संत का सान्निध्य, भिक्षु को प्राप्त
1996 की बात है। दिल्ली में स्थित एक उच्च शिक्षा संसथान का एक 25-वर्षीया शोध छात्र अपनी पढ़ाई त्याग बौद्ध भिक्षु संवर में प्रवृज्जित हुआ। उससे पूर्व के एक वर्ष में उसकी ऐसे अनेक लोगों से मैत्री हुई थी जो किसी वैकल्पिक जीवन पथ पर चल रहे थे। उन लोगों के माध्यम से उसे ऐसे कुछ आदर्श प्राप्त हुए जो तब तक की उसकी सामान्य महत्वाकांक्षाओं से बृहत और अधिक आकर्षक थे। सन्यस्त जीवन पथ पर उसे ले जाने में अनेक कारणों का संयोग था : संयम और सादगी के जीवन के प्रति रुझान, आध्यात्मिक क्षेत्र में जांच पड़ताल की अभिलाषा, और यह खोज कि नेक जीना कैसा हो। यद्यपि वह स्वयं बौद्ध परंपरा में प्रविष्ट हुआ, उसकी नूतन मित्र मंडली के अनेक लोग गांधीजी के विचारों से प्रेरित सामाजिक कार्यकर्ता थे, और गाँधी विचार की एक गहरी छाप उस पर भी रह गयी।
इसी लिए, भिक्षु के जीवन में प्रवृज्जित होने के पश्चात भी उसने, तुरंत मठ-विहार के परिवेश में न प्रविष्ट होते हुए, कुछ समय तक अपने भिक्षु संवर के नियमों का अनुपालन करते हुए भी सक्रियता से सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने का निर्णय लिया। (सामान्य अवधारणाओं के विपरीत, भिक्षु संवर को स्वीकारना किसी अध्ययन-काल की समाप्ति न हो कर प्रायः अध्ययन-काल का प्रारंभ होता है।)
एक गांधीवादी कार्यकर्ता मित्र द्वारा उसे पता चला कि श्री सुंदरलाल बहुगुणा जी के सिलयारा-स्थित आश्रम में उसके जैसे किसी व्यक्ति द्वारा कुछ सकारात्मक योगदान हो सकता था; और शायद वहां का शांत, स्वाध्याय-शील वातावरण उसके लिए भी अनुकूल सिद्ध हो। वहां उसे अवसर मिलने वाला था, स्कूली बच्चों को पढ़ाने का, आश्रम के पुस्तक संग्रह को सुव्यवस्थित करने का, और आश्रम के ग्रामीण लोगों के साथ अन्य कार्यक्रमों में शामिल होने का।
वह अपना सामान एक बस्ते में बांध, अपने गांधीवादी मित्र के साथ सिलयारा के लिए निकल पड़ा। सिलयारा के रास्ते में वे सुंदरलाल बहुगुणा जी के निवास स्थान पर रुके : वह टिहरी शहर के प्रवेश पर स्थित पुल के बगल में, टिहरी बांध स्थली पर, पुराने टीन से बनी एक झोंपड़ी नुमा ईमारत थी, जिसे “गंगा हिमालय कुटी” के नाम से जाना जाता था। यही झोंपड़ी सुंदरलाल जी का निवास स्थान भी था और टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के संचालन का मुख्य केंद्र भी।
गंगा हिमालय कुटी देखने में तो बड़ी ही साधारण सी झोंपड़ी नुमा इमारत थी जो बहुगुणा जी ने नीलामित पुराने टीन की चादरों से सस्ते में बनवायी थी। लेकिन बांध विरोधी आंदोलन के संचालन केंद्र के रूप में उसका असली महत्व और ख्याति, उसके इसी सामान्य से बाहरी आवरण में छिपे हुए थे। वहां लोगों का निरंतर आवागमन जारी रहता था: कार्यकर्ता, शोधकर्ता, ग्रामीण जन, एनजीओ-कर्मी, जासून, गुप्तचर, और यदा कदा तीर्थ यात्री जिन्होंने कहीं सुना कि वहां कोई संत पुरुष रहते हैं और श्रद्धा उन्मुख दर्शन हेतु चले आये!
जब वह भिक्षु और उनके मित्र गंगा हिमालय कुटी पहुंचे, उन दिनों ही बहुगुणा जी ने विनाशकारी विकास के विरुद्ध अपना एक लम्बा उपवास शुरू किया था; ऐसे उपवास के दौरान वे मौन भी साधे रखते थे, जिसे वे श्याम की प्रार्थना सभा में कुछ ही क्षणों के लिए तोड़ते थे, उपस्थित लोगों को सम्बोधित करने के लिए। मौन साधे बहुगुणा जी का दिन गुज़रता था चिंतन मनन मे, अग्रिम योजना व रणनीति निर्धारण में, अपने सहयोगियों व साथियों के साथ सलाह मशवरे में (संक्षिप्त लिखित टिप्पणियों द्वारा), और ऐसे लेख रचने लिखने में जो प्रायः उनके हृदय के करीब, पर्यावरण, विकास व जीवनशैली सम्बद्ध विषयों पर होते थे। अक्सर वे एक दिन में एक से अधिक लेख रच देते, मुद्दों को विभिन्न पहलुओं से जांचते हुए, अधिक उत्तरदायित्व का आह्वाहन करते हुए, और अदम्य उत्साह से सुसक्रियता के लिए प्रेरित करते हुए।
कुटी में दो ही कमरे थे : एक बहुत ही छोटा व संकीर्ण कक्ष जिसमे बहुगुणा जी रहते थे, और एक बड़ा कमरा जो दफ्तर भी था, बैठक भी, और जिसके एक कोने में गद्दों का एक ढेर था जिन्हे रात को बिछा कर कमरे को एक सामूहिक शयनागार में परिवर्तित कर दिया जाता था। भिक्षु और उनके मित्र आये तो यही सोच के थे कि वे वहां कुटी में कुछ घंटों के लिए ही रुकेंगे, आगे सिलयारा आश्रम की ओर रवाना होने से पहले। परन्तु चूँकि तब ही बहुगुणा जी ने अपना अनिश्चित कालीन उपवास प्रारम्भ किया था, कुटी में ज़ोर पकड़ते आंदोलन की ऊहापोह और हलचल का माहौल बना हुआ था। भिक्षु के सहयात्री मित्र बहुगुणा जी के निकटतर सहयोगिओं में से थे, इस लिए उनहोंने यह प्रस्ताव रखा की वे लोग दो एक रोज़ कुटी में ही रुक कर गति पकड़ते बांध विरोधी आंदोलन के कार्यों में सहयोग करें।
उसी बड़े दफ्तर-व-बैठक के एक कोने में उपेक्षित पड़े एक पोर्टेबल टाइपराइटर पर भिक्षु की नज़र पड़ी, और सहयोगी सिद्ध होने के उद्देश्य से उसने बहुगुणा जी द्वारा लिखे जा रहे लेखों व विज्ञप्तियों को टाइप करने की पेशकश की जो अन्यथा बहुगुणा जी साफ़ सुथरे हस्तलिखित स्वरूप में ही प्रकाशन हेतु विभिन्न प्रकाशन / सिंडिकेशन एजेंसियों को भेजा करते थे। वह भिक्षु ने अपने बचपन के अनेक दिन अपने संपादक दादा के घर में विभिन्न टाइपराइटरों से खेलते गुज़ारे थे, और वह एक निपुण टाइपिस्ट था, तो उसने प्रतिदिन बहुगुणा जी द्वारा रचित लेखों आदि के टंकण का कार्य संभाल लिया। बहुगुणा जी भी अपने दैनिक विचारशील लेखन के ऐसे सुस्पष्ट टंकित स्वरुप से प्रसन्न थे, और धीरे धीरे उस दफ्तर के अन्य कार्य भी भिक्षु के ज़िम्मे आने लगे जिन्हे वह कुशलता व तत्परता से संपन्न करता।
दिन हफ्तों में बदल गए और हफ्ते महीनों में। वह भिक्षु उस कुटी की व्यवस्थाओं का अभिन्न अंग बन गया। क्यूंकि वह भिक्षु के वस्त्रों में था, सब उसे ‘भिक्षु जी’ के नाम से ही सम्बोधित करते थे। हर दोपहर वह अपना दिन का एकमात्र भोजन करता, एक समृद्ध स्वयंपाक खिचड़ी। हर शाम वह उसी दफ्तर के एक कोने में एक गद्दा बिछा, उसे अपना बिस्तर बना लेता।
कुटी में निवास करते हुए उस भिक्षु के लिए सीखने व सोखने को बहुत कुछ था। सादगी व सामाजिक समर्पण के उन आदर्शों को उसने आत्मसात किया जो उसने बहुगुणा जी व उनके साथियों के जीवन में देखे।वहां उसे ऐसे लोग मिले जो दैनिक जीवन के तुच्छपन के पार, जगत के कल्याण के लिए समर्पित थे और जिनके लिए यह एक रोज़मर्रा की निजी चिंता थी। उनसे उसने सीखा कि ‘सक्रियता’ किसे कहते हैं : अपनी निजी पीड़ाओं व व्यथाओं से परे, सामाजिक / सार्वजनिक हित के लिए समर्पित व अग्रसर रहना। उसे समझ आया कि ‘यदि आप सक्रियतावादी नही हैं, तो आप निष्क्रियतावादी हैं।’
यद्यपि विनाशकारी विकास के खिलाफ छिड़ी मुहिम का सार्वजनिक चेहरा तो सुंदरलाल जी थे, पीछे से बागडोर के विभिन्न सूत्रों को कुशलता व मज़बूती से संभाले हुए रहती थीं श्रीमती विमला बहुगुणा। विमला जी की शिक्षा दीक्षा लक्ष्मी आश्रम, कौसानी, में सरला बहन की देखरेख में हुई थी, इस लिए जब उनका सुंदरलाल जी से विवाह हुआ तब वे सादगी व सामाजिक समर्पण के जीवन के लिए तैयार ही थीं। दांपत्य में उनकी एक विशिष्ट बलशाली जोड़ी गठित हुई, जिसने गांधी-विनोबा के आदर्शों की विरासत को पुष्ट किया, केवल उनकी वकालत करके नहीं, बल्कि उन आदर्शों को अपने दैनिक जीवन में उतार कर।
अंत में वह भिक्षु उस कुटी में पूरे एक वर्ष रहा, बल्कि सिलयारा कभी पहुंचा ही नहीं। वहां एक वर्ष उपरांत उसमे पारम्परिक शास्त्रों के अध्ययन की तीव्र चाहत उमड़ी और वह उस लक्ष्य की पूर्ति हेतु कुछ वर्षों के लिए सारनाथ, बनारस, चला गया। अनेक वर्षों बाद उसने अपने भिक्षु संवर से भी अलविदा ली और गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट हुआ, अपना परिवार रचा, संभाला। परन्तु एक वैकल्पिक जीवन पथ पर उसकी यात्रा जारी रही। वह कर्णाटक के एक गांव में जा बसा जहाँ उसने अपने परिवार के लिए मिटटी का एक घर बनाया। और सादगी व सामाजिक समर्पण से उसका जीना जारी रहा। और इस सब में, टिहरी के उस संत पुरुष के सान्निध्य में उसे प्राप्त हुई सीख हमेशा उसके साथ रही।
मुझे यह सब मालूम है, क्योंकि मैं ही वह भिक्षु था।
विनीश गुप्ता
शिरसि, कर्णाटक।
फरवरी, 2022