाने के लिए गांव के मुख्य अधिकारियों में पटवारी, खूत, मुकद्दम (मुखिया) और चौधरी प्रमुख थे। इनका मुख्य कार्य गांव में शांति व्यवस्था स्थापित करना तथा शासन को लगान वसूलने में मदद करना था। ये लोग किसान से कर वसूल कर दीवान-ए-विजारत के पास भेजते थे। इन्हें लगान वसूली के बदले पारिश्रमिक के तौर पर वसूली का एक भाग अपने पास रखने का अधिकार प्राप्त था जिसे हक्क-ए-खुत्ती या खुत्ती कहा जाता था। इसके अतिरिक्त गांव का मुखिया किसानों से एक छोटा सा उपकर एकत्रित करता था जिसे किस्मत-ए-खोती कहा जाता था। अलाउद्दीन खिलजी के समय में खूत, मुकद्दम और चौधरियों की स्थिति निम्न स्तर पर पहुंच गयी थी। उसने इनके विशेषाधिकार को छीन कर सामान्य श्रेणी में ला दिया था तथा इन्हें भू-राजस्व, गृह व चराई कर देने के लिए बाध्य किया। किन्तु गयासुद्दीन तुगलक ने इनकी पूर्व प्रतिष्ठा पुनः प्रदान की। उसके समय में उन्हें पुराने विशेषाधिकार पुनः प्राप्त हो गए अर्थात् उनके खेतों एवं चारागाहों को कर निर्धारणों से मुक्त कर दिया गया। दिल्ली सल्तनत में चौधरी भू-राजस्व के लिए सर्वोच्च ग्रामीण सत्ता थी। वे जजिया, खराज, गृहकर व चराई कर से मुक्त थे। गांव प्रशासन में पंचायत का भी महत्वपूर्ण स्थान था क्योंकि साधारण झगड़े पंचायत द्वारा ही निपटाए जाते थे। प्रत्येक गांव में एक चौकीदार, एक लगान
वसूल करने वाला एवं एक पटवारी होता था।
सेना-
तुर्की प्रशासनिक व्यवस्था में सैनिक संगठन का विशेष महत्व था। सुल्तानों की शक्ति उनके सैनिक बल पर निर्भर करती थी। सुल्तान के सैनिक खास-खेल कहलाते थे। सुल्तान सेना का मुख्य सेनापति होता था। तुर्की शासन के प्रारम्भिक दिनों में सुल्तानों ने विभिन्न प्रदेशों को अपने-अपने सेनापतियों के अधीन कर दिया था। ये सेनापति अक्तादार या वली कहलाते थे। इन्हें जो प्रदेश दिए जाते थे उन्हें अक्ता कहा जाता था। अक्तादार उक्त प्रदेशों के लगान वसूल करते थे तथा इससे अपने अधीनस्थ सेना के खर्चे की पूर्ति करते थे। सेना की शक्ति और संगठन बहुत कुछ सुल्तान की व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करता था। इल्तुतमिश बलबन, अलाउद्दीन खिलजी, गयासुद्दीन तुगलक तथा मुहम्मद बिन तुगलक जैसे शक्तिशाली शासकों ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया। इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का पहला तुर्क शासक था जिसने सल्तनत की सेना को शाही सेना के रूप में संगठित किया जिसे जानदार कहा जाता था। उसके काल में सल्तनत कालीन सेना दो भागों में विभक्त थी। केन्द्रीय सेना को हश्म-ए-कल्ब या कल्ब-ए-सुल्तानी तथा प्रान्तीय सेना को हश्म-ए-अतरफ कहा जाता था। हश्म-ए-कल्ब में अलग से एक नए वर्ग का नाम बंदगान-ए-खास या खादम-ए-खास था। शाही घुड़सवार सेना को सवार-ए-कल्ब कहा जाता था। इल्तुतमिश की व्यक्तिगत घुसवार सेना जो दो या तीन हजार थी शम्सी घुड़सवार कहलाती थी। इल्तुतमिश की सेना का गठन गुलामों के रूप में भरती किए गए सैनिकों के शक्ति पर आधारित थे। बलबन ने सैन्य व्यवस्था को संगठित करने के लिए दीवान-अर्ज विभाग की स्थापना की। उसने सवार-ए-कल्ब में अत्यधिक वृद्धि की। सैन्य संगठन का विकसित रूप अलाउद्दीन खिलजी के समय में प्रकट हुआ। सल्तनत काल में सर्वप्रथम अलाउद्दीन खिलजी ने एक स्थाई सेना संगठित की। उसने केन्द्र में एक विशाल सेना रखी जिसमें पैदल सैनिकों के अतिरिक्त 4,75000 घुड़सवार थे। दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन खिलजी के पास सबसे बड़ी सेना थी। खिलजी काल में मंगोलों में प्रचलित सैन्य वर्गीकरण पद विषयक शब्द जैसे अमीरान-ए-सदा, अमीरान-ए-हजारा एवं अमीरान-ए-तुमन के उदाहरण मिलते है। केन्द्र में स्थायी सेना गियासुद्दीन तुगलक व मुहम्मद बिन तुगलक के समय में भी रही। किन्तु फिरोज तुगलक ने उन्हें एक सामंती संगठन में परिवर्तित कर दिया। वह सेना में कठोर अनुशासन बनाए रखने में भी असमर्थ रहा। अतः सल्तनत की सैनिक स्थिति कमजोर हो गयी। लोदी सेना कबीलों के आधार पर संगठित थी। इस काल में शाही सेना का स्वरूप विकृत होकर कबाइली सैनिक दस्तों की भांति रह गया।
सैन्य विभाग- सैन्य व्यवस्था की देख-भाल, दीवान-ए-अर्ज विभाग करता था। इस विभाग का प्रधान आरिज-ए-मुमालिक कहलाता था। वह सैनिकों की भर्ती एवं उनका वेतन निर्धारित करता था। सैनिकों को नकद वेतन अथवा भूमि आवंटन के लिए अपनी संस्तुति देता था। किसी विजय के पश्चात् वह माल-ए-गनीमह (लूट की सम्पत्ति) को एकत्र करवाता था तथा सेनापति की उपस्थिति में उसे सैनिकों में वितरित करवाता था। प्रान्तों में प्रान्तीय आरिज थे जो सेना के संगठन के लिए उत्तरदायी होते थे।
सेना में सुधार- सेना में जब सैनिक की भर्ती होती थी तो दीवान-ए-अर्ज में उसे अपने घोड़े और साज-सामान के साथ निरीक्षण के लिए उपस्थित होना पड़ता था। इस निरीक्षण में सक्षम पाए जाने पर उसे अपना वेतन और घोड़े का व्यय राज्य से मिल जाता था। दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन खिलजी ने सर्वप्रथम सैनिकों की हुलिया लिखने की प्रथा प्रारम्भ की। इसी प्रकार सैनिक अच्छे घोड़ों में परिवर्तन न कर सके इसके लिए उसने घोड़ों को दागने की प्रथा प्रारम्भ की। जो सैनिक इस जांच से बचना चाहते थे उनको कैद कर जुर्माना किया जाता था। गयासुद्दीन तुगलक ने भी सैन्य सुधारों पर ध्यान दिया। उसने सैनिक जांच, हुलिया प्रथा, दाग प्रथा आदि सुधारों को लागू किया। सम्भवतः सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के समय में हुलिया प्रथा समाप्त हो गयी क्योंकि उसने सैनिकों को अपना प्रतिहस्त भेजने की अनुमति दे दी थी। फिरोज तुगलक के समय में सैन्य व्यवस्था में भ्रष्टाचार फैल गया था। उसने सेना में दासों को भर्ती करना प्रारम्भ कर दिया था जिसके घातक परिणाम हुए। बाद में सिकन्दर लोदी ने सैनिकों की हुलिया रखने पर बल दिया किन्तु अब हुलिया के स्थान पर चेहरा शब्द का प्रयोग किया जाने लगा।
सैन्य टुकड़िया-सेना के मुख्य तीन भाग थे। प्रथम घुड़सवार सेना, द्वितीय-गज सेना, तृतीय- पैदल सेना।
घुड़सवार सेना- दिल्ली सल्तनत की सेना में घुड़सवार सेना का विशेष महत्व था। केन्द्रीय घुड़सवार सेना को सवार-ए-कल्ब कहा जाता था। सल्तनत कालीन सैन्य संगठन में अश्वरोहियों का स्थान सर्वोपरि था। सेना की सफलता काफी हद तक घुड़सवार की शक्ति और गतिशीलता पर निर्भर करती थी। घुड़सवार दो प्रकार के थे- एक अस्प जिनके पास एक घोड़ा होता था और दो अस्प जिनके पास दो घोड़े होते थे। भारत में घोड़ों का आयात अरब, तुर्किस्तान और अन्य दूरस्थ प्रदेशों से जैसे रूस से किया जाता था।
हस्ति सेना- दिल्ली सल्तनत के शासकों ने अपनी सेना में हाथियों (हस्ति) को भी महत्व दिया। हाथियों के देखभाल के लिए एक पृथक विभाग होता था जिसे पीलखाना कहा जाता था। इस विभाग का अध्यक्ष शाहना-ए-पील कहलाता था। हाथियों का प्रयोग सैनिकों को युद्ध में ले जाने, दुर्गों को तोड़ने, तथा सेना को नदी पार करते समय जल धारा की गति को नियंत्रित करने के लिए किया जाता था।
पैदल सेना- इस काल में पैदल सैनिक भी होते थे जिन्हें पायक कहा जाता था। पैदल सैनिक अधिकांशतः हिन्दू , दास एवं निर्धन वर्ग के होते थे। उन्हें मुख्यतः द्वारपाल, रक्षक आदि साधारण कार्यों के लिए लगाया जाता था। कुशल पायक बंगाल से आते थे। धुनर्धारी पैदल सैनिक धनुक कहलाते थे। सुल्तान के पास नावों का बेड़ा भी होता था जिसे बहर कहते थे। इसका अध्यक्ष मीर-ए-बहर कहलाता था। इसके अतिरिक्त सेना में बहुत से गुप्तचर भी थे जिन्हें तलैया या यजकी कहा जाता था। उन्हें शत्रुओं की गतिविधियों का ध्यान रखने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता था।
सेना का वर्गीकरण- दिल्ली सल्तनत की सेना का वर्गीकरण मंगोलों की दशमलव पद्धति पर आधारित थी। सेना की सबसे छोटी सैनिक इकाई 'सरखेल' तथा सबसे बड़ी इकाई खान थी। ज्ञातव्य है कि 13 वीं शताब्दी अर्थात बलबन के काल में सेना का सर्वोच्च अधिकारी मलिक होता था। बलबन के काल में ही अमीर वर्ग के लिए खान की पदवी प्रारम्भ की गयी। 'खान' एक आदर सूचक उपाधि होती थी। दस सवारों की टुकड़ी का प्रधान सरखेल था, दस सरखेलों (100 घुड़सवार) के ऊपर एक सिपहसालार, दस सिपहसालारों (1000 घुड़सवारों) के ऊपर एक अमीर, दस अमीरों (10,000 घुडसवार) के ऊपर एक मलिक तथा दस मलिक (एक लाख घुड़सवार) के ऊपर एक खान, होता था।
अस्त्र-शस्त्र- सल्तनत काली सेना में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। प्रत्येक घुड़सवारों के पास दो तलवारें, एक भाला एवं तीर-कमान होता था। पैदल सैनिकों के पास भी तलवार, कटार, तीर-कमान व बरछा आदि होता था। सल्तनत काल में बारूद, गोले या तोपखाने का निर्माण किया गया था। कुशकंजिर शब्द तोपखाने का बिगड़ा हुआ रूप था। मगरिब, मंजनिक व अरादा का वर्णन भी मिलता है जिनका प्रयोग भारी पत्थर फेंकने में या धातु के गोले फेंकने के लिए किया जाता था। चर्ख (शिला प्रक्षेपास्त्र) और फलाखून (गुलेल) का भी प्रयोग किया जाता था। गरगज एक चलायमान मंच था जिस पर खड़े होकर घेरा डालने वाले अधिकतम ऊँचाई पर पहुंचकर शत्रु पर आक्रमण कर सकते थे। सबत एक सुरक्षित गाड़ी थी जो प्रक्षेपक से रक्षा करती थी। सेना के साथ-साथ बड़े बड़े ध्वज भी होते थे जिनमें श्याम और लाल रंग प्रमुख था। ध्वज पर चिन्ह भी होते थे। कुतुबुद्दीन ऐबक के ध्वज पर नवोदित चन्द्रमा एवं परदार सर्प अथवा शेर चित्रित थे। सुल्तान फिरोज तुगलक के ध्वज पर भी परदार सर्प की आकृति अंकित थी। अमीरों के भी ध्वज होते थे। मुहम्मद तुगलक के शासन काल में एक खान को सात ध्वज एवं एक अमीर को तीन ध्वज लाने की अनुमति थी।
किले- सैन्य संगठन में किलों अथवा दुर्गों का बहुत महत्व था। ये दुर्ग प्राकृतिक अथवा सामरिक दृष्टि से लाभप्रद स्थानों पर निर्मित किए गए थे। बलबन पहला शासक था जिसने किले बनाने पर ध्यान दिया। उसने मंगोलों के आक्रमण से पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा के लिए दुर्गों का निर्माण करवाया तथा प्रत्येक दुर्ग में सैनिकों को नियुक्त किया। अलाउद्दीन ने भी सीमान्त प्रदेशों में दुर्गो का पुननिर्माण करवाया तथा वहाँ सैनिकों को नियुक्त किया। उसने सीरी के किले को सुदृढ़ किया। किले का सर्वोच्च अधिकारी कोतवाल होता था जिसके पास किले की चाभी होती थी। कोतवाल के अतिरिक्त किलों में मुफरिद नामक अधिकारी भी होते थे। ये सम्भवतः किलों की हथियारों की देख भाल करते थे।
वेतन- सैनिकों का वेतन समय के अनुसार भिन्न-भिन्न रहा। दिल्ली सल्तनत के आरम्भिक तुर्क शासकों ने सैनिकों को नकद वेतन के आधार पर भूमि आवंटित की थी। इसके अतिरिकत सैनिकों को माल-ए-गनीमह (लूट का माल) का 4/5 भाग प्रदान किया जाता था। किन्तु अलाउद्दीन खिलजी ने सैनिकों का भाग 1/5 तथा राजकोष का भाग 4/5 निर्धारित किया। सर्वप्रथम अलाउद्दीन ने सैनिकों को नकद वेतन देने की प्रथा प्रारम्भ की। उसके समय में एक अस्प सैनिक (जिसके पास एक घोड़ा होता था) को प्रति वर्ष 234 टंका वेतन मिलता था तथा दो अस्प (जिसके पास दो घोड़े थे) को 378 टंका वेतन मिलता था। अलाउद्दीन खिलजी के काल में मुफ्ती लोग सैनिकों के वेतन में कुछ कमीशन काट लेते थे। किन्तु गियासुद्दीन तुगलक ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया तथा सैनिकों के वेतन रजिस्टर (वसीलात-ए-हश्म) की जांच स्वयं करने लगा। खुसरो खां के शासन काल में सैनिकों को खुले हाथ से धन बांटा गया था। उसको पुनः वापस लेने की व्यवस्था की गई। बकाया रकम को दफ्तर-ए-फजिलात नामक रजिस्टर में दर्ज किया जाता था तथा उसे किस्तों के रूप में वेतन से काट लिया जाता था। मुहम्मद तुगलक के शासन काल में सैनिक अधिकारियों और उनके अधीनस्थ सैनिक के वेतन का विवरण पहली बार मिलता है। शाही सैनिकों का वेतन 600 टंका वार्षिक था। प्रत्येक मलिक का वेतन 50,000-60,000 टंका, अमीर का 30,000 से 40,000 टंका, सिपहसालार का 20,000 टंका तथा प्रत्येक सैनिक का वार्षिक वेतन 1000-10,000 टंका निर्धारित था। सैनिक अधिकारियों का वेतन अक्ता के रूप में तथा सैनिकों को नकद धनराशि के रूप में दिया जाता था। जो सैनिक सेनाध्यक्षं के अधीन होते थे उन्हें सीधे शाही खजाने से वेतन का भुगतान किया जाता था। मुक्ता सैनिक का वेतन उसकी अक्ता से प्राप्त आय के एक भाग से दिया जाता था। फिरोज तुगलक ने सेना को नकद वेतन के स्थान पर अतलाकी भूमि के रूप में बटन देने की प्रथा प्रारम्भ की। इसके काल में सैनिक नकद वेतन के स्थान पर भूमि या गांवों के लगान के रूप में वेतन पाने लगे। इन सैनिकों को वजहदार कहा जाता था। इन सैनिकों का वार्षिक वेतन दो हजार टंक था। इसी को ध्यान में रखकर उन्हें अक्ता प्रदान की जाती थी।
न्याय व्यवस्था- दिल्ली सल्तनत के शासकों ने न्याय व्यवस्था की विशेष ध्यान दिया। सुल्तान न्याय का अंतिम स्रोत माना जाता था। समीम दी का अन्तिम निर्णय करने की क्षमता उसमें निहित थी। धार्मिक मुकदर्मों का निर्णी करते समय वह मुख्य सद्र एवं मुफ्ती की सहायता लेता था। धर्मनिरपेक्ष मुकदमों में काजी सुल्तान की सहायता करता था। न्याय सबंधी कार्यों के लिए एक व्यक विभाग था जो दीवान-ए-कजा कहलाता था। इस विभाग का अध्यक्ष काजी-ए-मुमालिक अथवा काजी-उल-कुजात था। काजी-उल-कुजात न्याय विभाग के अधिकारियों की नियुक्ति एवं न्यायपालिका के संचालन के लिए भी उत्तरदायी था। इसके अधीन नायब काजी एवं अदल होते थे जो न्याय निष्पादन का कार्य करते थे। सद्र-उस-सुदूर धार्मिक मामलों में सुल्तान का प्रमुख परामर्शदाता होता था। इसका कार्य इस्लामी नियमों को लागू करना था। केंद्र की भांति प्रान्तों में भी न्याय व्यवस्था विकसित ह चुका था।
प्रान्तों में चार प्रकार के न्यायालय थे-
(1) वली या गवर्नर का न्यायालय
(2) काजी-ए-सूबा का: न्यायालय,
3) दीवान-ए-सूबा का न्यायालय,
(4) सद्रसूबा का न्यायालय।
1. वली या गवर्नर का न्यायालय-प्रान्त का वली या गवर्नर प्रान्त का सर्वोच्च अधिकारी था। उसका प्रमुख कार्य न्याय करना था। वह स्वयं प्रान्त का सर्वोच्च न्यायालय होता था। किन्तु अपील के मुकदमों में वह काजी-ए-सूबा की सहायता लेता था। प्रान्त का वली सभी प्रान्त में सभी प्रकार के मुकदमों की सुनवाई करता था। इसलिए उसके न्यायालय का क्षेत्रधिकार सबसे अधिक था।
2. काजी-ए-सूबा का न्यायालय- प्रान्त में वली के बाद काजी-ए-सूबा आता था। काजी-ए-सूबा की नियुक्ति सुल्तान द्वारा मुख्य काजी की सिफारिश पर की जाती थी। वह दीवानी तथा फौजदारी दोनों मुकदमों की सुनवाई करता था। काजी-ए-सूबा प्रान्त के सभी काजियों के कार्यों की देख-रेख करता था तथा दीवान-ए-सूदा की नियुक्ति के लिए प्रत्याशियों की सिफारिश करता था।
3. दीवान-ए-सूबा का न्यायालय- दीवान-ए-सूबा के न्यायालय का क्षेत्राधिकार बहुत सीमित था। वह केवल भूमि-राजस्व संबंधी मामलों का निर्णय करता था। 4. सद्र-सूबा का न्यायालय- सद्र सूबा के अधिकार भी सीमित थे। प्रान्तीय न्यायालय में भी केन्द्र की भांति मुफ्ती, मुहतसिब और दादबक होते थे। बड़े नगरों में अमीर-ए-दाद नामक न्यायिक पदाधिकारी होता था। इसके दो प्रमुख कार्ग थे पहला, अपराधियों को गिरफ्तार करना तथा दूसरा, काजी की सहायता से मुकदमा का निर्णय करना। उसकी सहायता के लिए नायब-ए-दादबक नामक अधिकारी होत थे। प्रान्त के न्यायिक उपविभागों में काजी, फौजदार, आमिल, कोतवाल और गांव पंचायत शामिल था। गांव पंचायत अपना शासन करने में पूर्ण रूप से स्वतंत्र था। वह भूमि वितरण संबंधी कार्य स्वयं करता था तथा स्थानीय झगड़ों का निपटारा करता था। इसके अतिरिक्त पंचायत लोगों से कर वसूल कर सरकारी खजानों में जमा करता था।
कानून व्यवस्था- सल्तनत काल में कई प्रकार के कानून थे। मुसलमानों पर शरीयत के कानून लागू थे तथा हिन्दुओं को उनके धार्मिक कानून और परम्परा के अनुसर न्याय मिलता था। फौजदारी कानून और राजनैतिक अपराधों से सम्बद्ध कानून सभी के लिए एक समान थे। शरीयत के अतिरिक्त सुल्तानों द्वारा स्वतंत्र रूप से कानून बनाए जाते थे जिन्हें जब्ता या जवाबित कहा जाता था। यह राजकीय कानून था जिसे सभी को मानना अनिवार्य था।
मुस्लिम कानून के चार स्रोत है
कुरान मुस्लिम कानूनों का प्रमुख स्रोत है। हदीस, हजरत मुहम्मद के कथनों एवं कार्यों का संग्रह है। इजमा, कानून का मुजाहिद द्वारा व्याख्यायित स्रोत है तथा कयास, तर्क अथवा विश्लेषण के आधार पर कानून की व्याख्या है।
इक्ता व्यवस्था- शासन की सुविधा की दृष्टि से राज्यों को छोटे इकाइयों में बांटा गया। उस समय प्रान्तों को इक्ता कहा जाता था। इक्ता के प्रशासक मुक्ता या वली कहलाते थे। ये सम्बन्धित क्षेत्र में भू-राजस्व का संग्रह करते थे और उस क्षेत्र का प्रशासन देखते थे। ये अपनी प्रशासनिक खर्च एवं वेतन को निकाल कर शेष आय केन्द्रीय खजाने में भेजते थे जिसे फवाजिल कहा जाता था। समय-समय पर कुछ सुल्तानों के द्वारा इक्तादारों के नियंत्रण का प्रयास किया गया। सुल्तान और मुक्ति का परस्पर सम्बन्ध परिस्थितियों पर निर्भर करता था। मुक्ति का पद वंशानुगत नहीं होता था। उसका स्थानांतरण होता था। बलबन ने मुक्ति को नियंत्रित करने के लिए इक्ता में ख्वाजा नामक अधिकारी की नियुक्ति की। वह इक्ता की आमदनी का आकलन करता था। इक्तादारों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने उनके स्थानान्तरण पर बल दिया। उसके समय में दीवान-ए-विजारत ने इक्ताओं की आय पर अपना नियंत्रण रखा। गियासुददीन तुगलक ने मुक्ता के व्यक्तिगत व्यय और उसके सैनिकों पर किए जाने वाले व्यय को पृथक कर दिया जिससे सैनिकों के वेतन में मुक्ता कमी न कर सके। मुहम्मद तुगलक ने इक्ता के राजस्व में से इक्तादारों की व्यक्तिगत आय तथा उसके अधीन रखे गए सैनिकों के वेतन में स्पष्ट विभाजन किया। उसने भू-राजस्व संग्रह और प्रशासन के कार्यों का विभाजन किया। अब राजस्व संबंधी उत्तरदायित्व मुक्ता तथा वली से लेकर एक नए अधिकारी वली-उल-खराज को सौंप दिया गया। इब्नबतूता के अनुसार इक्ता में दो प्रकार के अधिकारी नियुक्त होते थे। प्रथम, वली-उल-खराज जो लगान वसूल करता था तथा दूसरा अधिकारी अमीर था जो सेना की रेख-रेख करता था। इक्ता की आय के निरीक्षण आमिल नामक अधिकारी करता था। मुहम्मद तुगलक ने इक्ता के सैनिकों का वेतन भी केन्द्रीय खजाने से देने का प्रावधान किया। फिरोज तुगलक ने सैनिकों को वेतन के बदले भूमि-अनुदान देने की प्रथा प्रारम्भ की। लोदियों के समय में वली अथवा इक्तादार अत्यधिक शक्तिशाली हो गए थे। वे बड़ी-बड़ी सेनाएं तथा हाथियाँ भी रखने लगे थे जिन पर सुल्तान का आधिपत्य होता था।
खालसा या महरूसा- खालसा भूमि वह भूमि होती थी जिसकी आय सुल्तान के लिए सुरक्षित रखी जाती थी। इन क्षेत्रों में नियंत्रण तथा निरीक्षण शहना, अमीर या मलिक नामक अधिकारी द्वारा किया जाता था। दिल्ली के प्रारम्भिक सुल्तानों के अन्तर्गत भटिंडा (तबरहिन्द) तथा ग्वालियर खालसा भूमि थी। अलाउद्दीन के समय खालसा भूमि का अत्यधिक विस्तार हुआ किन्तु फिरोज तुगलक ने उसकी नीति को उलट दिया जिससे खालसा भूमि कम हो गयी। सुल्तान मसूद शाह के काल में भटिंडा को साधारण अक्ता में परिवर्तित किया गया।
READING AND REFERENCES
HC VERMA -MEDIEVAL INDIA
SATISH CHANDRA- MEDIEVAL INDIA
HABIB IRFAN-ADMINISTRATION AND ECONOMY
IGNOU NOTES
NCERT NOTES